आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) “दशहरे में जो बलि चढ़ाते हैं, मेरा प्रश्न उसके विषय में है। एक समय हमारे मंदिर में जो बलि चढ़ाने वाली जगह होती है उसकी जगह बदल दी गई, और उसके बाद जो मंदिर समिति के अध्यक्ष हैं उनकी मृत्यु हो गई, और कुछ दूसरे लोगों की भी मृत्यु हुई। गाँव के लोग सोचते हैं कि ये सब उस बलि वाली जगह को बदलने के कारण हुआ है, साथ ही कुछ लोगों का ये मानना है कि बलि चढ़ाना ठीक नहीं है। और उसके बाद हमारे गाँव में बहस भी चली। कुछ लोग कहते थे कि ‘बलि चढ़ाने की परंपरा है, हम इसको ऐसे ही नहीं छोड़ सकते, हमारे पूर्वज यही करते थे।‘ कुछ कहते हैं कि ‘बलि चढ़ाना ठीक नहीं है, ऐसा शास्त्रों में भी लिखा हुआ है।‘ लेकिन वो लोग जो बोलते भी हैं कि ‘बलि चढ़ाना ठीक नहीं', अपने घर में तो माँस खाते ही हैं। तो मैं पूछना चाहता हूँ कि बलि चढ़ाना ठीक है या नहीं।” प्रबन थापा, मिज़ोरम से।
बलि का नाम तो तुम यहाँ मंदिर के परिप्रेक्ष्य में ले रहे हो न, धर्म के संबंध में ले रहे हो न? तो बलि क्या है, उसका उद्देश्य धर्म के आत्यंतिक उद्देश्य से भिन्न तो नहीं हो सकता। अगर आप किसी क्रिया को धर्म के अंतर्गत मानते हैं, तो उस क्रिया का भी उद्देश्य वही होगा न जो धर्म का उद्देश्य है? मंदिर में कुछ भी हो रहा हो, उसका उद्देश्य मैला फैलाना, मन को ख़राब करना या अशांति फैलाना तो नहीं हो सकता, या हो सकता है? मंदिर में अगर कुछ भी हो रहा हो, तो उसका तो एक ही उद्देश्य होगा— शांति, सत्य, करुणा। ठीक? धर्म इन्हीं की ओर ले जाने वाला मार्ग है न? सत्य की ओर, मुक्ति की ओर, शांति की ओर। है न? अब धर्म में ही बात करी गई है बलि की। समझिएगा बात को। धर्म किसलिए है? आपको शांति की ओर ले जाए, मुक्ति की ओर ले जाए, करुणा की ओर ले जाए। और धर्म में ही बात की गई है बलि की, तो निश्चित रूप से बलि का भी उद्देश्य क्या होता होगा? शांति, मुक्ति, सत्य, प्रेम, करुणा—यही उद्देश्य होता होगा न बलि का?
अब यहाँ से हम समझेंगे कि बलि वास्तव में फिर होती क्या है। धर्म मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करने का अभियान और विज्ञान है। दूसरे शब्दों में, धर्म मनुष्य को उसकी पाशविकता के पाश से मुक्त करने का आयोजन है। ठीक? जो देह के पाश में बँधा हुआ है, जिसकी एक-एक गतिविधि उसकी देह द्वारा ही संचालित होती है, उसकी चेतना द्वारा नहीं, उसका क्या नाम? पशु। या कहिए कि जिसकी चेतना पूरे तरीके से उसकी देह से आबद्ध है, उसका नाम पशु। आदमी के पास अगर धर्म नहीं है तो आदमी की चेतना भी पूरे तरीके से आबद्ध है, बँधी हुई है उसकी देह से ही। तो उस अर्थ में आदमी भी फिर क्या रह गया? पशु। अगर धर्म नहीं है तो आदमी पशु है; क्योंकि कितनी भी बुद्धि हो, कितनी भी सामर्थ्य हो, कितना भी पैसा हो, कितना भी ज्ञान हो, मनुष्य का केंद्रीय वक्तव्य यही रहता है कि “मैं तो देह हूँ।“
“मैं देह हूँ और मेरे पास ज्ञान है। मैं देह हूँ और मेरे पास तकनीक है। मैं देह हूँ, मेरी ज़बरदस्त बुद्धि है। बुद्धि है, ज्ञान है, तकनीक है, स्मृति है, सामर्थ्य है, वो सब किसके पास है? मेरे पास। मैं कौन हूँ? मैं देह हूँ, मैं ये (शरीर की तरफ़ इशारा करते हुए) हूँ, मैं देह हूँ। मेरे पास ज्ञान है, मेरे पास ऐसा है, मेरे पास वैसा है, मैं देह हूँ।“ तो बाकी सब बातें बाद की हैं, केंद्रीय बात क्या रहती है मनुष्य की? “मैं देह हूँ।“ — यही पशुता है।
पशुता इसमें नहीं है कि पशु विचार नहीं कर पाता, पशुता इसमें है कि पशु देह की तरह जीता है, उसके पास ऐसी चेतना नहीं है जो देह के बंधन से आज़ादी माँगे। इसी तरीके से, मनुष्य आप बस इसलिए नहीं हो जाते कि आपके पास विचार है या बुद्धि है या ज्ञान है। होगा बहुत विचार, होगी बड़ी बुद्धि, बड़ा ज्ञान, लेकिन वो सारा ज्ञान जिसके पास है वो तो मानता अपने-आप को देह ही है। तो अभी-भी आप क्या हो? आप ज्ञानवान पशु हो; क्या हो? ज्ञानवान पशु हो।
हमारे विश्वविद्यालयों में चले जाओ, वहाँ ज़्यादातर क्या मिलेंगे? बहुत ज्ञानी होंगे, लेकिन जीते तो देहभाव में ही हैं! तो वो हुए ज्ञानवान पशु, या बुद्धिजीवी पशु, या बहुत वैज्ञानिक किस्म के पशु, बहुत चतुर पशु, बहुत सक्षम पशु, बहुत धनी पशु, सुसंस्कृत पशु। जितनी भी बातें आपको जोड़नी हैं पशुता के साथ, आप जोड़ दीजिए, वो पशुता के ऊपर बस एक अदना-सा विशेषण बन कर रह जाएँगी; मूल में तो आप क्या हैं? पशु। तो धर्म का उद्देश्य होता है इस पशु को उसकी पशुता से आज़ादी देना। इसीलिए धर्म का उद्देश्य आपको ज्ञान देना नहीं होता। धर्म का उद्देश्य आपके मन को श्लोकों से या रीति-रिवाज़ों से या परंपराओं, प्रथाओं से भर देना नहीं होता। धर्म का उद्देश्य क्या होता है बात समझ में आ रही है? धर्म का उद्देश्य है आपकी मूल पहचान को चुनौती देना। धर्म का उद्देश्य है आपको याद दिलाना कि “भूल गए तुम अपनी ही अतृप्ति को, अपनी ही बेचैनी को, देह मत मानो अपने-आप को। तुम तो देह से मुक्ति के लिए झटपटाती हुई चेतना हो, तुम देह कैसे बन बैठे!”
जैसे तुमने ज़ंजीर पहन रखी हो, और झटपटा रहे हो तुम ज़ंजीर से ही आज़ादी पाने के लिए, लेकिन कह रहे हो, “मैं ज़ंजीर हूँ।“ तुम देह नहीं हो, देह तो वो है जिससे तुम्हें मुक्ति पानी है; हाँ, देह का उपयोग कर के ही देह से मुक्ति पानी है। तो देह की उपयोगिता भी है, लेकिन देह की उपयोगिता ये नहीं है कि देह के माध्यम से तुमको प्रसन्नता मिलेगी या तमाम तरीके के रस और मज़े मिलेंगे। देह की उपयोगिता ये है कि देह से मुक्ति भी चाहिए तो उसके लिए इस्तेमाल देह का ही करना पड़ेगा। ये धर्म का काम है। धर्म का काम है तुम्हारी भीतरी, तुम्हारी अति प्राचीन पशुता से तुमको आज़ादी दिलाना।
बात समझ में आ रही है?
