अमीर औलादों की महँगी गाड़ी, आम आदमी का सस्ता खून

Acharya Prashant

20 min
377 reads
अमीर औलादों की महँगी गाड़ी, आम आदमी का सस्ता खून

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम है सुष्मिता भट्टाचार्य और मैं जर्मनी के म्यूनिख शहर में रहती हूँ, और यहाँ पर में बच्चों के स्कूल में पढ़ाती हूँ। मेरा आज का सवाल जो है वो इस सत्र से रिलेटेड नहीं है।

मेरा आज का सवाल है हाल ही में पुणे में हुए एक एक्सीडेंट से, जिसमें कि एक अमीर बाप का बिगड़ा हुआ लड़का, जो कि अपने क्लास ट्वेल्व सीबीएससी रिज़ल्ट को सेलिब्रेट करने के लिए पब जाता है और वहाँ पर वो ड्रिंक करके रात को अपने पाँच करोड़ रूपए के स्पोर्ट पोरशे कार को लेकर दो-सौ किलोमीटर के ऊपर की गति में रास्ते में भगाता है और उसने दो आईटी एम्प्लॉईज़ को वहाँ पर उड़ा दिया।

तो मेरा प्रश्न ये है कि जैसे कि उसने ये किया, उसके बाद उसको पन्द्रह घंटे के अन्दर ही बेल मिल गयी और उसको बताया गया है कि वो पन्द्रह दिन तक ट्रैफिक पुलिस के साथ रहेगा और वहाँ पर वो ट्रैफिक रूल्स सीखेगा।

और एक बताया गया है कि वो तीन-सौ शब्दों का एक निबन्ध लिखेगा एक्सीडेंट के ऊपर, बस यही इसकी सज़ा है क्योंकि वो अठारह साल से चार महीने कम है। उसकी उम्र है सत्रह साल आठ महीना।

तो मेरा प्रश्न ये है कि हमारे देश में कौन सी उम्र को हम ये मान सकते हैं कि वो अपने करने के लिए वो अपना जो दोष है या फिर जो करता है उसके लिए अपनी ज़िम्मेदारी लेने के लिए एलिजिबल है।

आचार्य प्रशांत: कम होनी चाहिए, कम होनी चाहिए। अठारह तो ये कल्पना लोक से ही निकलकर आ रही है अठारह की उम्र। नहीं तो अठारह का जो आँकड़ा है वो कोई पत्थर की लकीर तो है नहीं, न ही वो किसी ठोस वैज्ञानिक या गणितीय सिद्धान्त से आता है। ये तो हमने आपस में सर्वसम्मति से एक मान्यता बना ली है कि बड़ा किसी को मानेंगे, अठारह की उम्र में।

अभी जो समय आ गया है, उसमें किसी को अठारह की उम्र में बालिग मानना, वो शायद कम-से-कम अपराध की दृष्टि से बहुत समझदारी की बात नहीं है। हाँ, आप कहें कि विवाह नहीं होना चाहिए एक उम्र से पहले, समझ में आता है; आप कहें कि बालिग नहीं है। पर कोई कत्ल कर रहा हो, बलात्कार कर रहा हो, हत्या कर रहा हो और इसलिए बच जाए कि वो सत्रह-साढ़े सत्रह साल का था; ये बात कहीं से भी जायज़ नहीं है।

ऐसे मामलों में अब इस पर विचार समाज के बुद्धिजीवियों को और न्यायविदों को करना चाहिए। पर मुझे लगता है बारह, चौदह, पन्द्रह; ऐसी कोई उम्र ज़्यादा उचित है। तो एक तो बात ये है।

देखिए आप अगर थोड़ा ज़मीनी आदमी हैं और आप भारत के गाँव-कस्बों के हालात जानती हैं तो आपको पता होगा कि बारह, चौदह साल वाले भी मेहनत मज़दूरी करने लग जाते हैं और वो बहुत जल्दी एडल्ट हो जाते हैं। उनका शहरी बच्चों जैसा पालन-पोषण नहीं होता कि कोई कपड़े पहना रहा है, कोई जूते बाँध रहा है, किसी ने टिफ़िन बना दिया और सब तरीके से उनको रुई के फाहे में और मखमल में लपेटकर रखा जा रहा हो।

