प्रश्नकर्ता: नमन आचार्य जी, पहले मैं इतना आलसी नहीं था, जितना अब मैं हो चुका हूँ। पहले कुछ आदतें वैसी नहीं थी, जो अब आ चुकी हैं मेरे अन्दर। उन आदतों के दलदल से मैं बाहर नहीं आ पा रहा हूँ, मुझमें जैसे लगता है कि प्रेम की कमी है, बहुत गुनगुना सा रहता हूँ, कुछ बहुत रोष नहीं उठता है अन्दर से; अपनी बुराइयाँ भी दिख जाती हैं, लेकिन उन बुराइयों को छोड़ नहीं पा रहा, क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: खाना-पीना बन्द कर दो। जब खाना-पीना अच्छा चल रहा होता है न, तो स्थूल सुख के आगे सूक्ष्म दुख दब जाते हैं। जिस इंसान में प्रेम होता है, और एक आत्मगौरव होता है; वो कहता है, ‘जब असली चीज़ नहीं मिल रही तो नकली चीज़ को क्यों भोगता चलूॅं!’
या तो चॉंद चाहिए या कुछ भी नहीं। छोटे बच्चे होते है न! क्या चाहिए? ‘चाँद चाहिए।’ तुम उसको क्या ले जाकर दोगे? खिलौना, मिठाई; वो बोलेगा नहीं, क्या चाहिए? चाँद चाहिए, नहीं तो कुछ भी नहीं। खाऊँगा ही नहीं। तुम इतना खाते पीते क्यों हो?
जो दुख में होता है, उसका क्या लक्षण होता है? वो मस्त खायेगा पिएगा या वो खाना-पीना छोड़कर के सूखने बैठ जाता है? बोलो!
जब एक तरफ़ कोई बोले जीवन में प्रेम नहीं है, और खाना-पीना बराबर का चल रहा है, मौज चल रही है, भोग चल रहा है, हर तरीक़े का, सबकुछ! तो इसमें कहीं पता चल रहा है कि प्रेम नहीं है? अगर प्रेम नहीं होता, और प्रेम तुम्हारे लिए बहुत ऊँची बात होती, और तुम प्रेम की कमी को बड़ी तीव्रता से, बड़ी पीड़ा से, बड़ी सिद्दत से अनुभव कर रहे होते, तो तुम्हारा खाना-पीना ऐसे ही चल रहा होता क्या? जल्दी बोलो!
जब कोई आदमी को गहरा नुक़सान हो जाता है, तो उसकी जो पूरी सुख-सुविधा के क्रिया-कलाप होते हैं, वो वैसे ही चलते रहते हैं या वो रुक जाते हैं? जल्दी बताओ!
तुम्हारा कोई बहुत गहरा नुक़सान हो गया, उसके बाद तुमको जाना है किसी दावत में, वहाँ नाचना-गाना-बजाना, गीत-संगीत, खाना-पीना सबकुछ है। तुम वहाँ जाओगे क्या?
तो अगर तुम्हारा गहरा नुक़सान हो गया है कि जीवन में प्रेम नहीं है, तो तुम्हारी पार्टी फिर चल कैसे रही है यथावत? तुम्हें तो शोक मनाना चाहिए। शोक क्यों नहीं मना रहे? और अगर शोक नहीं मना रहे, इसका मतलब तुम्हें प्रेम चाहिए ही नहीं, चाहिए होता तो तुम शोक मना रहे होते न, पर तुम तो पार्टी कर रहे हो। प्रेम अगर नहीं है, तो जीवन को साफ़ बता दो मुॅंह पर, बाक़ी तू कुछ भी देगा हम नहीं लेंगे, या तो चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं।
या तो असली चीज़ दे दे, नहीं तो जो तू बाक़ी नकली चीज़ें दे रहा है, हम उनको भी लेने से इनकार करते हैं। तुम नकली चीज़ें क्यों ग्रहण किये जा रहे हो? तुम तो जीवन को यही बता रहे हो की असली चीज़ तू नहीं भी देगा, तो कोई बात नहीं; ये नकली माल-मसाला भरपूर देता रह बस! मना कर दो लेने से, ‘नहीं लेंगे, कुछ नहीं लेंगे। अनशन पर बैठ जाओ।
वो कैसा होगा इंसान; सोचो तो! जो एक तरफ़ तो कहे कि अभी-अभी मेरे दोस्त की मौत हो गयी और मैं बड़े दुख में हूँ, और फिर कहे, ‘अरे! वो पार्टी में भी तो जाना है, मस्त खाना चबाना है और शराब पीकर नाच-गाना है।’ इस आदमी को अपने दोस्त की ज़रा भी कद्र थी क्या?