पशुता माने? देहभाव। ये स्पष्ट हो रहा है? अब बताओ बलि क्या हुई, पशुबलि फिर क्या हुई? पशुबलि का मतलब जानवर मारना नहीं है, पशुबलि का मतलब है अपने भीतर के जानवर को मारना; पशुबलि का अर्थ है अपने भीतर के जानवर को मारना। अब बकरे की बलि दी जाती है, अजमेध बोलते हैं। बकरा क्या बोलता है हर समय? ‘मैं-मैं’— ये पशुता है। तो बकरे को नहीं मारना है, ये जो भीतर ‘मैं-मैं’ चलता रहता है इसको मारना है भाई! भीतर ‘मैं-मैं’ चल ही रही है, बाहर ‘मैं-मैं’ करते बकरे को मार दिया तो क्या मारा? वो बाहर वाला बकरा मर गया, भीतर वाला बकरा बैठा ही हुआ है, वो ‘मैं-मैं-मैं’ कर ही रहा है, उसको कौन मारेगा? उसकी बलि देनी थी न! गलत चीज़ की बलि दे दी, बकरा बेचारा जान से गया, बिना बात। वैसे ही अश्वमेध है। अश्वमेध क्या है? घोड़ा है, वो कुलाँचे ही मारता रहता है। यहाँ से दौड़ेगा, उधर जाएगा, तड़बक-तड़बक-तड़बक-तड़बक। तो अश्वमेध का क्या मतलब हुआ? वो ये नहीं कि घोड़ा पकड़ कर काट दिया। नहीं, घोड़े को नहीं काटना है; ये जो मन है न चंचल, इधर से उधर भागता है, कहीं ठहरता नहीं, उसको मारना है, वो अश्वमेध हो गया।
इसी तरीके से, मुर्गा काट देते हैं। अब मुर्गे की पशुता किसमें निहित है? ये उसकी बढ़िया लाल-लाल कलगी, और ऐसे वो अहंकार के साथ सर उठाए घूमता है, “ये देखो तुम! ताज किधर है? ताज इधर है!“ तो मुर्गे को नहीं काटना है, उसको काटना है जो सर पर ताज ले कर घूम रहा है और सोच रहा है कि “मैं ही दुनिया का बादशाह हूँ;” वो भीतर बैठा है भाई, उसकी बलि देनी है। और ये जितनी बातें मैं कह रहा हूँ, इनके समर्थन में श्रुति में और शास्त्रों में सीधे-सीधे श्लोक मौजूद हैं। कभी आप पूछेंगे तो मैं देख कर के उन श्लोकों का विवरण भी आपको दे दूँगा, जहाँ ये बिल्कुल स्पष्ट है कि पशुबलि का अर्थ होता है अपने भीतर के पशु को मारना; मारना भी नहीं, बलि का अर्थ होता है उसको देवताओं को अर्पित कर देना, कि “पशुता तो तुममें है ही, उसको देवता को अर्पित कर दो।“
देवता कौन है? वही जो धर्म का अभीष्ट है— सत्य, मुक्ति, शांति, प्रेम, करुणा। जानवर को समर्पित कर दो किसके प्रति? सत्य के प्रति। “ठीक है, तू भीतर बैठा है, तू बहुत छलाँगें मारता है।“ घोड़ा है, मन है घोड़ा, वो कुलाँचे मारता है, विचार हुआ न घोड़ा? विचार ही है जो तड़बक-तड़बक भागता रहता है। तो विचार को तुमने किसको समर्पित कर दिया? विचार को, घोड़े को तुमने किसको समर्पित कर दिया? तुमने कहा, “अब तू आत्मविचार करेगा! अब तू समर्पित हो गया है सत्य को।“ ये हुई पशुबलि, कि भीतर जो पशु था, मैंने उसको अर्पित कर दिया, मैंने उसको दे दिया, कि “तू रहेगा तो, लेकिन अब तू काम सारे वो करेगा जो सच्चाई की ओर जाते हों, करुणा की ओर जाते हों, मुक्ति की ओर जाते हों।“ ये है बलि का विज्ञान।
लेकिन करें क्या, आदमी तो आदमी है! जिन्होंने ये गूढ़ बातें समझीं और सिखाईं, वो एक लोग थे, और जिनके कानों में और दिमागों में ये बातें पड़ीं, वो बिल्कुल दूसरे लोग थे। जिन लोगों के कानों और दिमागों में बातें पड़ीं, उन्हें तो न करुणा से कोई मतलब, न प्रेम से कोई मतलब, उन्हें कोई प्रयोजन ही नहीं अपने भीतर आंतरिक शुद्धि करने में। और दूसरी बात, उनकी ज़बान बड़ी लपलपाती है, जानवर के माँस का ज़ायका लग गया है। तो पशुबलि के नाम पर दो-तीन लक्ष्य एक-साथ बिंध जाते हैं। पहली बात, तुम धार्मिक सिद्ध हो गए। भई मंदिर में जा कर बलि चढ़ा आए, तो धर्म वाला काम हो गया। कोई पूछे, “धार्मिक हो?” “हाँ हैं, हम बलि चढ़ाते हैं।“ दूसरी बात, वास्तविक धर्म की चुनौती से तुम बच गए, क्योंकि वास्तविक धर्म तो कहता है कि “भीतर वाले पशु को मारो,” उस चीज़ से तुम बिल्कुल बच गए। तीसरी बात, “आहाहा! क्या स्वाद आया है माँस खाने में!” तो तरह-तरह के लाभ हो गए धर्म का झूठा स्वरूप ग्रहण करने में। तो इस तरीके से ये पशुबलि का झूठा कार्यक्रम चलता रहता है।
कौन-सा धर्म बोलेगा कि जानवर मारो? ये कितनी व्यर्थ, वाहियात बात है, दिखाई नहीं देता? एक पशु को मारने से और मार कर खा जाने से तुमको शांति कैसे मिल जाएगी भाई? इससे कौन-सा देवता, कौन-सा ऊपर वाला प्रसन्न हो जाएगा कि तुम जानवर काट रहे हो? ये कितनी क्रूरता की, मूर्खता की, कैसी बात है ये!
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