गाँव में विशेषकर पूर्व के गाँव में, जहाँ गरीबी आज भी बहुत ज़्यादा है; आप पाओगे कि बच्ची होगी आठ-दस साल की और वो टाँगे-टाँगे घूम रही है अपने छोटे भाई को। वो छोटा भाई उसका तीन साल का है, उसको ऐसे टाँगे-टाँगे घूम रही है और कहीं कचरा बीन रही है या उसको भी कोई काम दे दिया गया है घर का या खेतों की तरफ़ उसको भेज दिया गया है कि तू भी काम कर। तो ये सब तो हो ही रहा होता है।

बाल विवाह की प्रथा भारत में आज भी है। और हमारे न्यायालय ही कहते हैं कि अगर कोई लड़की है और उसका इतने महीने का गर्भ हो गया है तो गर्भपात की भी अनुमति नहीं देंगे। ये भी अभी हाल में फिर से किस्सा आया है।

तो माने न्याय व्यवस्था ही मान रही है कि लड़की चौदह साल की भी है तो भी वो इतनी बालिग है कि उसको अब माँ बनने दो। तो अगर इतनी बालिग है कि माँ बनने दो, चौदह ही साल में तो अठारह साल का लड़का अगर जाकर के हत्या कर रहा है तो उसको सज़ा क्यों नहीं होनी चाहिए? आप उसको नाबालिग मान क्यों रहे हो? तो इन चीज़ों पर पुनर्विचार की निश्चित रूप से ज़रूरत है।

और एक चीज़ होनी चाहिए, कोई अगर ऐसा नाबालिग होता है और उसको मान लो कोई उपकरण मिलता है, वो उपकरण एक कार भी हो सकती है, एक बाइक हो सकती है और एक बन्दूक भी हो सकती है; तो जिसने उसके हाथों में उपकरण दिया उसको तो सज़ा मिल सकती है न? उसको क्यों नहीं मिले? चाहे वो उसके माँ-बाप हों, चाहे दोस्त हों या वो दुकानदार हो जिसने उसको वो माल बेचा। उनको क्यों नहीं सज़ा होनी चाहिए?

आने वाले समय में ये समस्या और बड़ी होकर उभरने वाली है क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। और बच्चे कम हो रहे हैं। तो वो जितनी पूरी आमदनी है वो उस एक बच्चे के हाथ लग जानी है। उस बच्चे को कोई विशेष ज़रूरत भी नहीं रहनी है पढ़ने-लिखने की या ज़िम्मेदारी से अपनी ज़िन्दगी बनाने की। माँ-बाप भी अक्सर दोनों कमा रहे हैं।

तो माँ-बाप कमा रहे हैं और माँ-बाप जितना कमा रहे हैं उतना पिछली पीढ़ी कमाती भी नहीं थी। और बच्चा है एक या दो तो वो सारी-की-सारी जो दौलत है, वो बच्चे की है। बच्चा क्यों ज़िम्मेदारी उठाएगा अब ज़िन्दगी में? और माँ-बाप भी कहते हैं, ‘अब ये सब हमने बना रखा है, कमा रखा है तो बच्चे को देते चलो।‘ चाहे वो पाँच लाख की गाड़ी हो, पाँच करोड़ की गाड़ी हो; माँ-बाप दे देते हैं।

तो ऐसे में ये जो माँ-बाप हैं, इन्हें पकड़ा जाना चाहिए। अब देखिए न, हो क्या रहा है कि जिनके पास नवाबी का, विलासिता का, अय्याशी का पैसा है; उनके हाथों मौत किसकी हुई है। आईटी कर्मियों की।

एक इसमें लड़की और एक लड़के की दुखद मृत्यु हुई है। ये दोनों वो होंगे जिन्होंने ठीक से पढ़ाई-लिखाई करी। जहाँ तक है इन्होंने इन्जीनियरिंग करी होगी। ये बैंगलोर का है, पुणे का है? उसके बाद जाकर के आईटी इंडस्ट्री में ये जॉब कर रहे थे।

अगर इनके पास भी घर का पैसा होता तो ये दोनों भी किसी कार में होते और शायद इन्होंने नौकरी अभी दो-चार साल पहले ही शुरू करी होगी। इतनी जल्दी, इतना पैसा नहीं इकठ्ठा हो जाता कि कार खरीद लो। तो ये दोनों टू व्हीलर पर थे। ऐसा ही था न?

