अब हरि करे फिकर हमारी

Acharya Prashant

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अब हरि करे फिकर हमारी

आचार्य प्रशांत: कहानी है। भक्त के प्रण की चिंता भगवान को होती है। अर्जुन ने प्रण किया कि यदि जयद्रथ को नहीं मारता तो आत्मदाह कर लूँगा। ये प्रण करते वक़्त वो पूछने नहीं गया था कृष्ण से। उसने उठा लिया, लेकिन अब उसने कसम उठा ही ली है तो उसको पूरा करने का आयोजन कृष्ण कर रहे हैं। थोड़ी हैरानी की बात है, कृष्ण ने स्वयं तो व्रत उठाया नहीं और अर्जुन ने भी ये कसम खाते वक़्त कृष्ण की ना सहमति ली ना अनुमति ली; तो कृष्ण को क्या पड़ी है?

वो क्यों अर्जुन की मदद कर रहे हैं, एक ऐसे वचन को निभाने में जिसके लिए जाने में, प्रत्यक्षतः उनकी कोई भूमिका थी नहीं?

समझेंगे!

भक्त को भगवान की अनुमति लेनी नहीं पड़ती। अनुमति तो आपको किसी की तब लेनी पड़ती है जब आप में और उसमें भेद की कोई संभावना हो। जब ऐसा हो कि आपकी कोई व्यक्तिगत सत्ता बची रह गई हो जिसके बहक जाने का डर हो, तो आप जाओगे अपने से किसी बड़े की अनुमति लेने।

जब आप और आपका भगवान बिलकुल एक सीध में आ गए हों, एक तारतम्य बैठ गया हो, एक एकत्व आ गया हो, तब कहाँ बची कोई संभावना कि आप भगवान के विरुद्ध या भगवान से विलग होकर कुछ करें। तब तो आप जो भी कर रहे हो, वास्तव में आपके माध्यम से भगवान ही कर रहा है।

इसीलिए कबीर फिर कहते हैं कि – "सुमिरन मेरा हरि करें मैं पाऊँ विश्राम।"

हरि का स्मरण करने की ज़रूरत तो तब तक पड़ती है न जब तक हरि कहीं बाहर, कहीं दूर खड़े हों। जब आपके भीतर ही बैठ गए हरि, आप बचे ही नहीं, हरि-हरि ही हो गए, तो कौन किसका स्मरण करेगा? कर्ता ही अब हरि हो गए, तो स्मरण भी यदि करना है तो किसको करना पड़ेगा? अपना कर्तृत्व तो आपने छोड़ दिया, अब आप कुछ कर सकते नहीं, क्योंकि अब आप बचे नहीं। बागडोर किसके हाथ में है? हरि के हाथ में। तो अब यदि स्मरण भी करना है तो करे कौन? हरि को ही करना पड़ेगा।

अर्जुन ऐसा ही है। तो अर्जुन यदि प्रण उठा रहा है, तो वास्तव में प्रण उठाया किसने है? कृष्ण ने। कृष्ण का प्रण है, तो पूरा भी कौन करेगा? कृष्ण ही करेंगे। अब ये मौज होती है भक्त को, कि जैसे कोई बच्चा हो बाप के साथ और बाज़ार घूमने निकले। बच्चे की अपनी कोई आमदनी नहीं, बच्चे की अपनी कोई सामर्थ्य नहीं, बच्चे ने आजतक एक पैसा कमाया नहीं। बच्चे को तो बस मिठाई की दुकान की ओर उँगली उठा कर कहना है – 'जे’। और आगे का काम बाप को करना है।

बच्चे को क्या कहना है? 'जे, वो पिली वाली मिठाई’। अब बच्चे ने कोई अनुमति तो ली नहीं पिता की। पूछा भी नहीं, उसने कहा 'जे’, और अब पिता करे प्रबंध कि कैसे वहाँ तक जाना है, कैसे भुगतान करना है, कैसे बंधवाना है, और फिर कैसे बच्चे तक लेकर आना है।

तो वैसे ही अर्जुन ने कहा – 'जे’। अब करें कृष्ण प्रबंध कि अब इसको, जयद्रथ को मरवाना कैसे है, क्योंकि अर्जुन के माध्यम से कृष्ण ही तो बोल रहे हैं। अर्जुन बच्चा है, उसने अपनेआप पिता को सौंप रखा है। अपनेआप को सौंप देने का ये बड़ा लाभ है—तुम्हें कुछ करना नहीं, तुम्हें अब बस फ़रमाइश करनी है।

तुम्हारी फ़रमाइश तुम्हारी है ही नहीं, तो तुम्हें वो भी नहीं करनी।

समझ रहे हो?

अपनेआप को सौंप दो और फिर निर्द्वंद्व होकर के जो करना है करो। इच्छा करनी है तो इच्छा भी करो, तुम्हारी इच्छा की पूर्ति वही कर देगा जिसने तुम्हें इच्छा दी है। और ऐसी इच्छा अब तुम्हारे मन में आएगी ही नहीं जो पूरी होने योग्य नहीं है। ऐसी इच्छा अब तुम्हारे मन में आएगी ही नहीं जो पूरी होने योग्य नहीं है, क्योंकि अब तुम्हारा मन किसका है? 'उसका' है; तो उसमें इच्छाएँ ही वही उठेंगी जो सुपात्र हैं, जिनको पूरा होना चाहिए।

तुम्हारी इच्छा अब उसकी इच्छा है; उसकी इच्छा है तो ख़ुद पूरी करेगा न। अब करो खुलकर इच्छा। तुम ऐसा कुछ माँगोगे ही नहीं जो तुम्हें नहीं माँगना चाहिए। तुम सब वही-वही माँगोगे जो तुम्हें माँगना ही चाहिए। और ये कैसे पता? क्योंकि तुमने सबसे पहले उसको माँगा जो तुम्हें माँगना चाहिए। बड़ा इम्तिहान तुम उत्तीर्ण कर आए हो। सबसे पहले तुमने किसको माँग लिया है? कृष्ण को माँग लिया है। जब सबसे बड़ा इम्तिहान तुम लाँघ आए तो छोटे-मोटे इम्तिहान तो उत्तीर्ण कर ही जाओगे।

जब पहले सही माँगा तो अब ग़लत कैसे माँगोगे? सबसे पहले उसको माँग लो जिसको माँगना सही है; उसके बाद जितना छोटा-मोटा माँगते रहोगे वो सब मिलेगा। इसी बात को पुराने लोग और कथाएँ ऐसे कह गए हैं कि तेरी मुराद पूरी होगी बच्चा, तेरी मुराद ज़रूर पूरी होगी बच्चा, लेकिन सिर्फ़ तब जब तेरी मुराद तेरी मुराद हो ही न। जब तेरी मुराद उसकी मुराद है, तब मुराद ज़रूर पूरी होगी।

पूर्ण की इच्छा करो, इच्छा पूर्ण हो जाएगी; अन्यथा इच्छा तो अपूर्ण ही रहती है। इच्छाएँ किसी की आज तक पूरी नहीं हुईं।

बस पूर्ण की इच्छा करो तो इच्छा पूर्ण हो जाएगी, फिर समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाएँगी। और अपूर्ण की इच्छा करो तो इच्छा को अपूर्ण ही रह जाना है। बड़ा माँगोगे तो बड़े-से-बड़ा मिलेगा; छोटा माँगोगे तो छोटे-से-छोटा भी नहीं मिलेगा।

क्या चाहिए? अब बड़ा माँगो , फैमिली डोसा, अगले दंगल में काम आएगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि भगवान तक वापस लौटने के दो मार्ग हैं: या तो उनसे विरोध करके जल्दी जाओ, या भक्ति करके दूर घूम-घूमकर उन तक पहुँचो। ये बात मुझे समझ नहीं आई।

आचार्य प्रशांत: सत्य का कभी विरोध नहीं करते। हम बड़ी तिरछी चाल चलते हैं। हम झूठ को सत्य का नाम दे देते हैं और कहते हैं कि हम सत्य के समर्थन में हैं। समझिएगा बात को। हम ये नहीं कहते हैं कि हम सत्य के विरोध में हैं, हम क्या कहते हैं? कि हम हैं तो। हम कभी ये नहीं कहते कि हम सत्य के विरोध में हैं। हम क्या करते हैं? हमें जब सत्य के विरोध में होना होता है तो हम झूठ को सत्य का नाम दे देते हैं, और कहते हैं कि हम तो सत्य का समर्थन ही करते हैं।

पर हम वास्तव में समर्थन किसका कर रहे हैं? हमने झूठ को सत्य का नाम दे रखा है और हम झूठ का समर्थन कर रहे हैं। तो कहा जाता है न 'सत्यमेव जयते' – जीतता हमेशा सत्य है, ये बात हमें पता है कि सत्य ही जीतेगा। तो हम सत्य से सीधे पंगे कभी नहीं लेते। हम क्या करते हैं? हमें पता है कि उधर जीत है, और उधर सत्य ही जा सकता है, सत्यमेव जयते, सत्य ही, तो उधर जा सकता है सिर्फ़ सत्य ही।

अंदर-ही-अंदर हमें सत्य से चिढ़ है। ये भी जानते हैं कि जीतेगा सत्य ही और हमें जिताना है झूठ को, तो हम क्या करते हैं? हम झूठ को बुलाते हैं, उसको सत्य का नाम देते हैं और कहते हैं ‘जा उधर’।

हममें इतनी भी आबरू नहीं होती, इतनी भी ग़ैरत नहीं होती कि हम जिसके ख़िलाफ़ खड़े हैं, हम खुल के उससे कह सकें कि हम तेरे ख़िलाफ़ खड़े हैं।

सत्य के ख़िलाफ़ तो सारा संसार खड़ा है, लेकिन इतनी हमारी हिम्मत नहीं पड़ती कि हम खुल के कह दें कि हम सत्य के ख़िलाफ़ हैं। तो हम क्या कहते हैं सारे-के-सारे? जय भगवान जी की! और दिल-ही-दिल में हम सारे-के-सारे हैं भगवान जी के ख़िलाफ़ ही।

आपने जो कहानी सुनाई, उसमें भगवान दो शापित जीवों से कह रहे हैं कि अगर तुम्हें शाप से जल्दी मुक्त होना है तो मेरा विरोध करना। और मुक्त होने का दूसरा रास्ता है कि मेरी भक्ति करना और भक्ति करोगे तो समय लगेगा।

दुनिया में सबसे मुश्किल काम है सत्य का खुला विरोध करना, और दुनिया में सबसे प्रचलित काम है सत्य का विरोध करना। दुनिया में सबसे प्रचलित काम क्या है? सत्य का विरोध। और सबसे विरल काम क्या है, अप्रचलित काम क्या है? सत्य का खुला विरोध, क्योंकि सत्य का खुला विरोध बड़ी विसंगति है; सत्य का खुला विरोध बड़ा पागलपन है, बड़ा दुस्साहस है। सत्य का खुला विरोध ही अगर आप कर दें तो आपको दिख जाएगा कि आप कितने मूर्ख हैं।

सत्य के विरोधी तो आप हैं ही, लेकिन बात को छुपाए रहते हैं। विरोध को समर्थन का नाम दिए रहते हैं। आप खुलकर कह ही दीजिए कि आप सत्य के विरोध में हैं, आप खुलकर के अपनी असलियत ज़ाहिर कर दीजिए, आप बचेंगे नहीं, तत्काल भस्म हो जाएँगे। आपके भीतर जो कटुता बैठी हुई है, जो ज़हर बैठा हुआ है, उसको सामने ला ही दीजिए; वो साफ़ हो जाएगा, आप स्वच्छ हो जाएँगे।

हम उसे बाहर आने नहीं देते। हम अभिनय करते रहते हैं, हम स्वांग करते हैं। क्या? कि हम तो सत्य के भक्त हैं, सत्य के समर्थन में हैं, सत्य के अनुयायी हैं।

उसकी जगह स्वीकारो तो कि मेरी हक़ीक़त ये है, मेरे जीवन का तथ्य ये है कि मुझे सत्य से डर लगता है। मेरा बस चले तो सत्य में आग लगा दूँ। मैं तो अपनी क्षुद्रताओं पर, अपनी झूठों पर, अपनी अहंता पर जीना चाहता हूँ। सत्य से कोई लेना-देना नहीं मेरा। ये बात हम कभी खुलेआम स्वीकार नहीं करेंगे।

आप कर लीजिए खुलेआम स्वीकार; आपके स्वीकार में इतनी विसंगति होगी, ऐसी विकृति होगी, ऐसी ऊर्जा होगी कि आपने जो स्वीकार किया है वही भस्म हो जाएगा। उसको बचाए रखने का एक ही उपाय होता है, क्या? उसको स्वीकार कभी किया न जाए।

तो बड़ा गहरा मनोवैज्ञानिक तथ्य है। जो आपने अभी कथा सुनाई उससे उजागर हो रहा है – तुम अपनी गंदगी को, अपने वीभत्स और कुत्सित चेहरे को बेनक़ाब कर दो। अपनी पोल खोल दो। ये हँसता हुआ नक़ाब हटाओ अपने चेहरे से, अपने असली रंग दिखाओ। तुम्हारे चेहरे पर जो घृणा है, तुम्हारी आँखों में जो अंगारे हैं, ज़रा उनको ज़ाहिर होने दो। वही तुम्हारा उपचार बनेगा, उसी से तुम्हारा समाधान होगा, क्योंकि बात खुल जाएगी। जो खुल गया सो तर गया।

प्र२: एक तो इसी सत्य का अनुयायी विभीषण था, अर्जुन भी थे, पर अर्जुन तो ऐसे करते थे कि अठारह अध्याय सत्य पर गए।

आचार्य प्रशांत: कहाँ थे?

प्र२: किन्तु सत्य तो थे न, सुरक्षा कर रहे थे न हमेशा।

आचार्य प्रशांत: ये सब विसंगतियाँ हैं। समझिएगा बात को, अर्जुन से बड़ा धुर विरोधी कोई हो सकता है? जो बात आँखों के इशारे से समझ लेनी चाहिए थी, जो बात मौन से समझ लेनी चाहिए थी, वो उन्हें अठारह अध्याय में भी नहीं समझ में आई। अर्जुन से ज़्यादा हठी कोई हो सकता है? मुझे तो शक है कि अर्जुन ने सिर्फ़ ऊब करके लड़ाई करना शुरू कर दिया।

प्र२: ओशो का वक्तव्य है, वो कहते हैं कि उन्हें कृष्ण से इस बात का बड़ा रोष है कि अर्जुन को अपना रूप क्यों दिखाया, वृहद रूप। ये तो वही बात हो गई कि गुरु जो है वो शिष्य को...

आचार्य प्रशांत: परीक्षा में नक़ल करा रहा है? हाँ, वैसी ही बात है, पसंदीदा जो है उसको नक़ल करा के पूरे नंबर दिए जा रहे हैं।

प्र२: वही परीक्षा भी दे रहे हैं कि देखो मैं हूँ।

आचार्य प्रशांत: परचा आउट कर दिया।

प्र२: हो जाता है कभी-कभी। परीक्षा में पूछते रहते हैं, पूछते रहते हैं। कल मेरे साथ हुआ था, एग्जाम हुआ था, इंविजिलेशन (अन्वीक्षण) में गई थी। सौ तरीक़े से सवाल पूछते हैं, एक बार के लिए तरस आ गया कि ‘बेटा, कर ले’।

आचार्य प्रशांत: ऐसा ही होता है। आख़िर में परमात्मा को एक ही बात कहनी पड़ती है – अब जैसे भी हैं, अपने ही तो हैं।

प्र२: चरण पखार के पीते हैं।

आचार्य प्रशांत: अपनी मर्ज़ी से तो हुए नहीं हैं कुछ। जैसे भी हैं, होता तो सब कुछ मेरी ही मर्ज़ी से है। तो अगर ये बेवकूफ़ हैं, तो भी बात तो मेरे ही मत्थे है। जिन ने उलझाई, अब वही सुलझाए। और किसको दोष दे परमात्मा कि तुमने उलझाई ? उसके अलावा कोई है नहीं। अद्वैत की ये बड़ी विभीषिका है, आप किसी और को दोष नहीं दे सकते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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