श्रोता: नहीं।
आचार्य: हाॅं, जब कद्र होती है न, तो आदमी का बाक़ी काम… जी ही नहीं लगता; कहता है, ‘जब असली चीज़ नहीं मिली है तो जी काहे के लिए रहे हैं।’
प्र२: प्रणाम आचार्य जी, मैं जितना देख और समझ पा रहा हूँ कि ज्ञान से ही सही कर्म निकलता है, और सही कर्म ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता। और अगर ज्ञान सही कर्म में परिवर्तित नहीं हो रहा, तो ज्ञान जीवन में उतरा ही नहीं। अब अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है, तो कर्म में मूर्खता दिखनी शुरू हो जाती है।
आचार्य: हमारी संरचना ज्ञान के लिए भी नहीं हुई है न! तो ज्ञान कैसे बढ़ेगा? प्रयास करना पड़ता है, जिसको मैं चुनाव बोलता हूँ बार बार। न ज्ञान ख़ुद आएगा, न प्रेम ख़ुद आएगा, बोध नहीं आएगा, सरलता सहजता नहीं आऍंगें। जो कुछ भी जीवन में ऊँचा है, वो अपनेआप कभी नहीं आएगा, प्राकृतिक तौर पर नहीं आएगा; उसको तो बड़े श्रम से, साधना से, संकल्प से खींचकर जीवन में लाना होता है।
हाॅं, उनमें से किसी एक को आप ले आयें जीवन में, तो बाक़ी सब स्वतः घटित होने लगते हैं। अब प्रेम हमेशा मूल्य माॅंगता है, आप जान लगाकर के वो मूल्य चुकायें, तो फिर आप पाऍंगे कि उसी प्रेम ने आपको निर्हंकार भी कर रखा है, उसी ने आपमें अनासक्ति ला दी है, मोह कम कर दिया है, निर्भय बना दिया है। फिर वो और बहुत सारी चीज़ें हैं जो, प्रेम के साथ-साथ अपनेआप जीवन में आ जाऍंगी।
लेकिन मूल्य तो किसी एक मोर्चे पर पूरा चुकाना ही पड़ेगा। कोई एक मोर्चा हो कम-से-कम कम जहाँ आप पूरा मूल्य चुका रहे हों, फ़िर बाक़ियों पर फ़तह अपनेआप होने लगती है।
प्र: मैं ये देख पा रहा हूँ कि ये सबकुछ घट तो मेरे साथ ही रहा है, लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। और एक पहलू ये है कि भई, बड़े लोगों में से आये हो, उनमें उठना बैठना है, तो जो कर्म है, जो वो हम निचले तल पर उतर जाते हैं, वो नहीं करना है। तो ये दो साइड मैं अपनी देख पाता हूँ।
आचार्य: देखिए, ये बड़ी अच्छी बात है यदि लगने लगे कि इसमें मैंने कुछ करा नहीं है, ये विनम्रता का सूचक है, लेकिन ऐसा होता नहीं है; कम-से-कम आरम्भिक चरण में कि अपने संकल्प के बिना चीज़ें बोध की दिशा में, या सही दिशा में अपनेआप घटने लग जाऍं। तो मूल्य तो आप चुका ही रहे होंगे, और ये अच्छी बात है कि आप उसके साथ इतने सहज हो गये हैं कि अब आपको याद भी नहीं है कि आप मूल्य चुका रहे हैं, या आपको ये बहुत अनुभव नहीं होता, या कष्ट नहीं होता कि मूल्य चुका रहे हैं। लेकिन मूल्य तो चुकाया जा ही रहा है।
देखिए, क्या होता है न! मान लीजिए, आप तीर्थ जा रहे हैं, केदारनाथ जा रहे हैं, ठीक है? अब मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है, मूल्य क्या चुका रहे हैं आप कि उतनी ऊँची चढ़ाई है, वहाँ ऊपर बैठे हुए हैं, महादेव – आपको अब पूरा चढ़कर के जाना है। लेकिन कोई ऐसा भी हो सकता है, जिसको उस पूरी यात्रा से, उस पर्वतारोहण से ही प्रेम हो जाए, आनन्द आने लग जाए, अब वो मूल्य कहाँ चुका रहा है।
उससे आप पूछेंगे कि मूल्य चुका रहे हो न? देखा, तीर्थ जाने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है। अब श्रम तो वो कर रहा है, लेकिन वो श्रम करने में, आने लग गया है उसको आनन्द। वो चल रहा है, अब उसको भी दर्द हो रहा होगा और ये सब है, ऊँची चढ़ाई है, ठंड-वंड भी लग रही हो शायद! तो मूल्य तो चुका ही रहा है, लेकिन वो जो पूरा रास्ता ही है वहाँ तक का, वो नयनाभिराम भी बहुत है; और मौज बड़ी आ रही है वहाँ पर। जब मौज आने लग जाती है तो फिर आदमी भूल जाता है कि इसमें हमारा घट क्या रहा है, इसमें हम दे क्या रहे हैं; फिर आदमी ये गिनने लग जाता है कि आनन्द मिल कितना रहा है।