तो टू व्हीलर पर कौन है? जो अपनी मेहनत से कमा रहे हैं, जिन्होंने मेहनत करके शिक्षा ली है, ज्ञान के दम पर नौकरी ली है। और वो भारत के एक आधुनिक शहर में सोच रहे हैं कि सुरक्षित हैं।

उनको पता भी नहीं था कि शहर आधुनिक है लेकिन मनुष्य की वृत्तियाँ तो बहुत पुरानी है न। शहर भले ही आधुनिक है। ये पुरानी वृत्ति ही है कि मैं और मेरा खून, मेरा लाडला, मेरा नवाबज़ादा और सारी मेरी दौलत मेरे नवाबज़ादे की। तो इस नवाबी में बेकसूरों की जान चली गयी।

स्वतन्त्रता की लड़ाई देखो, वहाँ पर कितने उदाहरण मिल जाते हैं जहाँ अठारह साल से कम वालों ने जान लड़ा दी। अध्यात्म का क्षेत्र देखो, वहाँ भी उदाहरण मिल जाते हैं। अध्यात्म में अगर अठारह से कम वालों को हम पूज सकते हैं तो अपराध में अठारह से कम वालों को सज़ा क्यों नहीं दे सकते? क्यों नहीं दे सकते?

ये हम ज़बरदस्ती जो एडल्ट हो चुका है, उसको बच्चा बनाये रखने का काम कर रहे हैं। अठारह साल वाला पूरे तरीके से वयस्क होता है, परिपक्व होता है। और अगर नहीं है वयस्क और नहीं है परिपक्व वो तो उसको गाड़ी छूने का हक़ किसने दिया? वो गाड़ी छूकर के, गाड़ी लेकर सड़क पर भाग रहा है, वो इसी से ज़ाहिर कर रहा है कि वो अपनेआप को परिपक्व समझता है।

तो जब वो अपनेआप को समझता ही है तो उसके साथ बर्ताव भी इसी हिसाब से होना चाहिए न? आधुनिक युग ने जो चौदह, सोलह साल वाले हैं, उनके हाथ में भी बड़ी ताकत दे दी है।

मैं एक उदाहरण आपको और देता हूँ। भारत में जो बड़ी-बड़ी ट्रोल आर्मीज़ (नेट पर तर्क-वितर्क फैलाने वाला समूह) हैं, इनके आधे से ज़्यादा जो सदस्य हैं, वो अठारह से कम वाले हैं। पर वहाँ कहीं उम्र तो लिखी नहीं होती न।

तो आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी पैन्तीस-चालीस साल वाले से बात कर रहे हो। और वो है कौन? वो आठवीं-दसवीं वाला है। और वो नेट पर आकर आपके साथ गाली-गलौच कर रहा है।

और जो पूरे सामाजिक समीकरण हैं वो ये लोग बदले दे रहे हैं सोलह साल वाले। और ये किसी हाल में अपनेआप को सोलह साल का नहीं मानते। इनकी नज़र में ये मेच्योर एडल्ट्स (परिपक्व व्यस्क) हैं। तो जब ये अपनी नज़र में मेच्योर एडल्ट्स हैं ही तो इनके साथ बर्ताव भी क्यों न मेच्योर एडल्ट्स जैसा ही किया जाए?

जब तुम मेच्योर एडल्ट होने की प्रिवलेजस (विशेषाधिकार) सारी लेना चाहते हो तो मेच्योर एडल्ट होने का पनिश्मेंट भी लो फिर। या ऐसा है कि प्रिवलेज तो ले सकते हो पनिशमेंट नहीं लोगे?

प्र: जैसे कि मैंने देखा है कि उसका नाम है वेदान्त। लेकिन उसका नाम और उसका काम दोनों ही पूरा अलग है।

आचार्य प्रशांत: वेदान्त मीट कार्नर भी होता है। बहुत सारी कम्पनियाँ हैं वेदान्त नाम की जो एक से एक गलीच काम भी कर रही हैं। नाम में क्या रखा है? नाम तो कुछ रख लो। गीता, सीता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश; नाम कौन रखता है ‘दुर्योधन?

