भोगते रहने से आदत बनती है और दमन से अंदर विष इकट्ठा होता है। ~ ओशो
आचार्य प्रशांत: ओशो का वक्तव्य भोगते रहने से आदत बनती है और दमन से अंदर विष इकट्ठा होता है। कमलेश को थोड़ी दुविधा उठी है। कह रहे हैं कि अचार्य जी, आज भर्तृहरी प्रवचन माला का तीसरा सत्र है। आधा सफ़र कर लिया है। ज़बरदस्त व्यक्तित्व थे, भर्तृहरी होगा तो पूरा होगा और जब त्यागा तो पूरा त्यागा।
श्रृंगारषट्कम पढ़ने से ईर्ष्या उठती है कि वाह! भर्तृहरी ने तो देखा है, अनुभव किया है स्त्री के सौन्दर्य को, उसके शरीर को हम तो बस सोच-सोच कर क्षीण हो रहे हैं। तो आचार्य जी, ओशो के वक्तव्य को अगर भर्तृहरी के जीवन के सामने रखें, तो बड़ा विरोधाभास सामने आता है। भर्तृहरी तो भोगते गये, वक्ष, जाँघें, होंठ, कोई उभार नहीं स्त्री शरीर का जिसका वर्णन नहीं करते हो, ज़रूर अव्वल दर्ज़े के भोगी रहे होंगें।
तो प्रश्न ये है कि भोगना होता क्या है? और क्या भोग-भोग कर वैराग्य पाया जा सकता है? अगर हाँ, तो क्या ओशो गलत हैं अगर नहीं, तो क्या भर्तृहरी गलत हैं?
तो दो-चार बातें हैं जो सामने आयी हैं, उन बातों में सामंजस्य नहीं बैठा कमलेश को, सीधा प्रश्न है क्या बातें सामने आयी हैं? तो ओशो कह रहे हैं कि भोग तो गड़बड़ है ही क्योंकि भोगोगे तो आदत बनता जाएगा और दमन भी गड़बड़ है क्योंकि दमन भीतर ज़हर पैदा कर देता है, इकट्ठा कर देता है। फिर ये जीवन देखते हैं राजा भर्तृहरी का, तो उसमें दिखायी देता है कि खूब भोगा और फिर त्याग दिया। भर्तृहरी के जीवन से यही पता चलता है कि ऊँचे-से-ऊँचे भोग में भी ये दम नहीं है कि वो जागृति को रोक सके।
जिसकी तुम सिर्फ़ कल्पना कर सकते हो, वो सब उन्हें उपलब्ध था। जो कुछ तुम अपने लिए चाहते हो उससे वो गुज़रे वो उनका अनुभव था। जिसकी तुम लालसा रख सकते हो उसको उन्होंने सक्रिय तौर पर भोगा और उसके बाद भी ठूँठ-के-ठूँठ रह गये, ये है भर्तृहरी के जीवन से सीख।
तुम कहते हो कि चार बूँद मिल जाएँ तो तर जाओगे। अपनी प्रेमिकाओं को या अपने प्रेमियों को जब तुम कविताएँ लिखते हो, तो कुछ इसी तरह की तो लिखते हो। तेरे लबों से दो बूँदें मिल जातीं, वगैरह-वगैरह। तुम दो बूँद में अघा जाते हो। तुम्हें लगता इतना ही बहुत होगा और भर्तृहरी को दो महासागर उपलब्ध थे। दो महासागर में भी पेट नहीं भरा, तुम्हारा दो बूँद में कैसे भर जाएगा?
