प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको डेढ़ साल से सुनते आ रहा हूँ लगातार, और पिछले कुछ महीनों से मैं आपको रेग्यूरली (नियमित) मतलब प्रतिदिन डेढ़ से दो घंटे रोज़ सुनता हूँ मैं, सुबह और शाम को भी सुनता हूँ। मुझे आपको सुनकर एक चीज़ यह समझ में आयी है कि, मतलब आपको सुनने से पहले मेरे बहुत सारे फालतू के उद्देश्य थे कि मुझे यह करना है, वह करना है, यह सारी चीज़ें करनी हैं। पर आपको सुनने के बाद मेरे को यह चीज़ समझ में आयी कि जो जीवन का केन्द्र होना चाहिए वह सच होना चाहिए। और सच तक आप ऐसे नहीं पहुँच सकते कि मैं आज सोचा और कल से मैं सच तक पहुँच गया, या फिर कुछ करने लगा जिससे मैं सच तक पहुँच गया।
आपको सुनकर मुझे यह समझ में आया कि सच तक पहुँचने के लिए अपनी जमीन पर बंधी बेड़ियाँ काटना ज़रूरी है। तो मुझे अपने बन्धन दिखे कि हाँ! मेरी मज़बूरियाँ क्या हैं, और किन समस्याओं से मैं जूझ रहा हूँ जिसपर मुझे ध्यान देने की ज़रूरत है। और कल भी आपने लगातार सतर्कता की बात कही थी कि लगातार सतर्कता ज़रूरी है।
मेरी समस्या यह है कि मुझे पता है कि मुझे किन चीज़ों पर काम करना है पर मैं लगातार उन चीज़ों पर ध्यान नहीं दे पाता हूँ। मतलब ऐसा होता है कि हाँ! मैंने आज रात को सोचा कि मुझे यह-यह चीज़ें करना ज़रूरी हैं जिसके वजह से जो मेरा जीवन है, वह सुधरेगा, सुधर जाएगा धीरे-धीरे या कुछ उम्मीद होगी। उसपर मैं ज़्यादा से ज़्यादा अगर बहुत ज़्यादा हुआ तो कुछ दिन काम कर पाता हूँ, उसके बाद लगता है कि — ठीक है न! अभी थोड़ा रेस्ट (आराम) कर लेता हूँ या फिर इस टाइप की कुछ चीज़ें हो जाती हैं तो मैं फिर वापस से उसी जोन पर चला जाता हूँ जिसपर पहले चला आ रहा था।
तो मेरा सवाल यह है कि लगातार सतर्कता और ध्यान कैसे बनाए रखें? मैं कई प्रकार की मेडिटेशन भी करके देखा मैंने, उससे भी कोई बहुत ज़्यादा फायदा हुआ नहीं मुझे कि जिसके वजह से मेरा ध्यान चौबीस घंटे बना रहे। तो कृपा करके मुझे बताइए कि मैं ध्यान कैसे दे सकता हूँ? धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: देखो! जिसकी ज़िन्दगी जैसी चल रही होती है, वैसी इसलिए चल रही होती है क्योंकि वैसी चल पा रही होती है। जब वैसे चला पाना असंभव हो जाएगा तब झख मार कर अपनी ज़िन्दगी को बदलोगे। अभी चलाये ले जा रहे हो इसलिए चला रहे हो।
तुम्हारे पास एक गाड़ी है। टायर उसके घिस गए हैं, अलाइनमेंट नहीं है, ब्रेक-फ्लूड एक तिहाई बचा है। लेकिन उसका इस्तेमाल तुम कुल करते हो अपने मोहल्ले से किराने की दुकान तक जाने में। इतना ही उसका इस्तेमाल है। कूलेंट नहीं है, इंजन सीज़ होने तक पहुँच चुका है, लेकिन मस्त चल रही है। दो साल से उसकी यही दुर्दशा है लेकिन चल रहा है काम। ऐसे ही क्यों चल रही है वो गाड़ी? क्योंकि ऐसे वो चल सकती है। क्यों चल सकती है ऐसे? क्यों चल सकती है ऐसे? क्योंकि उसका कुल इस्तेमाल ही तुम कर रहे हो — डेढ़ किलोमीटर इधर जाना है और डेढ़ किलोमीटर वापस आना है। तो चल पा रही है। एक दिन उसको लेकर के एक्सप्रेस वे पर निकलो। अगले दिन तुरन्त तुम उसको गैराज भेजोगे। सब कुछ उसका बदलवाओगे।
तुम्हें किसी बड़ी शक्ति की ज़रूरत तब पड़े न जब तुम्हारे जीवन में कोई बड़ा काम हो। आत्मा माने बल। आत्मा के निकट वही पहुँच पाते हैं जिन्हें बल की ज़रूरत होती है। तुमने कुछ ऐसा पकड़ ही नहीं रखा है जिसमें तुम्हें बल की ज़रूरत हो। तो तुम्हारे घिसे हुए टायर भी चल रहे हैं आराम से, बदल ही नहीं रहे। 'क्यों बदलना है? काहे को पैसे खर्च करें, काम चल तो रहा है। जाना है और वहाँ से हल्दी और नमक और सरसों का तेल लेकर के आना है। उसके लिए काहे को हम गाड़ी पर पंद्रह- बीस हज़ार रुपये लगाएँगे?'
ज़िन्दगी में कोई बड़ा उपक्रम, कोई चुनौती, कोई प्रयोजन, कोई प्रोजेक्ट (परियोजना) है क्या? अच्छा मान लो महाभारत है। अर्जुन ने पहले ही कह दिया होता लड़ना-वड़ना क्या है, कुछ नहीं है ऐसे ही ठीक है, बढ़िया मजा आ रहा था। बाहर घूम रहे थे। वहाँ कभी नचनिया बनने को मिलता था। बीच में एक प्रेमिका भी बन गई थी, द्रौपदी को पता भी नहीं चला। सब कुछ बढ़िया, खूब घूम-घाम रहे थे, समस्या क्या है? काहे को जाकर दुर्योधन से पंगा लेना? बहुत ज़बरदस्त है। और इतने दिनों से, दस-बारह साल से वह तैयारी कर रहा था हमारी पिटाई करने की। देखिए! क्या बॉडी बना ली, बहुत मारेगा।
गीता कभी मिलती उसे? गीता मिले तुम्हें इसकी शर्त क्या है? पहले मैदान में तो उतरो। कृष्ण ने भी प्रतीक्षा की। उन्होंने कहा — यह मैदान में उतरेगा तब तो इसे कोई समस्या उठेगी न! जब तुम मैदान में उतरते ही नहीं तो तुम्हें समस्या काहे को आएगी? जब कोई बड़ी लड़ाई लड़ते ही नहीं तो गीता क्यों समझ में आये? फिर कहते हो — अरे यार! गीता नहीं समझ में आती, उपनिषद नहीं समझ में आते, यह है, वह है।
सब एक झटके में समझ में आ जाएगा। सब समझ में आ जाता है। इसको कहते हैं — ऑन द जॉब ट्रेनिंग (कार्य सह प्रशिक्षण)। एकदम स्पष्ट हो जाएगा सब ,अच्छा! यही तो बोला था आचार्य जी ने एकदम! दो साल से सोच रहे थे समझ में आया नहीं, अभी सामने खड़ा कर दिया है। सब एक झटके में स्पष्ट हो जाएगा। तुरन्त बोलोगे — “अहम् ब्रह्मास्मि।”
कोई बड़ा काम तो करो तो अध्यात्म की तुम्हें ज़रूरत पड़े। कुल करना क्या है? घर से निकले कालेज चले गए। वहाँ सो गए। किसी ने प्राक्सी लगा दी। इधर-उधर गए, हरी चटनी से समोसा खा लिया। दो-चार लड़कियाँ थीं, उनको घूर दिया। पास होने के लिए चालीस परसेंट चाहिए होते हैं, ऐसे ही आ गए। वह भी कम पड़ रहे थे तो इधर-उधर नकल कर ली, झाँक के। उसके बाद घर आ गए। कुछ टी वी, कुछ इंस्टाग्राम देख लिया। फिर सो गए। तुम ब्रह्मसूत्र का करोगे क्या इस ज़िन्दगी में? तुम्हें दे दिए गए ब्रह्मसूत्र, इसका क्या करोगे? जल्दी बताओ?
तुम्हें चलना है अपने मोहल्ले के तंग गलियों में और मैं तुमको दे दूँ टी-90 टैंक। तुम करोगे क्या उसका? वो काम का ही नहीं होगा। यह टी-90 उन्हीं के काम का है न जिन्हें बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी हों। और बड़ी लड़ाइयाँ लड़ने की ज़रूरत है। वह कोई वैकल्पिक चीज़ नहीं है कि — काहे को लड़े आचार्य जी? स्कूटी कितनी अहिंसात्मक है। ऐसे चल देती है बिलकुल —घुर्रर्रर्र…। तुम्हारी स्कूटी अहिंसात्मक नहीं है। इसी ने ठोंका था मुझे। ज़िन्दगी अगर स्कूटी पर ही मस्त चल रही है तो तुम्हें करना क्या है टैंक का?
मियां की दौड़ मस्जिद तक। तुम फाइटर प्लेन का क्या करोगे, जब जीवन अपने अहंकार के इर्द-गिर्द ही जीना है। यह रहा अहंकार का केन्द्र। इससे पाँच किलोमीटर आगे, इससे पाँच किलोमीटर दायें, इससे पाँच किलोमीटर दक्षिण। कुल इतना ही जब तुम्हारे जीवन का फैलाव है तो तुम क्या करोगे फाइटर प्लेन? वह तो झंझट हो जाएगा तुम्हारे लिए जैसे ज़्यादातर लोगों के लिए वेदान्त झंझट हो जाता है। कहते हैं — यह फालतू चीज़ पता चल गई। यह पता नहीं लगनी चाहिए थी। पहले ज़्यादा ठीक था, स्कूटी जिंदाबाद!
मुझसे बहुत लोगों को लाभ हुआ भी है। बहुत लोगों को, सैकड़ों में है उनकी संख्या जिन्हें बहुत-बहुत लाभ हुआ है और यह सैकड़ों वह हैं जो मुझे पता है। जिनको मेरे पीछे से हो गया, जो मेरे सामने कभी नहीं पड़े, उनकी तादाद हज़ारों में हो सकती है, लाखों में हो। लेकिन एक बात मैंने देखी है, जितने लोग मेरे सामने आये हैं बताने के लिए कि ‘हुआ’ यह सब, किसी गहरी मुश्किल में थे। जिनके पास मुश्किलें नहीं होती, जिनका जीवन यूँ ही साधारण, औसत, धीरे-धीरे बीत रहा होता है, उन्हें सच एक बोझ की तरह ही लगता है। कहते हैं — कहाँ फँस गए, क्या करना है? क्या बोल रहे हैं — यदा यदा हि धर्मस्य…।
भैया! एक पैकेट और देना कुट्टू का आटा। कह रहे हैं कि — उसने भेजा था कि जाकर कुट्टू का आटा ले आओ। अभी जा के उसको मैंने बोल दिया कि “यदा यदा हि धर्मस्य”…, बहुत मारेगी। बेकार की बात है यह। गीता-वीता बताने लगते हैं यह बीच में।
आज के युग की विडंबना यही है कि ज़िन्दगी बहुत आसान कर दी गयी है। एक बिलकुल मरियल, औसत आदमी के लिए भी ज़िन्दगी बहुत आसान कर दी गयी है। काहे को चाहिए अध्यात्म? बोलो? चार हज़ार में एंड्रायड फोन आता है कि नहीं आता है? सब कुछ चलता है उसपर।
जब चार हज़ार में ज़िन्दगी इतनी रंगीन हो सकती है तो काहे के लिए कोशिश करनी। इतना ही नहीं है बस चार सौ और खर्च करो तो उसपर पीछे से कवर ऐसा लगा देते हैं जैसे एप्पल हो गया वह। वह उसमें बना देंगे कि इसमें पाँच कैमरे हैं, पीछे से कवर ऐसा लगा देते हैं और सेब बना देते हैं। ज़िन्दगी जब ऐसे ही मजे में बीत सकती है तो आत्म विकास की आवश्यकता क्या?
“जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं।“ विघ्न सामने अब आने ही नहीं पाते। हर आदमी के लिए सब कुछ बहुत आसान है। कौन सा विघ्न? पहले ज़िन्दगी कठिन थी तो आपको चोट लगती थी। आप कहते थे कि यह क्या हो रहा है मेरे साथ? ट्रकों का धुआँ पीना पड़ रहा है, सड़क पर चल रहा हूँ, ऐसा हो रहा है वैसा हो रहा है, ठोकरें खा रहा हूँ। मेट्रो में बैठ गए, ठीक है। सब बढ़िया है। फ्लाइट के टिकट सस्ते होते जा रहे हैं। तीन हज़ार में उड़ गए। करना क्या है? औसत ज़िन्दगी में भी खूब आराम है, उन्नति चाहिए किसलिए? और उन्नति अगर चाहिए भी तो बस भौतिक चाहिए कि इकोनोमी क्लास से बिजनेस क्लास में आ पाए।
कोई ऐसी समस्या हमारे सामने आने ही नहीं दी जाती जो हमें भीतर से झकझोरकर रख दे, जो मूल रूप से हमें बदलने पर विवश कर दे। सब आसान है, ठीक है। मैं नहीं कह रहा ज़िन्दगी को जानबूझकर के कठिन बनाओ पर मैं बता रहा हूँ कि आज समय इतने विनाश और ह्रास का समय क्यों है? आदमी की चेतना इतने गिरे हुए स्तर पर क्यों है आज? क्योंकि पहले आपको मिडिऑकर होने की, औसत होने की आपको सज़ा मिलती थी, ज़िन्दगी आपको सज़ा देती थी। आज आपको कोई सज़ा नहीं मिलती। आज आप जैसे भी हैं आपके लिए बहुत आसानी है।
मैं बिलकुल नहीं चाहता हूँ कि पुरानी जैसी स्थितियाँ वापस आ जायें। लेकिन जब जीवन को इतना आसान बनाया गया, जब आम आदमी के लिए भी कंज्मशन (उपभोग) को इतना बढ़ा दिया गया तो साथ ही साथ यह व्यवस्था होनी चाहिए थी कि भौतिक तरक्की के साथ आन्तरिक तरक्की भी हो। भौतिक हमको तरक्की दे दी गयी, आन्तरिक दी नहीं गयी तो वह अंदर अज्ञान है, अब वह बाहरी तरक्की से बिलकुल संतुष्ट होकर बैठा हुआ है — ठीक चल रहा है, क्या करना है? बढ़िया है।
बीमार हो जाते हैं, मेडिकल साइंस से दवा मिल जाती है। मनोरंजन की कोई कमी नहीं। थोड़ा पैसा जमा कर लो तो अमेरिका चले जाओ। सब कुछ तो अपने पास है न! आई फील सो इंपावर्ड (मैं कितना शक्तिशाली महसूस करता हूँ)। और सांस्कृतिक, कल्चरल तौर पर भी मुझे ऐसा लगता है कि मैं बहुत इंपावर्ड हूँ। ट्विटर आ गया है। उसपर मैं किसी को भी जाकर के गाली दे सकता हूँ।
पहले आपको किसी ऊँचे आदमी से, ऊँचे से मेरा अर्थ आध्यात्मिक तौर पर ऊँचा नहीं सामाजिक तौर पर भी। पहले आपको किसी ऊँचे आदमी से मिलने के लिए हो सकता है साल भर प्रतीक्षा करनी पड़े। अब कुछ नहीं है, अब आप जाकर के कोई हो — राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो, कहीं का हो, फर्क ही नहीं पड़ता। बस उसने ट्वीट करी और उसके नीचे गाली लिख दीजिए। आपको बड़ी बलशाली होने की भावना आएगी।
'देखो! होगा कोई। मुँह पर बोल कर आया हूँ। माँ की गाली दी है। और यह आपका फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) है, कोई इसे रोक नहीं सकता।' तो बेहतर क्यों होना है? पहले मुँह खोलने के लिए कुछ पात्रता चाहिए होती थी। है न? सिद्ध करना होता था कि तुम मुँह चलाने लायक हो। आज मुँह चलाने का अधिकार सबको है, और किसी पर भी मुँह चला सकते हो। 'तो फिर मैं कोई पात्रता विकसित क्यों करूँ? मैं योग्यता अर्जित क्यों करूँ? मैं बेवकूफ़ हूँ लेकिन मुझे मुँह चलाने का हक़ मिल गया है।'
चुनौती कहाँ है कोई फिर? कहाँ चुनौती है, बताइए न? बेहतर होना है तो ज़िन्दगी को थोड़ा कठिन रहने दो। आराम-तलब मत बनो। कुछ कष्टों का वरण स्वयं ही करो। जूझते हुए आदमी में एक गरिमा होती है। संघर्षशील रहने पर एक तेज विकसित होता है। और आराम में, प्रमाद में चेतना सिकुड़ जाती है। जीवन संकुचित हो जाता है। कठिनाइयाँ पहले से ही मौजूद हैं, उनको दबाओ, छुपाओ मत। और अगर कभी लगने लगे कि कठिनाई तो कोई है ही नहीं तो समझ लो जीवन में कुछ गड़बड़ हो रही है। कठिनाई ढूँढो, होगी, तुम्हें दिख नहीं रही है।
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