बच्चों को ज़िंदगी में अच्छे से सेटल कैसे कराएँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

7 min
49 reads
बच्चों को ज़िंदगी में अच्छे से सेटल कैसे कराएँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: मेरे पास पूछने के लिए एक उचित प्रश्न नहीं है। मूल रूप से मुझे कुछ मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। इसके बारे में कि बच्चों के साथ कैसे व्यवहार करें, ताकि वे अच्छे नागरिक बनें, अच्छे इंसान बनें, अपने जीवन में स्थिरता ला पाएँ? बच्चों के समूचे विकास हेतु मैं आपसे मार्गदर्शन चाहता था। कृपया इस विषय पर प्रकाश डालिए।

आचार्य प्रशांत: आप तो मुझसे वही सब कुछ करने का तरीक़ा पूछ रहे हैं जो नहीं करना चाहिए। हिंदुस्तान के और दुनिया भर के भी, पर विशेषकर हिंदुस्तान के हर माँ-बाप की यही ख़्वाहिश रहती है कि घर में उनको ऐसी परवरिश दी जाएगी कि वो ठीक-ठाक बड़े हो जाएँ और फिर सेटल (बसना) हो जाएँ। आप जिनसे यह प्रश्न पूछ रहे हैं, वही आज तक सेटल नहीं हुए, वो कैसे बताएँ बच्चों को सेटल करने का तरीक़ा?

प्रश्न में अपने ऊपर बड़ा भरोसा है। ‘मैं तो ठीक हूँ, मैं बच्चों का क्या करूँ, यह बता दीजिए आचार्य जी, थोड़ी-सी गाइडेंस (सलाह) दे दीजिए — मैं तो ठीक ही हूँ।’ आप कह रहे हैं, ‘घर में क्या माहौल रखें कि बच्चों की बढ़िया परवरिश हो?' घर का माहौल कौन रखेगा? आप रखेंगे। घर का माहौल वैसा ही तो होगा जैसे आप हैं। तो जैसे आप हैं वैसे घर का माहौल हो जाएगा। जैसे घर का माहौल हो जाएगा वैसे बच्चे हो जाएँगे। तो बच्चों को ठीक रखना है तो फिर प्रश्न किसके बारे में होना चाहिए? अपने बारे में होना चाहिए। क्योंकि घर का माहौल तो आप ही निर्धारित करोगे। आप जैसे हो घर का माहौल ठीक वैसा रहेगा। उसकी आप चर्चा ही नहीं करना चाहते।

आपने अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ सेटल कर लिया है अगर वो आपको बढ़िया लगता हो तो अपने बच्चों को भी वैसे ही सेटल कर लीजिए, उसमें फिर आचार्य जी की राय की क्या ज़रूरत है। पूरी दुनिया की ओर देखिए सब सेटल्ड-ही-सेटल्ड लोग दिखाई दे रहे हैं। सबको सेटलमेंट का कई-कई दशकों का अनुभव है। जब आप इतना कुछ जानते ही हैं ज़िन्दगी के बारे में, तो फिर जैसे आप जिये हैं वैसे ही बच्चों को भी आप शिक्षा दे दें, उनको भी वैसा ही जीवन दें — मैं क्या बताऊँगा!

और अगर आप बच्चों को वही जीवन नहीं देना चाहते जो आपने जिया है, तो सबसे पहले आपका प्रश्न यह होना चाहिए कि आचार्य जी मैं जैसे जिया उसमें बताइए कहाँ क्या चूक रह गई? क्योंकि अगर मैंने अपनी चूक नहीं पकड़ी तो जो चूक मैंने करी मेरे बच्चे अभिशप्त हो जाएँगे वही चूक दोहराने के लिए। है कि नहीं?

अगर अभिभावकों को यह नहीं पता कि उन्होंने जीवन में क्या-क्या ग़लत करा है, तो उन्होंने जो कुछ करा है वही वो अपने बच्चों तक भी पहुँचा देंगे न। पहुँचा ही नहीं देंगे, उन्होंने जो कुछ करा है उसको वो सही भी ठहराएँगे, जायज़ भी कहेंगे और चाहेंगे कि उनके बच्चे भी उसी चक्र को दोहराएँ। यही होगा न? तो जो अभिभावक, जो माता-पिता बच्चों का भला चाहते हैं उन्हें सर्वप्रथम अपनी ज़िन्दगी की ओर देखना होगा न — हम कैसे जियें, हमने क्या करा?

एक बार आपको स्पष्ट हो जाए आप कैसे जिये, क्या उसमें सार्थक था, क्या उसमें व्यर्थ, निरर्थक था, तो फिर आप अपने बच्चों को भी कुछ संदेश दे पाएँगे, कुछ सीख दे पाएँगे। अभी तो हालत यह रहती है कि ले-देकर हर माँ-बाप का एक उद्देश्य रहता है — अपने बच्चे को लेकर इन्हें किसी तरह सेटल करा दो। शिक्षा उन्हें क्यों दिलायी जा रही है? ताकि वो सेटल हो जाएँ। कॉलेज (महाविद्यालय) क्यों जाना है? सेटल होने के लिए। खाना-पीना क्यों? सेटल होने के लिए। खेलना भी क्यों है, किसी स्पोर्ट (खेल) में क़ाबिलियत क्यों हासिल करनी है? उससे भी सेटल होने में मदद मिलती है।

यह तो बताइए, आपका सेटलमेंट कैसा चल रहा है? वैसा ही अगर बच्चों का हो गया तो फिर? और अगर आपका अच्छा ही चल रहा है — यही आपकी धारणा है — तो फिर ठीक वैसा ही कर दीजिए बच्चों का। पर दिल-ही-दिल में आप जानते हैं कि अच्छा तो चल नहीं रहा तभी आपने यह प्रश्न पूछा। दिल-ही-दिल में हर सेटल आदमी जानता है कि वो ग़लत जगह सेटल हो गया है। जहाँ रुकना नहीं चाहिए वहाँ रुक गया है। नदी की धार जिसको सागर तक पहुँचाना चाहिए था उसको रास्ते में ही कहीं सेटल करा दिया। चली थी धार हिमालय से और नियती उसकी यही थी कि वो रुके सिर्फ़ सागर की आगोश में, लेकिन उसको सेटल करा दिया किसी रेगिस्तान में या किसी दलदल में।

सब जानते हैं कि ऐसा ही हुआ है उनके साथ, क्योंकि जहाँ हमें रुकना चाहिए वहाँ हम पहुँचे कहाँ हैं। अभी तक सेटलमेंट का यही अर्थ होता है न — एक अंत, एक पड़ाव, कहीं रुक जाना, कहीं थम जाना; सेटल हो जाने से यही आशय होता है न आपका?

किस जगह रुका जा सकता है? सिर्फ़ उस जगह जहाँ मंज़िल हो, अगर उससे पहले ही कहीं रुक गए, तो ग़लती हो गई न। हममें से कोई भी जीवन की मंज़िल तक पहुँचा है क्या? जब नहीं पहुँचा है तो सेटल कैसे हो गया? हमें तो चलते रहना चाहिए जब तक मंज़िल न मिल जाए। पर हम मंज़िल को पाने से बहुत पहले ही सेटल हो जाते हैं। नदी कहाँ सेटल हो गई? रेगिस्तान में। दम घुट गया न नदी का।

बच्चे हमारे शब्दों से बहुत कम सीखेंगे, वो हमारे जीवन से सीख लेते हैं। आपका जीवन अगर आज़ादी भरा है, हिम्मत भरा है, बुलंद है, तो बच्चों को सीख मिल गई आपसे और बड़ी सुंदर सीख मिल गई। और अगर आपके जीवन में डर है, जल्दी से एक घोंसला बना लेने का और उसमें छुप जाने का, यही आपका सारा प्लान है, यही अरमान और यही योजना है, तो बच्चों को भी यही सीख मिलेगी कि जीवन का अर्थ होता है डर, जीवन का अर्थ होता है सुरक्षा पाने की कोशिश। जीवन का अर्थ होता है, जल्दी से घोंसला बनाओ और उसमें सुरक्षित होकर छुप जाओ।

यह सीख तो हम नहीं देना चाहते न बच्चों को या चाहते हैं? दुर्भाग्य की बात है कि अक्सर हम यही सीख देना चाहते हैं बच्चों को। कुछ प्रश्नों पर विचार करिएगा — अभी हमारे पास समय है शिविर में — जीवन क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है? हम जी क्यों रहे हैं? हम इतनी समस्याएँ क्यों झेल रहे हैं? क्या समस्या झेलने की ख़ातिर ही जी रहे हैं? क्या ऐसे ही चिंतित रहते हुए, व्यग्र रहते हुए, तनाव में रहते हुए जीवन बिता देना है?

एक डरा-डरा, कँपा-कँपा जीवन या जीवन का कोई आज़ाद, ऊँचा लक्ष्य है? अगर है तो फिर सेटलमेंट शब्द का अर्थ क्या हुआ?

थोड़ा इस पर विचार करिएगा। इसमें आगे बात करेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories