
प्रश्नकर्ता: आपको तो ज़्यादा पता है, अभी कंडीशन क्या चल रही है। मेरे एक रिलेटिव हैं जो बिहार में अभी सरकारी स्कूल में शिक्षक बने हैं इंग्लिश के। हालाँकि वो भी इंग्लिश के शिक्षक बने, मेरे लिए ये हँसी की बात है। मेरे रिलेटिव हैं, मेरे भाई हैं। उन्होंने बताया कि क्लास में जब वो स्कूल गए, तो उनको एक दिन चौथी की गणित की शिक्षिका ने सवाल किया कि “सर, एक सवाल का जवाब दीजिएगा, 12 में मैं कितना गुणा करूँ कि 48 आए? मुझे नहीं आता है, सर।” ये हाल है।
अभी जब वो शिक्षक बने तो वो बता रहे हैं, तो उन्हें छठी, सातवीं और आठवीं के बच्चों को इंग्लिश पढ़ाना है, किसी को कुछ नहीं आता है। और ये हर साल स्कूल, छोटे लेवल से लेकर कॉलेज के लेवल तक जो हम ‘उत्पाद’ पैदा कर रहे हैं, यही आगे जाकर।
आचार्य प्रशांत: आपकी जो पहचान है, एक भारतीय के तौर पर, वो है ‘एक भावुक धार्मिक आदमी’ की। पूरी दुनिया में भारतीय माना जाता है, इमोशनल एंड रिलिज़ियस, नॉट रिलिज़ियस-डिवोटेड। और यही दुर्भाग्य हो गया इस देश का, क्योंकि भारत देश था बोध का, भावना का नहीं। भावना से हमें कोई बैर नहीं था, लेकिन भाव देह है। देह को चेतना का अनुगमन करना था, भावना को बोध के पीछे-पीछे चलना था। लेकिन भारत के साथ ये हो गया कि भारत देश ही भावना का बन गया, यहाँ सब भावुक हैं। किसी से कुछ बोलो तो बोलेगा, “सेंटिमेंट हैं भाई मेरे, आप किसी की फीलिंग्स नहीं हर्ट कर सकते।” भारत देश ही बन गया है।
संविधान में भी जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं उनमें सब में एक शर्त जोड़ दी गई है, कि आप जनता की भावनाएँ अगर आहत करोगे, तो आपको कोई राइट्स नहीं हैं, कोई अधिकार नहीं है। पब्लिक मॉरैलिटी, अब वो पब्लिक मॉरैलिटी क्या है, वो कोई तथ्यगत बात तो है नहीं, वो भी तो भाव की ही बात है कि लोग किस चीज़ को मॉरल मान रहे हैं या किस चीज़ को नहीं।
इसी तरह से लॉ ऐंड ऑर्डर, अब कोई अगर कह दे कि आपने फलानी बात बोली, तो इसकी वजह से लोग दंगा करेंगे क्योंकि उनकी भावनाएँ आहत हो रही हैं, तो आपको बोलने से रोका जा सकता है, क्योंकि भारत भावना का देश है।
यही हमारे साथ सबसे बड़ी गलत बात हुई, हम भावना का देश बन गए, और उसी भावना को फिर हमने धर्म भी बना लिया। और भावना से जो धर्म चलता है, वो फिर अंधभक्ति का धर्म होता है। ये भारत का दुर्भाग्य है।
तो अब उसके चलते कुछ भी होगा। जो तुम कह रहे हो कि “12 चौक 48” नहीं पता, उसका कारण यही है। ज्ञान की तो कोई क़ीमत रही ही नहीं। धर्म माने भावना हो गया, धर्म माने अंधभक्ति हो गया।
कोई आपसे बोले कि कोई आदमी आपसे मिलने आ रहा है और वो धार्मिक है, तो तत्काल बताइए, आप क्या कल्पना करते हैं? कोई ज्ञानी आ रहा है? कोई आपसे कहे, कि “आपसे फलाना मिलने आ रहे हैं, ये आ रहे हैं दुबे जी और बहुत धार्मिक आदमी हैं” तो आप क्या सोचते हो? कोई विद्वान मिलने आ रहा है? तत्काल मन में क्या छवि आती है? एक भावुक-सा आदमी आएगा और कहेगा, “अरे…” यही दुर्भाग्य हो गया भारत का, ज्ञान का कोई सम्मान नहीं। तो 12 × 4 = 48 भी नहीं पता। 2 × 2 = 4 भी नहीं पता। कुछ नहीं, ज्ञान माने कुछ नहीं, न विद्या, न अविद्या, न बाह्य ज्ञान, न आत्म-ज्ञान — ज्ञान तो कुछ है ही नहीं, जबकि धर्म का अर्थ ही ज्ञान होता है।
लेकिन हमने धार्मिक भी किन लोगों को बोल दिया जिन्हें ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं, बल्कि जो कई बार तो ज्ञान से नफ़रत करते हैं। उनके सामने बोलो बुद्धि तो कहेंगे, “छी-छी-छी! नास्तिक है।” बुद्धि की बात कर रहा है, नास्तिक है। ‘बुद्धि’ शब्द ही उनके लिए पाप है। अब अगर धर्म ऐसा बना लोगे कि बुद्धि माने पाप हो गया, तो फिर बुद्धिहीनता माने धार्मिकता हो गया। यही है। यही कारण है कि देश के जो सबसे धार्मिक क्षेत्र हैं, वो सबसे पिछड़े हुए क्षेत्र भी हैं।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो मैंने अभी बताया, ऐसा आज से नहीं, सालों से ऐसे उत्पाद पैदा होते आ रहे हैं। आप हैं अकेले जो ये काम कर रहे हैं और हम कोशिश कर रहे हैं इसमें सहयोग करने की, पर ये बात करने के लायक नहीं है। बस सुनने को तैयार नहीं है। किताब आप बोलो कि मैं आपको ऑडियोबुक देता हूँ या मैं पढ़कर सुनाता हूँ, या आप कुछ किताब गिफ्ट दो, तो वो वैसे की वैसी सालों तक पड़ी रहती हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो भाई, किसी की सहमति के बिना किसी को जगाया या बदला या उठाया नहीं जा सकता। और सब प्रकार के प्रयासों की सीमाएँ होती हैं। कुछ इस वजह से कि जो प्रयास कर रहा है वो भी मनुष्य है, उसकी भी ऊर्जा सीमित है और उसका भी समय सीमित है। और कुछ इस वजह से कि प्रयास अगर करना ही है तो उन पर करो न जो सुनने को तैयार हैं। कुछ तो ये कि किसी पर कोशिश कर रहे हो, कितनी कर लोगे? और दूसरा ये कि कोशिश अगर करनी भी है तो सुपात्र पर करो; जो जिज्ञासु हो, जो उत्सुक हो, थोड़ा से उनसे बात करो, तो लगा लो जान पूरी और उनको ही फैसला करने दो।
एक दिन ऐसा आएगा कि वे लात मार देंगे तुम्हें; बस फिर उस दिन तुम्हें अपराध-भाव भी नहीं बचेगा कि तुमने प्रयास करना छोड़ दिया। उस दिन फैसला उनकी ओर से हो गया न, लात उन्होंने मार दी है; और जब लात मार ही दी तो कहो, ठीक है, “वसुधैव कुटुम्बकम्” तुम नहीं तो कोई और सही, दीया है, दीए को तो अपना आलोक देना है। तुम्हें नहीं लेना तो किसी और का घर सही। हाँ, ये है कि भीतर एक टीस रह जाती है, कुछ कचोटता सा रहता है कि क्या पता थोड़ी और कोशिश कर लेते तो सामने वाला बच जाता। तो फैसला उनको ही करने दो।
इतनी कोशिश करो, इतनी कोशिश करो कि वे लात ही मार दे तुमको, वो पुलिस ही बुला दे, वो सर ही फोड़ दे तुम्हारा। उसके बाद बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा, एकदम लाल रंग में लिख दिया जाएगा कि अब इन लोगों पर और प्रयास नहीं हो सकता। और उसके बाद उड़ जाओ, छोड़ दो।
प्रश्नकर्ता: आपने बोला कि हम जब हैं ही नहीं, हम अपने आप को लुटा रहे हैं। वो किस हद तक लुटाना है? और सामने वाला अगर हर छोटी-छोटी चीज़ पर आक्रामक हो जाए और वो वायलेंट ही होने लगे, तो उस वक़्त करना क्या चाहिए? उनके ऊपर हमें हाथ उठाना चाहिए या फिर हमें ही मार खा के रह जाना चाहिए, या क्या करें?
आचार्य प्रशांत: अब यही प्रश्न तो मैं हर सत्र से पहले अपने आप से पूछता हूँ न। आज एक सज्जन आए कम्युनिटी पर, वो बोले, “महिलाओं को रात में आने से रोको नहीं, ये सैकड़ों महिलाएँ जो आएँ इनके रुकने का प्रबंध करो।” कहाँ, कैसे, किसके घर में भेजें? और भेज भी दें तो उनके घर वाले क्या करेंगे? कहेंगे, रात भर कहाँ? बोल रहे, “यातायात की व्यवस्था करो।” मैं ट्रांसपोर्ट कंपनी चलाता हूँ?
हर रोज़ मेरे सामने भी यक्ष-प्रश्न यही रहता है: अभी और प्रयास करना है या हो गया? “चल खुसरो घर आपने।” हो गया, बहुत हो गया। देखते हैं।