नाम ये बताने के लिए थोड़े ही होता है कि तुम कौन हो। नाम तो ये छुपाने के लिए होता है कि तुम कौन हो। तुम्हारा क्या नाम है?

(सामने बैठे बच्चे से पूछते हैं) तुम्हारा क्या नाम है?

बच्चा: दक्ष।

आचार्य प्रशांत: दक्ष कि लक्ष्य?

बच्चा: दक्ष।

आचार्य प्रशांत: देखा! दक्ष है। दक्षतापूर्ण नोट्स बनाये तुमने?

बच्चा: हाँ?

आचार्य प्रशांत: देखा! ऐसे ही चल रहा है। मैं गाड़ी लेकर निकलूँ और कोई महँगी गाड़ी ऐसे-ऐसे करके निकल रही हो (हाथ से टेढ़ी-मेढ़ी गति का संकेत करते हुए) मेरे साथ जो थे मैं उनसे बोलता हूँ, ‘ये इसकी नहीं है।‘ जिसने अपने खून-पसीने से खरीदी होगी वो कभी ऐसे चला ही नहीं सकता।

ये मैं पक्का जानता हूँ। अपनी मेहनत की कमाई से जब आप कुछ भी अपने घर लाते हो, खास-तौर पर जब एक मध्यम वर्गीय आदमी गाड़ी खरीदता है तो उसको टायर की खरोंच तक बुरी लगती है। बॉडी छोड़ दो वो टायर तक देखता है कि टायर भी चमक रहे हैं कि नहीं चमक रहे हैं। कम-से-कम साल, छह महीने वो चाहता है कि इन पर भी खरोंच न आये।

तो ये चीज़ कि शहर के भीतर दो-सौ की स्पीड से गाड़ी चला रहे हो, ये तो बस नवाबी के ही लक्षण हैं। और ऐसों से बहुत बच कर रहा करो। ये जो एग्ज़ॉस्ट की आवाज़ें वाली फरारी दौड़ रही होती हैं न, इनसे बहुत बचो। ये इनकी नहीं है, ये इनके बाप की है।

और इसी तरीके से समाज में पाप फैलता है। सारी बात ही एक अच्छे, ऊँचे, जाग्रत समाज की क्या है, जानते हो? वहाँ संसाधन उसके हाथ में होंगे जिसके पास श्रेष्ठता होगी।

और एक गलत बहके हुए, भटके हुए समाज की निशानी होती है कि वहाँ संसाधन उसके हाथ में होते हैं जिसके पास बाप होता है। अब बाप माने जाति। यही जाति व्यवस्था है।

जाति व्यवस्था यही थोड़े ही है कि कोई अपनेआप को ब्राह्मण बोले, कोई शूद्र बोले। सबसे खतरनाक जाति तो यही है कि मैं एक घर में पैदा हुआ। लो! मुझे पैदा होते ही पाँच करोड़ की कार मिल गयी।‘

जाति माने जो चीज़ जन्म से हो – ‘जात।‘ जो जन्म से मिला हो उसे जाति बोलते हैं। जिसको जन्म से ही पैसा मिल गया, टू बी बोर्न विद अ सिल्वर स्पून (चाँदी के चम्मच के साथ पैदा होना)।

ये बड़ी गड़बड़ किस्म की जाति है आधुनिक समाज में। तो सोचो ऐसे समाज का क्या होगा जिसके ज़्यादातर संसाधन ऐसे नवाबज़ादों के हाथ में है जो डिज़र्व (योग्य होना) कुछ नहीं करते, जिन्होंने कमाया कुछ नहीं है पर फिर भी उनके पास करोड़ों हैं?

और जो मेरिटोरियस हैं वो बेचारे स्कूटी पर चल रहे हैं और सड़कों पर मारे जा रहे हैं। ये प्रिविलेज वर्सेज़ मेरिट (विशेषाधिकार और योग्यता) का एक मामला है। जिसमें प्रिवलेज ने मेरिट को रौंद दिया सड़क पर।

आ रही है बात समझ में?