ये दृष्टि का ही परिवर्तन है, ये अब अनुग्रह की दृष्टि बन गयी है। अब ये मिले हुए को गिन रही है। ये देख रही है कि क्या मिल रहा है; और मिले हुए को जब आप गिनने लग जाते हैं तो और मिलने लग जाता है। जिधर को आपकी नज़र होती है न, वही आपका बढ़ता है। आप गिनने लग जाइए कि आपका छिन क्या-क्या रहा है – बहुत लोगों की पूरी ज़िन्दगी यही करने में बीत जाती है, मेरे साथ ये नुक़सान हो गया, मेरा इसने ये छीन लिया, जीवन ने मेरे साथ धोखा कर दिया।
आप ये सब गिनेंगे, तो यही और बढ़ेगा। और आप सही दिशा चलने लग जाऍं, और सही दिशा चलते हुए आपको, जो हल्कापन मिलने लगे, थोड़ा आनन्द मिलने लगे, थोड़ी मौज मिलने लगे, थोड़ी सरलता मिलने लगे, और आप उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने लगें, आप साफ़-साफ़ मानना शुरू कर दें कि साहब, मिल रहा है। तो फिर ये होता है कि जो मिल रहा होता है वो बढ़ जाता है, मानने से बढ़ जाता है; आपने माना तो बढ़ जाएगा। जिसको आप मानेंगे, वही बढ़ने लग जाता है।
क्योंकि खेल ही सारा मान्यता का है। 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत', ये मान्यता ही तो है कि मन ने मान लिया कि हार गये, मन के हारे हार है तो हार गये। इनका कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। आप जिस भी हालत में हैं, उसमें अगर आपको, सच दिखाई देने लग जाए तो सच बढ़ने लग जाएगा, प्रेम प्रतीत होने लग जाए, प्रेम बढ़ने लग जाएगा।
‘चारों तरफ़ सब माया-ही-माया है, और मुझे इससे अपना बचाव करना है या मुझे इसी माया दुश्मन से अपने लिए कुछ चीज़े छीनकर के लानी है।’ तो माया और बढ़ जाएगी।
जिसके प्रति आप कृतज्ञ ही नहीं हैं, वो आपको और ज़्यादा क्यों मिले? ऐसा कोई भी नहीं होता, जिसके जीवन में कृष्ण एकदम भी मौजूद न हों। आप कृष्ण से कितने भी दूर चले जाइए, जब सत्य वही हैं, तो थोड़े-बहुत तो वो आपके पास होते हैं।
प्रश्न ये है कि जितना कृष्णत्व आपको उपलब्ध है, आपका उसके प्रति भी क्या रुख है? आप उसको बढ़ाना चाहते हैं या धिक्कारना चाहते हैं? आप बढ़ाना चाहेंगे, बढ़ जाएगा। बढ़ेगा तब जब कृतज्ञता होगी। मानो कि बहुत ऊँचा है। मानो कि उसका उपकार कि जितना मिला, उतना भी मिला। यदि कम मिला, तो भी उसने उपकार करा, क्योंकि हम किस लायक थे? हम तो प्रकृति के खिलौने हैं, हम तो जंगल के जानवर हैं। हम किस लायक थे? वो मिल गया उसका एहसान है, नहीं तो हम तो जंगल में भौंक रहे होते।
और जंगल माने, ये सब शहर-वहर, ये सब जंगल ही हैं। इसमें इतने जानवर इधर-उधर; हम भी ऐसे ही घूम रहे होते, जानवर! जितना भी मिल गया, उसने बड़ी कृपा करी, जब ये मानने लग जाते हो, तो बात बढ़ने लग जाती है।
ये देखो, ये दोनों बातें आपस में फिर जुड़ी हैं। आत्मज्ञान यदि नहीं है तो अनुग्रह भी नहीं हो सकता; आत्मज्ञान का क्या मतलब होता है? आत्मज्ञान का मतलब होता है, जानना कि मैं जानवर हूँ। अपनी पशुता को जानना आत्मज्ञान है। जहाँ आत्मज्ञान है, फिर वहाँ अनुग्रह आएगा। मैं जानवर हूँ तो फिर मेरे जीवन में ये सच्चाई की दो-चार किरणें कहाँ से आ गयीं? जहाँ से भी आ गयीं, उसका एहसान है। मैंने एहसान माना। अपने बूते तो मैं किसी अन्धेरी गुफ़ा में ही ज़िन्दगी बिता देता। ये दो-चार किरणें भी नसीब नहीं होनी थीं। दो-चार किरणें भी आ गयी हैं, मैं करबद्ध होकर के कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
अब तुम पाओगे कि तुम्हारी गुफ़ा के आगे जो पत्थर रखा है भारी, थोड़ा और खिसकेगा। रोशनी का एक और टुकड़ा, तुम्हारी गुफ़ा में, तुम्हारे जीवन में प्रवेश करेगा।
हम अपनेआप को बहुत बड़ा आदमी माने रहते है न। अक्सर हम कहते रहते है, ‘मेरा तो अधिकार ही है मुक्ति।’ हमारा अधिकार मुक्ति-वुक्ति कुछ नहीं है, हमारा वही अधिकार है जो जंगल के किसी भी जानवर का अधिकार है। क्या अधिकार है? यही अधिकार है, जियो, खाओ, पियो, घोंसला बनाओ, मर जाओ।
समझ रहे हो?
जो कुछ भी तुम्हें ऊँचा नसीब हो रहा है, उसको किसी का प्रेम मानना। तुम्हारे मन में उसके लिए जितना प्रेम होगा, उतना उसका दिया हुआ तुम्हें उपलब्ध हो पाएगा। और तुम्हें वो दे रहा है, उसके बाद भी तुम उसे धिक्कारो! तो जो मिल रहा है वो भी… हाथ धो बैठोगे उससे।
प्र३: प्रणाम आचार्य जी, अभी ये जो आपने बताया, इस चीज़ को लेकर के, बहुत सारे लोग इसका ग़लत प्रयोग करते हैं, इस तरीक़े से कि हमें बाक़ी चीज़ों से मतलब नहीं। जैसे कि दुनिया की समस्याओं से हमें मतलब नहीं, हम अपने में मस्त हैं या ज्ञान हो गया तो हमें क्या मतलब, हम तो बस अपना मस्त हैं। तो उनको कैसे इसका जवाब दिया जाए?
आचार्य: बोध के साथ करुणा आती-ही-आती है। अगर बोध के साथ करुणा नहीं आ रही है, तो बोध भी नहीं आया है। कोई अपने में मस्त हो ही नहीं सकता। अभी क्या समझाया था कि दुख पर विजय कैसे पायी जाती है? दुख पर विजय अपने दुख को जीतकर नहीं पायी जाती, दूसरे दुखियों की सहायता करके पायी जाती है।
तो जो कह रहा है कि मैंने अपने दुख को जीत लिया है और मुझे दूसरों की सहायता नहीं करनी, वो पहली बात दुखी है और दूसरी बात भ्रमित है। क्योंकि अपने दुख को तो उसने जीता है नहीं, तो माने दुखी है, और भ्रमित इसलिए है कि वो जानता ही नहीं कि दुख जीता कैसे जाता है। जो अपने दुख से लड़ेगा, वो हारेगा; तो हारेगा। जीतेगा तो भी हारेगा। क्योंकि अपने दुख से लड़ रहा है न! और अपनापन ही तो दुख है।
जो ऐसे लोग मिलें, जो कहें कि हमें तो बस अपने से मतलब है, दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं, ये दुखी भी हैं और भ्रमित भी हैं। इन्हें कोई मौज नहीं है।
प्र: जैसे बहुत सारे युवा हैं, वो मिलते हैं कई बार, तो किसी को भी लेकर जाते रहते हैं कीर्तन के लिए; और बोलते है, ‘मात्र यही करना है’, बाक़ी चीज़ों के लिए वो लोग मना करते है। बोलते हैं, ‘कृष्ण यहीं से मिलेंगे और यहीं से मोक्ष मिलेगा।’ इस प्रकार का बहुत सारे लोगों को बोलते हैं, लेकिन मुझे ये बात पचती नहीं है, जबसे आपको सुनना चालू किया है।
आचार्य: अर्जुन को तो कीर्तन नहीं करा रहे थे न कृष्ण! बस यही उत्तर है। कृष्ण को अगर यही समझाना होता कि बेटा! कीर्तन करने से मैं मिल जाऊॅंगा, तो अर्जुन को भी यही बोलते कि छोड़ गांडीव, उठा तू ढोल-मंजीरा, कीर्तन कर यहाँ पर। क्या पता शकुनि भी नाचने लगे आकर! पर ऐसा तो कृष्ण ने बोला नहीं कि कीर्तन करो; उन्होंने तो कहा, युद्ध करो।
तो कोई कुछ भी कह सकता है, आपको प्रयोजन होना चाहिए कि कृष्ण ने क्या कहा। मतलब तो कृष्ण से होना चाहिए न। बस!