अब ओशो का कथन प्रासंगिक हो जाता है। ओशो ने कहा है, ‘भोग आदत बन जाती है।‘ तुम पहले प्रेयसी से माँगते हो दो बूँद, फिर कहते हो चार बूँद, अब वो देने लग गयी है न, तो माँग बढ़ेगी, फिर कहते हो, ‘सौ बूँद’, अब वो भी बेचारी फँस गयी है। फिर कहते हो, ‘अब कटोरा भर लें, फिर कहते हो, ‘बाल्टी भर’, फिर बड़ा हान्डा सामने रख देते हो, कहते हो, ‘बैठ जा भर इसको मैं भोगूँगा’ और ऐसे-ऐसे करके माँग बढ़ती जाती है। हाँ, तुम इतने सामर्थ्यशाली और इतने सौभाग्यशाली नहीं हो कि तुम्हारी प्रेयसियाँ तुम्हारी माँग पूरी करती जाएँगी, तो तुम्हारे जीवन में एक मुकाम आता है जब तुम्हें लात पड़ जाती है।
जब तुम माँगते हो ज़्यादा और वो कहती है, ‘भग यहाँ से’, सामर्थ्य नहीं है तुम्हारी, तुम राजा नहीं हो। भर्तृहरी राजा थे तो वो माँगते गये उन्हें मिलता गया। अनंत माँगा उन्होंने उन्हें अनंत मिला। माँगते तुम भी अनंत हो तुम्हें मिलता नहीं, उन्होंने माँगा उन्हें मिला। इतना मिलने के बाद भी ठन-ठन गोपाल! ये सीख है।
इस उम्मीद में मत जिये जाना है कि और पाओगे तो तर जाओगे। कितना भी पा लोगे, निराशा, दुख, अवसाद, झटका उतना ही तगड़ा लगेगा जितना भर्तृहरी को लगा था। असल में तुम उन झटकों से थोड़े सुरक्षित भी इसीलिए हो क्योंकि तुम्हें बहुत ज्यादा मिला ही नहीं है। और मिला होता तो और तीव्र दुख होता। तुम्हें और तीव्र दुख पाना है क्या? तुम भर्तृहरी को हीरो मानते हो, नायक है, तुम्हारी दृष्टि में तुम कहते हो — देखो जैसा लिखा है कमलेश ने जब भोगा तो पूरा होगा और जब त्यागा तो पूरा त्यागा क्या आदर्श है स्टड है भाई।
यही उठता है न तुम्हारा, बड़े लोग हैं। जब पाने निकले तो दो जहान फ़तह कर लिए और जब छोड़ा तो सबकुछ लात मारकर छोड़ दिया। बिलकुल किसी फ़िल्मी हीरो जैसी बात लगती है। तुम्हें इसमें दुख नहीं दिखायी पड़ता, तुम्हें इसमें एक आदमी की आँखों से खून रिसता नहीं दिखायी देता। तुम्हें नहीं समझ में आता भर्तृहरी का जब दिल टूटा होगा, तो टुकड़े बिने में नहीं गये होंगे। चूर-चूर, कण-कण फैल गये होंगे, ऐसे टूटा होगा उनका ह्दय।
तुम उसी अग्नि परीक्षा से गुज़रना चाहते हो, तुम इतनी कड़ी सज़ा पाना चाहते हो। भर्तृहरी को ये सज़ा मिली भोग की, कि उनके हाथों से सब फिसल गया। ऐसा नहीं है कि जैसे उन्होंने लात मारकर छोड़ दिया है। ऐसा है कि जैसे किसी को इतनी ज़ोर का प्रहार हुआ हो अन्त:स्थल पर कि उसके होश उड़ गये हों और उसके हाथों से सब छूट गया हो। इसमें कोई होशियारी या बहादुरी या नायकत्व नहीं है इसमें बेबसी है, लाचारी है जो आदमी भोग को इतना समर्पित रहा हो, भोग को उसने स्वेच्छा से तो नहीं छोड़ा होगा। अस्तित्व से ऐसा घात पड़ा, ऐसी लात पड़ी, मर्मस्थल पर ऐसा प्रहार हुआ कि बेहोश हो गये और सब छूट गया और जब आँख खुलीं तो अपनेआप को जंगल में पाया।
ये उन्होंने करा नहीं है ये उनके साथ हुआ है जीवन ने धोबी पाट दिया है, नियति ने चारों खाने चित्त किया है, तुम ये अपने साथ होना चाहते हो, करवाना चाहते हो, तुम पागल हो!
फिर ओशो के कथन का जो उत्तरार्ध है कि दमन से अंदर विष इकट्ठा होता है, तो भर्तृहरी के जीवन से दमन की शिक्षा थोड़ी मिलती है। दमन का तो अर्थ होता है, तात्कालिक रूप से किसी विचार को ऊर्जा न देना, दरकिनार कर देना। कि जैसे कोई मेहमान घर आया हो, उसको आप कह दो कि भाई उस कौने में बैठ जाओ। उसको निकाल नहीं दिया है, मेहमान है। कुछ बात मर्यादा की है, और कुछ बात विवशता की उसको हम निकाल नहीं सकते हैं तो उसको बस आपने इतना कह दिया है कि भाई ज़रा कोने में बैठ जाओ ये दमन है।
भर्तृहरी के जीवन को देखकर के कोई दमन की शिक्षा थोड़े ही मिलती है कि वासना का दमन कर दो, इससे तो ये पता चलता है कि जब ऐसा मेहमान घर में आये तो तुम घर छोड़कर भाग जाओ। उसको नहीं निकाल सकते तो खुद भाग जाओ और यही बात सही है, मज़ाक से आगे की है। वो दिमाग में आये तो तुम दिमाग छोड़ दो। तुम उसके पास जाकर बैठ जाओ जो दिमाग से ज़रा आगे का है। तुम कहो कि दिमाग में तो अभी सब लुच्चे घुस गये हैं। घर में आग लगी हो, तो तुम घर में रहोगे क्या? तुम तो शीतल पनाह ले लोगे न, घर में सब चोर-मवाली घुस आये तो भी घर में रहोगे क्या या ये कहोगे कि मेरा घर है तुम कहोगे, ‘मैं चला भाई, तुम ही रह लो।‘
दमन करने को नहीं कहा जा रहा है वमन ही कर दो, छोड़ ही दो और दमन की ज़रूरत कब पड़ती है जब बेबसी बड़ी गहरी हो। यहाँ बात साफ़-साफ़ दिख रही है अभी भी क्या बेबसी है? सब तो खुलासा हो गया अभी भी क्या बेबसी है। बेबसी का अर्थ होता है वश नहीं है, शक्ति नहीं जगी है, देख तो ली शक्ति। इतनी बड़ी शक्ति होती है जागरण में कि एक राजा को हिमालय पहुँचा दे, जोगी बना दे, वो शक्ति तुम्हारे भीतर भी है। तुम हो कितने भी भोग में लिप्त, जागरण की ताकत भोग की ताकत से कहीं ज्यादा है।
श्रृंगार में और वैराग्य में जीता कौन? जीता तो वैराग्य ही न, इससे तुम्हें तुम्हारे भीतर की ताकत का पता चलना चाहिए। तुम्हारे भीतर भी दोनों है, श्रृंगार भी है, वैराग्य भी, जीतना वैराग को ही है। तुम क्यों श्रृंगार का पक्ष लिए जाते हो, हरन्तों के साथ खड़ा होकर तुम्हें क्या मिलेगा? तुम गलत पक्ष पर बाज़ी लगा रहे हो, तुम सट्टे पर पैसा खोओगे, तुम उसकी तरफ़ खड़े हो गये हो, जिसका हारना पक्का है। भर्तृहरी जैसे मामले में भी जब काम और भोग नहीं जीते, तो तुम्हारे मामले में क्या जीतेंगे?
कामदेव जितना प्रबन्ध, जितनी योजना कर सकते थे, उतनी उन्होंने की और फिर भी उन्होंने मुँह की खायी। जीता कौन? काम कि शिव, जब शिव को ही जीतना है, तो शिव के साथ हो लो न, ऐसी लड़ाई क्यों लड़ते हो जिसमें पिटाई पक्की है और बेगैरती की पिटाई। ये भी नहीं है कि तुम जाकर के साधु-संतों से जूता खा रहे हो, कि गुरु से पिट रहे हो। कभी किसी वेश्या से गाली खाओगे, कभी किसी दो कौड़ी के सौदागर से, कभी किसी अयोग्य ग्राहक से। ऐसे-ऐसों के तलवे चाटोगे जो किसी कीमत के नहीं, क्यों, अपनी दुर्गति कराना चाहते हो।
एक उम्मीद अगर तुम छोड़ दो तो जीवन सरल हो जाएगा। उम्मीद ये है तुम्हारी कि किसी तरह से तुम जैसे हो वैसे ही बने रहो और फिर भी तुम्हें उच्चतम की प्राप्ति हो जाए। शिव तुम्हें चाहिए, पर काम छोड़े बिना; शिव तुम्हें चाहिए पर शिव के सिंहासन पर तुमने काम को बैठा रखा है। ये उम्मीद छोड़ दो कि शिवत्व की प्राप्ति तुम्हें काम से हो सकती है सब अपनेआप ठीक हो जाएगा। जब काम आये और दस्तक दे तो उससे पूछो, ‘तू क्या देगा मुझे ज़रा आर-पार की बात करो न बैठ यहाँ पर मेज़ है, तू सामने बैठ, तू क्या देगा मुझे।‘ और जो कुछ वो देगा उसका विवरण माँग लो, जैसे कि एक चतुर ग्राहक माँगता है। ऐसे ही थोड़ी कि कोई व्यापारी आया, उसने तुम्हें लुभाया और तुमने गाँठ ढ़ीली कर दी, इसमें कोई होशियारी है।
तुम पहले पूछो, ‘कि अपना माल दिखा और बता कि तेरे माल से मुझे क्या फ़ायदा है? विवरण दे।‘ एक-एक छोटी-से-छोटी बात बता। हाँ, फिर क्या होगा? हाँ, फिर क्या होगा? हाँ, फिर क्या होगा? हाँ, फिर क्या होगा? पल-पल का हाल बता, नमूना दिखा और जैसे-जैसे बात खुलती जाएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि तुम्हारी उम्मीद गलती जा रही है।
तुम्हें दिख जाएगा साफ़-साफ़ की जो तुम्हें देने आया है, उसमें झूठी उत्तेजना, मलिनता और दुर्गन्ध के अलावा कुछ नहीं है। काम का उन्माद ज़रा सी देर को होता है और उसके बाद क्या बचता है? कैसी हो जाती है मनोस्थिति? भागते हो पेशाब घर की ओर, किसी तरह सो जाना चाहते हो, उतरे हुए कपड़े भी पहनने में भी क्या झंझट होता है। वासना का क्षण बीत गया है। अब ये सब करो सफ़ाई, स्त्रियाँ नहाने को भागती हैं। ज़रा-सी देर का था वो सब और अब क्या कर रहे हो? अब सफ़ाई में लगे हुए हो। सास बहू के पीछे-पीछे भागेगी, ‘सुन तू सुबह नहा लिया कर, उसके बाद चौके में घुसाकर।‘ बहू कहती है, ‘क्यों पीछे पडी है कि सुबह नहा लिया कर।‘ क्योंकि सास सब जानती है कि रात में क्या उपद्रव कर रही है तू। तो वो कहती है, ‘तू पहले नहा, उसके बाद रसोई में घुस।‘
कई बार तो आइना दिखाना काफ़ी होता देख, तेरे मुँह पर अभी भी क्या लगा हुआ है। मुँह तो धो ले। काम के बाद ये सब बिखरा नज़र आता है। जैसे शराबियों की दावत के बाद शराब की टूटी हुई बोतलें, उल्टियाँ। देखा है? दुर्गन्ध, वमन, छितराया हुआ खाना, तो काम के बाद बिलकुल वही दृश्य होता है जो शराबियों की दावत के बाद होता है। बदबू उठ रही होती है न जिस कमरे में शराब की दावत हुई होती है और वहाँ का हाल बता देता है कि यहाँ शराबी थे। गद्दों पर सिलवटें होंगी, वही कामवासना के बाद होता है। चीज़ें, टूटी पड़ी होंगी वहीं कामवासना के बाद होता है। ज़्यादा चढ़ गयी होगी तो कपड़े भी फटेंगे और काम का उन्माद ज़्यादा हो तो वहाँ भी यही है। और ये कोई नयी बात नहीं है तुम इससे परिचित हो, तुम इससे सैकड़ों बार गुज़र चुके हो।
जब काम में प्रविष्ट होते हो तो उसके बाद का दृश्य भी याद कर लिया करो और तुम जानते हो वही दृश्य आएगा। अजीब दृश्य होते हैं, कच्छा नहीं मिल रहा और बत्ती बन्द है अब तुम खोज रहे हो, टटोल रहे हो और अंधेरे में और बेहोशी में तुमने उसकी कच्छी पहन ली।
कोई यहाँ ऐसा नहीं है जिसके साथ यदि ये नहीं तो इससे मिलती-जुलते दृश्य न घटे हों और कितना बड़ा झंझट होता है। रुमानियत गयी कामदेव और रति दोनों रवाना हो गये। अब ढुँढायी मची है और कच्छा नहीं मिल रहा और चादर गन्दी कर दी है। अब डर लग रहा है कि सुबह मोनू चादर न देख ले।
तो देवी जी, यदि ज़्यादा शालीन है तो रात में ही भगेंगी चादर को धोने, सुबह पप्पू-पिंकी दोनों पूछ रहे हैं, ‘ये क्या है पापा को नाक आयी थी।‘ यही सब तो हैं जैसे किसी नाटक में पर्दा गिर गया हो और उसके बाद देखो रंगमंच पर क्या बचता है तू-तू मै-मै फ़ालतू की।
श्रोतागण: बात शादी होने के बाद।
आचार्य प्रशांत: जैसे ब्याह का मौका हो रात भर की रंगीनियाँ और सुबह कभी जाकर देखो जहाँ ब्याह का मण्डप लगा है वहाँ पर क्या हालत होती है? कुत्ते घूम रहे होते हैं और झूठा तलाश रहे होते हैं और टेन्ट वाले शोर मचा रहे होते हैं, गाली-गलौच। रात की मादकता कहाँ गयी? कहाँ गयी रात की मादकता? ये चोट तुमने भी खायी है और सैकड़ों बार खायी है उसके बाद भी होश नहीं आता। और अगर तुम स्त्री हो तो गहरे-से-गहरा अपमान तुमने अनुभव किया है जब तुम्हारे शरीर को भोगने के बाद तुम्हारा साथी करवट बदलकर खर्राटे लेने लग जाता है क्योंकि उसे तो भोगना था, उसने भोग लिया अब उसे नींद भोगनी है, नींद भोगेगा अब हो गया काम। अब वो करवट बदलेगा और सो जाएगा।
तुम्हें बलत्कृत नहीं अनुभव होता? तुम्हें दिखता नहीं है कि अभी-अभी जो हुआ है, उसे रेप कहते है? वो सो गया और थोड़ी देर पहले वो कैसी गुलाबों सी बातें करता था, वो सो गया। वीर्य का स्खलन हुआ नहीं कि वो सो गया और इस अपमान से तुम हर वीर्यपात के साथ गुज़री हो लेकिन तुम्हारी कामुकता अभी भी नहीं जाती। वीर्यपात के बाद बचती है रुमानियत, बचता है गुलाबी रंग?
वही देह जिस पर लोटे जाते थे, काटे जाते थे, निचोड़े, नोचे-खसोटे, चूसे जाते थे अब तिस्कृत हो जाती है। छोड़ देते, काम निकल गया थोड़ी देर में वासना फिर जगेगी तब हो सकता है उसे सोते से उठा दो, झंझोड़ो कि उठ री मैं फिर आ गया दुहने के लिए।
इस नर्क से सैकड़ों बार गुज़रे हो, अभी और गुज़रना है? ये सब बताकर के तुमसे ये नहीं मैं कह रहा कि मैथुन के कृत्य में कोई पाप है, मैं बस तुम्हें ये बता रहा हूँ कि जिन उम्मीदों के साथ तुम मैथुन में उतरते हो, वो उम्मीदें कभी नहीं पूरी होंगी। सम्भोग से तुम परम आनन्द की तलाश करते हो तुम्हारी उम्मीद बार-बार टूटी है; पर टूटकर भी बची हुई है।
परमात्मा किसी के शरीर में या किसी के जननांगों में थोड़ी छिपा हुआ है कि तुम बार-बार चोट करोगे तो वो उपलब्ध हो जाएगा। जैसे कोई मन्दिर में घंटा बजाये और सोचे कि अब मूर्ति जग उठेगी। घंटा बजाने से तो फिर भी हो सकता है कि पाषाण में प्राण आ जाएँ पर किसी के जननांगों पर चोट करने से परमात्मा थोड़े सजीव खड़ा हो जाएगा तुम्हारे सामने। सोच तुम यही रहे हो कि परम सुख मिल जाएगा, मिलता वो है नहीं और तुम कसरत किये जा रहे हो।