प्रिवलेज ने खुलेआम सड़क पर मेरिट को रौंद दिया और समाज देख रहा है। क्या करेगा समाज? इसी समाज ने तो प्रिविलेज के हाथों में करोड़ो रखे हैं। ऐसे समाज को कोई नहीं बचा सकता जहाँ मेरिट खून-पसीना एक करके भी थोड़े-से-थोड़े संसाधन के लिए परेशान होती रहती हो और व्यर्थ लोगों के हाथ में करोड़ो-अरबो यूँ ही पहुँच जाते हों। हम खुद उसके भुक्त भोगी हैं इसलिए जानते हैं।

पैसा किसके पास होना चाहिए? जो पैसे का सही, सफल, सार्थक, उच्चतम उपयोग कर सके, उसके पास होना चाहिए न! आप समाज में देख लो पैसा किसके पास है? और फिर आपने जब ऐसों को पैसा दे रखा है तो उस पैसे से फिर सड़क पर ही आपके जवान लोगों की लाशें गिरें तो फिर ताज्जुब क्या है?

हंस चुगेगा दाना घुन का, कौआ मोती खाएगा।

जितने कौए हैं सब मोती खा रहे हैं। हंसों को घुन भी नहीं मिल रहा है इतना-सा। उसके लिए भी वो रोज़-रोज़, इधर-उधर पूछते फिरते हैं। और कौओं को मोती मिल रहा है।

मुझे बड़ा विचित्र लगा था कि एक-एक नम्बर तो मेरिट के हिसाब से दिया गया शिक्षा व्यवस्था में। ठीक? और बीस साल शिक्षा लेकर मैं बाहर निकला तो पता चला कि सत्ता जिनके हाथ में रहती है उनके तो नम्बर नहीं गिने जा रहे। और पैसे जिनके हाथ में रहते हैं उनके भी नम्बर नहीं गिने जा रहे।

तो बस स्कूल में और कॉलेज में और यूनिवर्सिटी में जो रिपोर्ट कार्ड था बस उसी में मेरिट देखी जानी थी? और पढ़ाई के बाद जब आप दुनिया में निकलते हो तो वहाँ पर जो आँकड़े होते हैं, बैंक अकाउंट में जो है वो भी एक आकड़ा ही है न; वहाँ पर जो आँकड़ा है वो मेरिट पर नहीं चलेगा। वो बस इसी बात पर चल देगा कि मेरा बाप अमीर था, मैं भी अमीर हूँ।

तो ऐसे तो फिर ये भी कर दो न कि मेरा बाप पीएचडी था तो मैं भी पीएचडी हूँ। उसको फिर स्कूल क्यों भेज रहे हो? अगर बाप के अमीर होने से लड़का अमीर हो जाता है तो अब से इस समाज में ये नियम भी होना चाहिए कि बाप पीएचडी है तो बेटा पैदा होगा वो पीएचडी माना जाएगा। उसको नर्सरी, केजी भेजने की भी कोई ज़रूरत नहीं है।

पूरी मेहनत करा ली आइसीएससी, आइएससी फिर बीटेक, फिर एमबीए और सबकुछ करके बाहर निकलो तो पता चलता है कि तुमने जितनी शिक्षा ली उससे कोई लेना-देना नहीं है। किसी के पास बाप का पैसा है वो सिर पर चढ़ के बैठा हुआ है। कोई अन्धविश्वास चढ़ा के सिर पर बैठा हुआ है, कोई गुंडई करके सिर पर बैठा हुआ है।

दुनिया के सारे कुकर्म कर-करके लोग समाज में एकदम ऊँचे जगहों पर बैठे हुए हैं। और तुम क्या लेकर घूम रहे हो? अपनी मेरिट।

ये कैसा समाज है और कैसी इसकी व्यवस्था है? जब बच्चे होते हो, जब जवान होते हो; तब तो कहा जाता है, ‘अपनी मेरिट बढ़ाओ, मेरिट बढ़ाओ।‘ हमने तो बढ़ा ली पूरी मेरिट, जितनी बढ़ाई जा सकती थी, उतनी कर ली। और कैम्पस की चार-दीवारी से बाहर निकलते हैं, तो पता चलता है मेरिट से तो कुछ है नहीं।

हम मेरिट वाले हैं, हमें एम्प्लॉय वो कर रहे हैं जिनकी अपनी कोई मेरिट नहीं है। ये तो गज़ब हो गया। आप बन जाओ आइएएस, कोई यूँही गुंडा-लफंगा, अनपढ़ नेता; वो आपका बॉस होगा। उसकी मेरिट क्यों नहीं देखी?

