प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन को बेहतर बनाने का, बन्धनों से मुक्त होने का संकल्प हम कई बार लेते हैं, लेकिन असफल होते हैं, हार मिलती है। हमारे संकल्प में कमी कहाँ रह जाती है?
आचार्य प्रशांत: कमी संकल्प में नहीं है, कमी धैर्य और प्रेम में है। तुमसे किसने कह दिया कि संकल्प एक बार में ही या पाँच बार में ही या पाँच-सौ बार में ही फलीभूत हो जाएगा? अपनी भलाई के प्रति प्रेम चाहिए न, उससे फिर बहुत धैर्य आ जाता है। तुम कहते हो, ‘ये काम तो करना ही है, एक बार में नहीं होगा तो एक हज़ार बार में होगा, लगे रहना है। विकल्प है ही नहीं!’ ये चीज़ ऐसी है जिसमें कोई दूसरा रास्ता है नहीं न; कि है?
ख़ुद को कभी तुम शारीरिक रूप से भी मरने के लिए तो नहीं छोड़ देते न, कुछ-न-कुछ कोशिश करते रहते हो। कोई और कोशिश भी न कर रहे हो तो कम-से-कम साँस तो लेते ही रहते हो। भले ही पता हो कि बहुत बीमार हो, कह दिया हो चिकित्सकों ने कि एक महीने में मर जाओगे, पर फिर भी एक महीने तक तो तुम साँस लेते रहते हो, या नहीं लेते? ये तो नहीं कहते कि अब एक महीना ही तो बचा है, तो साँस लेना छोड़ते हैं, चलो ख़त्म!
समझ रहे हो?
हम जितना प्रेम अपनी शारीरिक भलाई के लिए दिखाते हैं, अगर उसके चौथाई प्रेम से भी अपनी आन्तरिक भलाई की प्रक्रिया की शुरुआत कर दें तो बहुत दूर तक जाएँगे। मैं आपको बिलकुल भी ऐसी कोई सान्त्वना नहीं दे रहा हूँ कि आप अपना संकल्प और बढ़ायें, और एक दिन निश्चित सफलता मिलेगी इत्यादि-इत्यादि। मैं तो कुछ और कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि आपको सौ बार अभी चोट मिलने वाली है, पाँच-सौ बार हार मिलने वाली है, और फिर मैं आपसे पूछ रहा हूँ, ‘प्यार नहीं है क्या?’
सामान्य दैहिक, लौकिक, सांसारिक, शारीरिक प्रेम में भी आदमी में बहुत धैर्य आ जाता है। आ जाता है कि नहीं आ जाता है? आ जाता है कि नहीं, साधारण जो लौकिक प्रेम होता है उसमें भी? बच्चे को कुछ हो जाता है, माँ उसे लेकर पचास अस्पतालों में घूमती है, इतना धैर्य है। उसे मरने के लिए तो नहीं छोड़ देती, या छोड़ देती है?
और माँ की ममता तो फिर भी एक उच्च स्तर की होती है। एकदम और निम्न स्तर का जो प्रेम होता है, उसमें भी धैर्य आ जाता है। आशिक़ लोग महबूबा की गलियों के चक्कर काटते रहते हैं महीनों तक, कि उसका बस खिड़की से, दरवाज़े से, कहीं से दर्शन हो जाए। अब नहीं होता, पहले होता था। जो भी है, पर उदाहरण आज भी प्रासंगिक है। धैर्य आ जाता है कि चीज़ ज़रा बढ़िया है, क़ीमती है, इतनी आसानी से छोड़ कैसे दें, चक्कर लगाएँगे, डटे रहेंगे।
तो मुझे ये पता ही नहीं कि हार कितनी बार होगी, क्योंकि हारूँ या जीतूँ, ये मामला प्यार का है, हट तो नहीं सकते। कोई बोले पाँच-सौ बार हारोगे, कोई बोले अन्त तक भी हारते रहोगे। तो करें क्या, अन्त तक हारते रहेंगे तो? वैसे तो देखो तो अन्त में सबके मौत है, तो क्या जियें नहीं? मुझे अन्त तक हार है तो क्या मैदान छोड़ दूँ? वो निर्विकल्पता चाहिए जहाँ तुमने अपने विकल्प, सब दरवाज़े बन्द कर दिये हों। कहो कि चीज़ तो यही है, अच्छी चले कि बुरी चले, इसमें मैं कभी कह नहीं सकता कि आइ एम क्विटिंग , मैं छोड़ रहा हूँ।
जब तक तुमने अपने लिए वो राह खुली छोड़ी है न कि मैं तो हट सकता हूँ, तुम हट ही जाओगे। भले ही तुम अपनेआप को ये बोल दो कि मैंने बस एक विकल्प, एक ऑप्शन ही तो छोड़ा है, मैं उस विकल्प पर कभी चलने नहीं वाला, उस ऑप्शन को कभी एक्सरसाइज़ नहीं करने वाला। अपनेआप को हम यही बोलते हैं कि साहब, ये तो बस एक बैकअप ऑप्शन (अतिरिक्त विकल्प) है, हम इसको कभी इस्तेमाल तो करने नहीं वाले।
आप किसको धोखा दे रहे हैं? अगर आपने अपने लिए वैसा कोई विकल्प रखा है, तो आप उसका इस्तेमाल भी एक दिन निश्चित रूप से करेंगे। सिर्फ़ इसीलिए कर जाएँगे, क्योंकि आपने वो विकल्प बचाकर, सहेजकर रखा। अगर नहीं चाहते हो कि उस विकल्प का इस्तेमाल करो, तो उस विकल्प को आग लगा दो, वो विकल्प रखो ही मत।
मुझे नहीं मालूम कि मैं सफल हो पाया हूँ कि नहीं, जो मैं बात बोलने जा रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि यहाँ बात जीत की नहीं है, मैं कह रहा हूँ कि यहाँ अनन्त प्रयास करते रहना ही जीत है। अनन्त माने ये नहीं कि बहुत ज़्यादा, अनन्त माने बस ऐसा कि जिसका अन्त नहीं आएगा। मैं अगर ज़िन्दा हूँ तो कोशिश कर रहा हूँ, बस यही बात। यही जीत है।
ये खेल ऐसा है जिसमें ये नहीं देखा जाता कि किसने अंक ज़्यादा बनाये, इसमें ये देखा जाता है कि अन्त तक डटा कौन रहा, आख़िरी घड़ी तक खड़ा कौन रहा। इसमें बात ये नहीं है कि कौन कितना तेज़ दौड़ा, कहाँ तक पहुँच गया, इसमें बस बात ये है कि कौन मैदान छोड़कर भाग नहीं गया। जो मैदान छोड़कर नहीं भागा, वो जीत गया। ये नियम है इस खेल का। जो मैदान छोड़कर नहीं भागा, वो जीत गया। इसमें हार सिर्फ़ एक तरीक़े से होती है कि तुम मैदान छोड़ दो, नॉक आउट (पराजित) अपनेआप को घोषित कर दो कि भैया मेरा हो गया!
तुम मुक्के खाते रहो, और हर मुक्का खाने के बाद तुम दोबारा खड़े हो जाओ और बोल दो, ‘अभी तो नॉक आउट नहीं हुआ मेरा’, तो तुम जीत जाओगे। एक तरीक़े से बहुत आसान हो गया। तुम्हें कुछ नहीं करना है, बस टिके रहना है, बार-बार खड़े हो जाना है।
और माया के लिए बड़ा मुश्किल है, क्योंकि उसे तुम्हें इतना पीटना है, इतना पीटना है कि तुम मैदान छोड़कर भाग ही जाओ, तुम रिंग से बाहर कूद जाओ। माया के लिए बल्कि ज़्यादा मुश्किल है। तुम्हें तो हाथ-पाँव कुछ चलाना ही नहीं, तुम्हें मुक्का खाना है, नीचे गिरना है और खड़ा हो जाना है। तुम खड़े होते रहो बार-बार। एक बार तुम्हारा संकल्प टूटे, तुम दोबारा खड़ा करो। पिछली ग़लतियों से सबक लो, 'कहीं भूल हुई है, कहीं बेईमानी हुई है, कहीं त्रुटि थी, कहीं लालच था।' प्रयास में कमी नहीं होनी चाहिए। पूरा प्रयास ही अध्यात्म में जीत का नाम है।
इसीलिए बार-बार कहता हूँ कि कोई प्राप्ति नहीं हो जाएगी। अन्ततः तुम्हें कोई ब्रह्म या आत्मा या मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण नहीं मिल जाना है। यहाँ पर जीत इसमें नहीं है कि तुम्हें ख़ास प्राप्ति क्या हो गयी या ख़ास अनुभव क्या हो गये। यहाँ पर जीत बस इसमें है कि तुम अभी खड़े हुए हो या भग लिये, चम्पत राय हो गये, भगोड़े। चम्पत नहीं होना है। जो चम्पत नहीं हुआ, उसी को मुक्त बोल सकते हो।
मुक्ति या एनलाइटनमेंट कोई दिन, कोई घड़ी, कोई विशेष अवस्था नहीं है। तुम्हारे अनन्त प्रयासों को या अनन्त प्रेम को ही मुक्ति बोलते हैं।
तभी मुझे बहुत विचित्र लगता है जब लोग पूछते हैं कि आपका हुआ कि नहीं हुआ। अरे! ये होने वाली कोई बात ही नहीं है, ये तो खेल सतत है। जो अभी गिरा नहीं, वो जीता हुआ है। और अन्तिम जीत कोई होती नहीं, क्योंकि गिर तुम कभी भी सकते हो।
तो कोई बोले, ‘मेरा फ़लाने दिन हुआ था’, ये अजीब सी बात है कि फ़लाने दिन, फ़लानी जगह पर, फ़लाने खम्भे पर चढ़कर। कैसी बातें कर रहे हो!