यूपीएससी वालों की तो जान ले लेते हो। वो दस-दस साल बेचारे वहाँ मर रहे हैं मुखर्जी नगर में। और फिर किसी तरीके से अगर वो सफल हो भी गये तो वो पाते हैं कि कोई एकदम गये-गुज़रे स्तर का आदमी, और वो जो आइएएस है वो क्या बन जाता है अब? सेक्रेटरी है वो, सचिव। किसका सचिव है? किसका सचिव है? और वो पान की पीक वाला बैठा हुआ है, एकदम ही मूर्ख आदमी; आप आइएएस बनकर उसके सेक्रेटरी।

हमने कहा, ‘बनना ही नहीं, रखो अपनी नौकरी।‘ सेक्रेटरी माने सेक्रेटरी भाई। बात खत्म। नहीं बनना। माँ-बाप अगर सचमुच अपने बच्चों की भलाई चाहते हों तो उनके लिए कम-से-कम पूँजी छोड़कर जाएँ।

एक ही आपसे आग्रह कर रहा हूँ — मत छोड़ो। उनके पालन-पोषण में, शिक्षा में जितना पैसा लगाना है, लगा दो। अधिक-से-अधिक लगा दो। पर उनके हाथ में पैसा मत दो। उनको बोलो, ‘तेरे हाथ में तो वही आएगा जो तू खुद कमाएगा। मुझसे कुछ नहीं पाएगा। हाँ, तू एंत्रप्रेन्योर बन रहा है, तू कम्पनी खोल रहा है, मैं तेरी कम्पनी में निवेश कर दूँगा, एज़ एन इन्वेस्टर। उतना मैं फिर भी कर सकता हूँ। अगर मुझे तेरा बिज़नेस आइडिया ठीक लगा तो मैं तेरा पहला इन्वेस्टर बन जाऊँगा। ये मैं फिर भी कर सकता हूँ।

लेकिन ये तू भूल जा कि तू मेरी जायदाद का वारिस बनेगा और पन्द्रह-बीस करोड़ मैं तुझे उठा कर यूँही दे दूँगा।‘

और पन्द्रह-बीस करोड़ आज के समय में कुछ नहीं होते। आपके पास अगर पुश्तैनी जायदाद भी है न, जो हो सकता है कि बीस साल पहले बहुत कम मूल्य की रही हो, वो आप पाओगे कि जब तक बच्चा बड़ा होता है, पच्चीस साल बाद वो जायजाद पाँच-दस करोड़ की हो जाती है। सबसे ज़्यादा जो एप्रीसिएशन (अभिमूल्यन) है, वो तो इसी का है न, रियल स्टेट।

मत छोड़ो बच्चे के लिए। बच्चे को अच्छी परवरिश दो। उसकी शिक्षा में और तरीके से उसको जो अनुभव देने हैं, पोषण देने हैं, उसमें जितना खर्च होना है; कर डालो। और ये मत करो कि तूने कमाया-धमाया कुछ है नहीं, न योग्यता दिखाई अपनी, न श्रम करा और ये ले मेरी ओर से पाँच करोड़ तेरा हुआ; ये बिलकुल भी नहीं। पाँच करोड़ आप कैश नहीं देते हो। पाँच करोड़ आप क्या देते हो? आप प्रॉपर्टी दे देते हो। पाँच करोड़ की हो जाती है धीरे-धीरे। मत करो।

साफ़ बोल दो कि ये जो मेरा है वो तो मैं ले जाकर के किसी सही काम में लगाने वाला हूँ। तेरे लिए मुझे जो करना था, मैंने तेरी ज़िन्दगी के पच्चीस सालों में कर दिया। और अब मुझसे कुछ सोचना नहीं कि मिलेगा। दो भी बच्चे को तो उधार की तरह दो। बड़ा अजीब लगेगा क्योंकि हमारी संस्कृति में चलता नहीं है कि बाप बेटे को लोन दे रहा है।

दो तो लोन की तरह दो न। बोलो, ‘ठीक है, तू अपना कुछ काम-धन्धा करना चाहता है। बता क्या है? बीस लाख लोन चाहिए? ले ले। चल तू बेटा है अपना, तेरे साथ अपनी कुछ ममता लगी हुई है। तुझे इन्टरेस्ट-फ्री लोन दे दिया, जा। लेकिन लौटाएगा। ये मत करियो खा गया। गर्दन पकड लूँगा। तुझसे ब्याज़ नहीं ले रहा लेकिन जितना लगाया है उतना तू लौटाएगा।‘

ये होगा बाप-बेटे का स्वस्थ सम्बन्ध। बाप-बेटी का भी, माँ-बेटी का भी; यही होना चाहिए। इसमें कोई ये नहीं कि बेटी को दहेज दे दिया और बेटे को निवेश दे दिया। उसको भी यही कहो कि तुझे क़र्ज़ा दे रहा हूँ, लौटा दे।‘

और न लौटाए तो उसके घर पहुँच जाओ। (सामने बैठे बच्चे से कहते हैं) कुछ नहीं पाओगे। सब समझा दिया मैंने मम्मी-पापा को। गलत फँस गये तुम। बात ठीक है कि नहीं? बड़ी अनफेयर (अनुचित) बात है न?

किसी को बस इसलिए सारी मौज-मस्ती, अय्याशी करने को मिल रही है क्योंकि उसका बाप अमीर है। ये बात समाज के लिए भी ठीक नहीं है और उस व्यक्ति के लिए भी ठीक नहीं है जिसके हाथ में आप अन-अर्जित, अनअर्नड, अनडिजर्विंग पैसा दे देते हो। आप जानते हो न कि वो आदमी भीतर से सड़ जाता है? जानते हो कि नहीं?

तो अगर आप माँ-बाप हो और बच्चे के हितैषी हो तो उसके हाथ में आप क्यों मुफ़्त का पैसा रखना चाहते हो? उसे श्रम करने दो। कुछ मत दो।

और जिस बच्चे में भी आत्मगौरव हो, खुद्दारी हो, वो खुद मना कर देगा। वो कहेगा, ‘नहीं लूँगा। ये बात मुझे ठीक नहीं लग रही। दम है, आपने मुझे बहुत अच्छी शिक्षा दी, आपने मुझे बड़ी प्यारी परवरिश दी, सम्मान है आपका, अनुग्रह है; अब पिता जी मम्मी मुझे मेरे पैरों पर खड़ा होने दीजिये। अब आपसे और कुछ नहीं ले सकता मैं।‘

ये बेटे-बेटी की भी खुद्दारी का सबूत हुआ। और अगर आपके बच्चे ऐसा कह पाते हैं तो इसी से साबित होता है कि आपकी परवरिश अच्छी थी। और आपके बेटे-बेटी आपकी दौलत को ‘न’ नहीं बोल पाते तो साबित हो जाता है कि परवरिश बहुत खराब थी।

बाप करोड़पति हो, अरबपति हो, साहब आप अपने पैसों से कमाई गयी एक बाइक पर चलिए। उसका अपना रुतबा है, बड़ी शान है। और बाप आपको जो भी मॉडल था, वो बीएमडब्लू जो भी है वो, खरीद कर दे रहा है, आप उसमें चल रहे हो, ये गुलामी है। ये बहुत गरीबी की बात है।

हम भी खरीद लेंगे अगर लगेगा ज़रूरत है। ज़िन्दगी में जो काम कर रहे हैं उस काम में अगर हमें भी लगा कभी कि कोई लग्ज़री व्हीकल चाहिए तो खरीद लेंगे। पर यही दो शर्तें रहेंगी।

पहला, उसकी कोई साफ़-साफ़, सही, सार्थक ज़रूरत होनी चाहिए। दूसरी बात, जब आएगा, हमारे पैसे से आएगा। हम माँ-बाप को क्या मना करें? हम तो बीवियों से माँगते फिरते हैं। ये तो भारत के जवान लोगों की हालत है।

कहें, ‘मेरे घर तू तभी आएगी जब साथ में कम-से-कम बीस, पचास लाख या दो-चार करोड़ लाएगी।‘ भारत की जवानी है या भिखारियों की बस्ती? जहाँ देखो वहाँ मुँह फाड़कर कटोरा टाँग के माँगते ही रहते हैं। कभी बाप से कह रहे हैं, ‘दे दो।‘ कभी बीवी से कह रहे हैं, ‘दे दो।‘

प्र: नमस्ते आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories