प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, अभी मेरी उम्र पैतीस वर्ष है। अभी तक जीवन जो देखा मैंने, उसमें ये देखा कि हमेशा एक समय पर एक विपरीत लिंगी की आवश्यकता महसूस होती है। सर, मुझे उससे कुछ चाहिए नहीं, लेकिन वो मौजूद हो कि हाँ, कोई एक विपरीत लिंगी है; और वो नहीं है तो मैं अधूरा सा महसूस करती हूँ। मैं ये भी जानती हूँ कि कोई किसी का सहारा बन नहीं सकता, लेकिन फिर भी एक कमी महसूस होती है कि कोई हो जो साहस दे, जीवन भर साथ निभाए। सर, इस मानसिक स्थिति से उबरने का कोई मार्ग बताएँ।
आचार्य प्रशांत: आप जो बोल रही हैं उसमें उत्तर भी आपने दे ही दिया है, मैं क्या बताऊँ? मिथ्या है, माया है, आप खुद ही कह रही हैं कि कुछ चाहिए नहीं है। आपने कहा होता, ‘उससे कुछ चाहिए है,’ तो मैं आपसे बोलता, ‘आप जो चाह रही हैं वो हासिल होता नहीं है, या होता भी है तो कुछ रखा नहीं है।‘ आप खुद ही कह रही हैं स्वयं ही कि कुछ नहीं चाहिए होता लेकिन फिर भी मैं चाहती हूँ कि बस हो, उसकी मौजूदगी रहे, प्रेज़ेंस रहे, तो इसमें मैं क्या उत्तर दूँ?
आपके प्रश्न में ही उत्तर है न कि कुछ नहीं है, कल्पना है, मिथ्या है। और ऐसा लग ही रहा है अगर आपको कि चाहिए है, तो एक रख लीजिए घर में; ‘कौ-हकना’ बोलते हैं उसको गाँव में। वो जो ऐसे खड़ा होता है, ‘स्केयर-क्रो’ (पक्षियों को डराने वाला पुतला)। स्केयर-क्रो देखा है? कौ-हकना, वो ऐसे खेत में खड़ा कर देते हैं? तो मान लीजिए यही पुरुष है मेरा। पुतला पुरुष है हमारा! क्या बोला जाए इसमें, एक मौजूदगी चाहिए, प्लेसेबो ( कोई वस्तु जिसमें सक्रिय गुण नहीं होते), किसी को भी मान लीजिए, यही पुरुष है मेरा, क्या बोलें! हाँ, है!
या एक दूसरी बात हो सकती है कि आत्मज्ञान की कमी से आप अपने ही मनसूबे भाँप नहीं पा रही हैं। आप कह भर रही हैं कि आपको उसका कुछ नहीं चाहिए, हकीकत ये है कि आपको कुछ चाहिए जो आप या तो जानती नहीं हैं या बताना नहीं चाह रही हैं।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर।
आचार्य प्रशांत: अगर कुछ नहीं चाहिए तो फिर कौ-हकना! कुछ नहीं चाहिए तो एक पुतला ले आइए, उस पर लिख लीजिए ‘पुरुष मेरा’। क्योंकि आपको तो बस एक मौजूदगी चाहिए, तो खड़ा कर लीजिए अपने कमरे में। चाहिए होता है, कुछ उससे इन्श्योरेंस की तरह चाहिए, आज कुछ नहीं चाहिए। फ़िल्में बहुत देख लीं, घटिया पिक्चरें, चार गुंडे मुझे पकड़ लेंगे, मैं अबला नारी — “अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।” ‘मैं छोटी सी नारी, आ गया गुंडा पकड़ ली साड़ी। फिर वो कूदेगा, मेरे सपनों का व्यापारी और सबको ऐसे एकदम रजनीकांत की तरह, दो को घूसे मारे, चार को लात मारी।’ यही सब होता है और क्या? आज काम नहीं आ रहा, आपातकाल में काम आएगा। कभी-न-कभी तो कोई गुंडा आएगा न, साड़ी खींचेगा, तब वो द्रौपदी के कृष्ण की तरह मेरी लाज रखेगा। यही सब होता है, कुछ नहीं, कहानियाँ।
तथ्य बता रहे हैं कि आपको आवश्यकता नहीं है, आप स्वयं ही स्वीकार कर रही हैं कि नहीं, ज़रूरत तो कुछ भी नहीं पड़ती। लेकिन दिमाग में कहानियाँ बैठी हुई हैं, फ़ितूर, कुछ समाज ने बैठा दिए, अब स्वार्थ ने पकड़ लिया है उनको; बाहर समाज है, भीतर स्वार्थ है। समाज ने कहानियाँ दीं और स्वार्थ ने उन कहानियों को झट से लपक लिया कि मर्द तो होना चाहिए न, मर्द, मर्द नहीं तो दर्द होगा जीवन में। और ये आपकी तरफ़ से नहीं है, मर्दों को भी यही है कि नहीं, उससे चाहिए तो कुछ नहीं है, पर अगर एक होती तो अच्छा रहता।
तुम्हें उससे कुछ चाहिए नहीं है, झुन्नू, तो जैसे ही धनिया फिर आई तुम्हारी ज़िंदगी में, तो एक साल में कैसे आ गया नुन्नु? तुम तो बोल रहे हो, तुम्हें उससे कुछ चाहिए नहीं था। जब कुछ चाहिए नहीं था तो ये नुनुवा कहाँ से आया? तो ज़ाहिर सी बात है कि चाहिए तो था। नुन्नू का पैदा होना बता रहा है कि तुम्हें उससे क्या चाहिए था, पर तुम स्वीकारोगे नहीं। ये तुम्हारी नैतिकता है, कोरी नैतिकता, पाखंडी नैतिकता कि तुम स्वीकारोगे भी नहीं कि तुम्हें धनिया से क्या चाहिए था।
तुम बोलोगे, ‘नहीं, कुछ चाहिए नहीं होता है, वो एक बस यूँही अकेलापन होता है। एक हमसफ़र चाहिए होता है जिससे हम अपने जज़्बात बाँट सकें।’ इस तरह की बहुत सी बकवास हमें रोज़ लिखी हुई आती है — कभी ईमेल पर आती है, कभी वीडियो पर कोई कॉमेंट करेगा। ये सब खूब होता है कि अरे! आप क्या जानो, प्रेम, आप तो कहते हो बार-बार कि प्रेम माने सिर्फ़ सेक्स होता है। प्रेम माने होता है कि ज़िंदगी में कोई हो हमारी तनहाइयों में हमसफ़र, कम्पैनियनशिप , सोलमेट , साथी।
मैं तुम्हें एक बात पूछ रहा हूँ, झुन्नू से, ‘जब तुझे कुछ नहीं चाहिए था तो नुन्नू कहाँ से आया?’ तुझे जो चाहिए था, वो तूने जब बार-बार पाया तो वहीं से फिर नुन्नू प्रकट हो आया। ठीक बोल रहा हूँ? पर समाज ठीक वैसे जैसे हमको तमाम तरीके के विषय देता है, उसी तरह समाज हमें नैतिकता का ढ़क्कन भी देता है बिलकुल वैसे जैसे कानून कहता है। हाँ भाई, वहाँ देखा रहता है कि सरकारी भाँग की दुकान, लाइसेंसी बीयर की दुकान, देखा है? और उसके थोड़े आगे लिखा होगा — ‘अरे! शराब पीना बुरी बात है और शराब पीओगे तो, जो भी है, पुलिस ले जाएगी या नर्क में सड़ोगे।‘ ये कैसी बात है! अगर इतनी बुरी बात है तो?
प्रश्नकर्ता: बेचते ही क्यों हो?
आचार्य प्रशांत: वैसे ही सिगरेट के डब्बे पर वो कैंसर की शक्ल लगा देंगे, तो सिगरेट बिकने क्यों दे रहे हो? सिगरेट बेचकर तुम टैक्स भी इकट्ठा कर रहे हो। वो इतनी सी सिगरेट है, उसमें आपको क्या लगता है कि कागज़ या तंबाकू का दाम होता है, सारा-का-सारा दाम टैक्स का होता है। सरकार उसमें खूब टैक्स बनाती है सिगरेट पर, लेकिन वही सरकार आपको ये भी बताना चाह रही है कि ये जानलेवा चीज़ है। तो ये समाज ये करता है हमारे साथ — एक ओर तो वो हममें वासनाएँ जाग्रत करता है और दूसरी ओर उस पर नैतिकता का ढ़क्कन लगता है। कि जैसे प्रेशर कुकर को नीचे से आग दो और ऊपर से ढ़क्कन लगाओ, तो हम तो उबल जाते हैं भीतर पूरी तरह से, दबाव-ही-दबाव बढ़ जाता है।
एक ओर तो हममें पुरुष को लेकर या स्त्री को लेकर के वासना जाग्रत करी जाती है — फ़िल्मों, किस्से-कहानियों, समाज, शादी, विवाह, प्रपंच इनके माध्यम से हम सबके भीतर वासना भड़काई जाती है — और दूसरी ओर ये भी कहा जाता है कि सबसे ऊँचा कौन है? ब्रह्मचारी। और जो ये बोल दे कि मुझे तो जीवन में किसी पुरुष या स्त्री की ज़रूरत ही नहीं, उससे ज़्यादा पवित्र कौन हो सकता है। तो हम फँस जाते हैं, हममें वासना भी उबल रही होती है — और वासना माने सिर्फ़ दैहिक वासना नहीं होती, मानसिक इच्छाएँ भी सारी, मैं उनको सबको वासना की श्रेणी में रख रहा हूँ — भीतर हमारे इच्छाएँ भी उबल रही होती हैं लेकिन मुँह से हम स्वीकार भी नहीं कर पाते कि हमारे भीतर इतनी इच्छाएँ हैं, क्योंकि स्वीकार करेंगे तो अपवित्र कहलाएँगे, स्वीकार करेंगे तो भोगी कहलाएँगे, हवसी कहलाएँगे।
कोई जाकर के सीधे बोल दे कि मुझे पत्नी इसलिए चाहिए क्योंकि सेक्स करना है, दुनिया कहेगी, ‘छी!छी!‘ और अच्छा किसको माना जाता है? जो महापाखंडी हो, जो जाकर बोल दे, ‘नहीं, मुझे तो बस तनहाइयों में हमसफ़र चाहिए।’ तनहाइयों में हमसफ़र चाहिए तो लड़की ही काहे को चाहिए, दादाजी के साथ बैठ बेटा। दादाजी बहुत ज्ञान की बातें बताएँगे, जाकर उनका पाँव दबा दे, चार दिन के मेहमान हैं। दादाजी को भी बहुत तनहाई है जबसे दादीजी गई हैं। ठीक है?
तो ये होता है, तो इस मारे हम कभी स्वीकार भी नहीं कर पाते कि मूल बात क्या है। मूल बात वही है, फ़िल्मी इच्छाएँ, और कुछ नहीं। जिसमें मैं नहीं कह रहा हूँ कि सिर्फ़ सेक्स है; बुरा लग जाता है, खासतौर पर महिलाओं को मैं बोल दूँ। कोई महिला बोले, ‘मुझे पुरुष चाहिए,’ मैं बोल दूँ, ‘सेक्स के लिए चाहिए,’ तो बहुत बुरा मानती है। विदेश में उतना नहीं बुरा मानती, भारत में बहुत बुरा मानती हैं। उनको बोल दो कि भाई, तुझे पुरुष सिर्फ़ सेक्स के लिए चाहिए, एकदम ऐसे हो जाएगी, बिफर जाएगी, ‘आपने मुझे क्या कैरेक्टरलेस (चरित्रहीन) समझ रखा है!’
अब ये सेक्स और कैरेक्टर का क्या संबंध है राम जाने, पर वो तुरंत यही बोलती हैं, ‘मुझे क्या कैरेक्टरलेस समझ रखा है?’ तो मैं कह रहा हूँ, बात सिर्फ़ ये इच्छा की नहीं होती कि शारीरिक सुख मिलेगा, मानसिक सुख भी होते हैं सौ तरीके के। और वो सारे-के-सारे सुख प्राकृतिक नहीं, सामाजिक होते हैं। वो सुख ऐसा नहीं है कि समाज आपको नहीं बताता तो भी आपको प्रिय होते, वो सुख आपके मन में डाले गए हैं छवियों की तरह।
उदाहरण के लिए, दो लोग समुद्र के तट पर, एक पुरुष और एक स्त्री समुद्र के तट पर विचरण कर रहे हैं। हाथ में हाथ लेकर के और सामने सूर्यास्त हो रहा है और पीछे से फोटो खींची गई है, सेलूट (12.11unclear) आ रहा है एक। इसको हमारे सामने महासुख की तरह प्रस्तुत करा जाता है और सुख की ये छवि हमारे (दिमाग की ओर संकेत करते हुए) छप जाती है कि मेरे जीवन में भी कोई होगा जिसके साथ मैं समुद्र-तट पर, बीच पर ऐसे सूर्यास्त के समय चलूँगी।
अब इसमें सेक्स कहीं नहीं है पर एक छवि है; और वो छवि बहुत सुख देती है। और वो छवि अगर साकार न हो पा रही हो तो आदमी बहुत कलपता है, फिर कहता है, ‘देखो, मुझे जीवन में ये सुख तो मिला ही नहीं और वो जोड़ा घूम रहा है बीच पर, वो देखो, क्या अपना हाथ में हाथ डालकर मस्त है। और सनसेट हो रहा है और मैं ही अकेली घूम रही हूँ। मैं कैफ़े में अकेली बैठी हूँ, मैं सिनेमा हॉल में अकेली बैठी हूँ। वो देखो, कपल (प्रेमी जोड़ा) बैठा हुआ है।‘ ये सब आपको किसने सिखाया?
एक दिन आप बच्ची थीं, आपको ये सब नहीं पता था, ये सब छवियाँ हैं जो आपके भीतर डाली गई हैं। समाज ने आपको एक सामाजिक स्त्री बना दिया, मनुष्य नहीं रहने दिया। आप एक मनुष्य हैं, आप क्या करेंगी किसी के हाथ में हाथ डालकर, बताइए तो? और हाथ में हाथ डालना ही है तो दुनिया में बेचारे इतने कमज़ोर हैं, कितने तरीकों से उनकी सहायता करी जा सकती है।
छोटे बच्चे हैं, वृद्ध भी हैं, पशु भी हैं, उनके हाथ में हाथ डालिए न। न जाने कितने हैं जो आपके इंतज़ार में खड़े हैं क्योंकि वो बहुत असहाय हैं। पूरी प्रकृति का आज कितना क्षरण है, आप जानती हैं न अच्छे से? आप जाकर के उनको अपने जीवन में क्यों नहीं लाती हैं? आप कहती हैं, ‘एक प्रेज़ेंस चाहिए,’ तो जीवन को किसी बड़े उद्देश्य की प्रेज़ेंस क्यों नहीं देतीं? किसी पुरुष की प्रेज़ेंस ही क्यों चाहिए?
इससे बड़ा दुश्मन किसी स्त्री का नहीं हो सकता, ये जो भाव है — ’आई नीड अ मैन इन माई लाइफ़’ (मुझे अपने जीवन में एक पुरुष चाहिए)। यही वजह है कि जब ब्रह्मचर्य की बात भी आई — जो भी अर्थ रखा समाज ने ब्रह्मचर्य का; समाज ने ब्रह्मचर्य का जो अर्थ रखा वो भी बिल्कुल गलत है, लेकिन जब ब्रह्मचर्य की बात भी आई, सेलिबेसी की — तो उस दिशा में पुरुष ही ज़्यादा गए, क्योंकि पुरुषों के लिए कम-से-कम एक कल्पना संभव थी कि स्त्री के बिना जिया जा सकता है। स्त्रियों को तो समाज ने ये कल्पना भी नहीं करने दी कि पुरुष के बिना जिया जा सकता है। तो ब्रह्मचारणी स्त्री के उदाहरण आपको बहुत कम मिलेंगे, बहुत कम, पुरुषों की अपेक्षा एक-बटा-दस।
स्त्री को ये अनुमति ही नहीं दी गई कि वो ये सोच भी पाए कि पुरुष के बिना जीवन हो सकता है। स्त्री को तो ऐसा कर दिया गया कि तुम्हारी ज़िंदगी में अगर पुरुष नहीं है तो फिर तुम्हारी ज़िंदगी ही कहाँ है, तुम बर्बाद हो। और बीच में तो एक दौर ऐसा था कि तुम्हारे जीवन में अगर पुरुष नहीं है तो मर ही जाओ न, इसी को ‘सती’ कहते हैं। क्योंकि बिना पुरुष के जीना तो वैसे भी व्यर्थ है, तो अब जब पुरुष चला गया, तुम भी मर जाओ। तो अब बिल्कुल स्थूल तरीके से स्त्रियाँ सती तो नहीं होतीं, पर फिर भी वो जो सतीत्व का भाव है वो मन से नहीं निकल रहा है कि अगर पुरुष नहीं है तो मैं क्यों हूँ। हाय! ज़िंदगी कितनी सूनी है, बे-रौनक है, वीरान है, श्मशान है, कैसे?
जीवन में इतना कुछ है करने को, देखने को, चार दिन की ज़िंदगी है, समय वैसे ही इतना कम है, उसको किसी सार्थक उद्देश्य में डालिए न। क्या करेंगी किसी इंसान के पीछे भाग-भागकर, लिपटकर, क्या करना है? क्या करोगे आप, बताओ तो? पैतीस साल के तो हो गए हो और अब क्या करोगे और आप? और बहुत अगर लग ही रहा है कि एक काया जीवन में होनी चाहिए, तो मैंने कहा, ‘कौ-हकना।‘ उसको ले आकर कमरे में खड़ा कर लीजिए कि जे रहा मेरा, ‘साधो रे! ऐसा पुरुष हमारा।’ और एकदम बिलकुल वो पुरुषार्थी है, सोता ही नहीं, खड़ा रहता है वो भी तनकर, दिन-रात कर्तव्य निभाता है अपना। ऐसा पुरुष किसी और को मिलेगा? ऐसी आप सौभाग्यशालिनी हैं।
मैं बार-बार पूछा करता हूँ अपनी भाषा में, ‘जोड़ेबाज़ी के लिए पैदा हुए हो? ये तुम्हें किसने सिखाया? जोड़ी में जूते पाए जाते हैं, तुम्हें किसने सिखाया कि बिना जोड़ा बनाए जीवन नहीं सार्थक होगा? ये तुम्हें किसने सिखाया?’ पर तुम मानते ही नहीं, यहाँ तक कर दिया कि हमने अपने ऊँचे-से-ऊँचे नामों को भी जोड़े में स्थापित कर दिया। हमने उनके जोड़े बना दिए, तो फिर कबीर साहब हमारे गाते हैं —
माया महा ठगनी हम जानी। मंदिर में मूरत बन बैठी, तीरथ में भई पानी।। हरि के भवन भवानी और शिव के यहाँ शिवानी।
उन्होंने कहा, ‘ये जो तुमने शिव और परमात्मा के भी जोड़े बना दिए हैं न, ये माया ही है, “ये माया महाठगनी हम जानी।” कि तुम जोड़ेबाज़ी के बिना मानते ही नहीं हो।‘ मैं नहीं बोल रहा हूँ, जो हमारे उच्चतम संत हुए हैं उन्होंने ये बात बोली है कि तुम अपने अवतारों को भी बिना जोड़े के जीने नहीं देते। जहाँ जोड़ा कुछ भी नहीं होगा, वहाँ भी तुम जोड़ा उठा लाओगे, बना लोगे, कल्पना कर लोगे, कुछ बैठा दोगे।
तो छोटी सी बच्ची होती है तभी उसके मन में बात आ जाती है। वो मंदिर में भी जाती है तो जोड़ा देखती है, वो सिनेमा हॉल में भी जाती है तो (जोड़ा देखती है), तो बताओ मंदिर और सिनेमा हॉल में क्या अंतर हुआ? दोनों ही जगह उसे क्या दिखाई दिए? जोड़े। अब वो क्या करे! घर में भी क्या देख रही है? जोड़ा। बगल में भी क्या देख रही है? जोड़ा। वो जहाँ जाए, उसको जोड़े-ही-जोड़े दिख रहे हैं। जो उच्चतम जगह है हमारी, मंदिर, वहाँ भी जब जोड़ा दिखने लगा, तो वो छोटी बच्ची के लिए अब कोई आशा नहीं बची। वो कहती है, ‘माने, जोड़ा ही सत्य है और मुझे अगर फिर जोड़ा नहीं मिला तो मैं बर्बाद हूँ।‘
मेरा बड़ा धर्म-परायण ब्राह्मण घर था बचपन से, वहाँ सब देवी-देवताओं का रहे। और मैं बहुत छोटा था, चार साल का था, मेरी निष्ठा सबसे ज़्यादा हनुमान जी में। किसी को समझ न आए, मुझे भी नहीं पता था कि मुझे हनुमान जी ही क्यों प्रिय हैं। और मैं बैठकर हनुमान चालीसा पढूँ; मैं चार साल का था तब से पढ़ता था। कम-से-कम चार-पाँच साल मैंने प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ी। एकदम छोटा हूँ, बैठा हूँ, हनुमान चलीसा पढ़ रहा हूँ।
मुझे बहुत बाद में समझ में आया कि हनुमान जी में शायद जो बात मुझे पसंद आती थी वो ये थी कि वो.....(अकेले होने का संकेत करते हुए)। ये जितना हमें दिखाई दिया था कि अकेले हैं, बाद में तो पता चला था कि नहीं, वहाँ भी हमने कुछ जोड़ा बनाया है। पर जितना उस छोटे बच्चे की बुद्धि में आया था, उतना ही आया था कि ये हैं, इतना स्पष्ट नहीं था तब। पर ये मुझे ठीक लगता था।
एक तो अच्छा लगे कि (बलशाली भुजाओं का संकेत करते हुए) और उनकी गदा! हीमैन का ज़माना था, इस गदा से तो हीमैन को भी मारें तो साफ़ हो जाएगा! बड़ा अच्छा लगे मुझे! निस्वार्थी हैं, अपने लिए कुछ नहीं चाहते, कुछ कर भी रहे हैं तो राम के लिए कर रहे हैं। और हम इतने पर भी नहीं रुके कि हम बस जोड़ा बनवा दें, फिर हम वहाँ पूरा कुनबा खड़ा करते हैं, देखा है? वाल्मीकी रामायण में बहुत लोगों का मानना है कि उत्तर कांड जोड़ा गया है; और उत्तर कांड में क्या है?
हमें चैन ही नहीं मिलता जब तक हम पूरा कुनबा न खड़ा कर दें। अब देखिए, उदासी देखिए, कैसे छाई हुई है चेहरे पर! आपको मैंने इतना अच्छा उपाय बता दिया है, बढ़िया आपको कौ-हकना दिया! उसकी वफ़ादारी अनंत है, मजाल है कि वो आपकी आज्ञा के बिना एक इंच भी हिले। ऐसा पुरुष तो किसी भी स्त्री का सपना होता है न, मैं कहूँगी, ‘चल’, तो चलेगा; मैं कहूँगी, ‘रुक’, तो रुकेगा; मैं कहूँगी, ‘खड़ा हो जा,’ खड़ा हो जाएगा, ‘बैठ जा,’ (तो बैठ जाएगा)। ऐसा दिया आपको पुरुष, कौ-हकना, अब क्या उदासी है बताओ? हाँ, ये टेडी बीयर रख लो। बहुत सारी लड़कियाँ होती हैं वो छोटे से ही टेडी बीयर के साथ सोती हैं, टेडी बीयर। ये सारी बातें अध्यात्म के विरुद्ध जाती हैं, अपनी निजता को पाओ, प्रेम दूसरे से चिपकने में नहीं है।
जो दूसरे से चिपक रहा है, वो कभी प्रेम नहीं कर सकता, वो हिंसा है। दूसरे से चिपकना, दूसरे से आसक्ति, दूसरे पर निर्भर हो जाना या दूसरे को अपने ऊपर निर्भर बना लेना, ये सब हिंसा के रूप हैं। अपने आप में संपूर्ण रहिए, अपने आप में पर्याप्त रहिए, उसके बाद जो रिश्ता बनता है, उस रिश्ते में प्रेम की खुशबू होती है। उस रिश्ते में हिंसा नहीं होती, उस रिश्ते में सबकी भलाई होती है। मैं तो सोच रहा था और बोलूँ, देखो, इन्होंने तो जल्दी से हाथ जोड़ लिए! कुछ नहीं हो सकता, चलिए, ठीक है!
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। अभी कुछ महीनों से मैं थोड़ा तनाव से गुज़रा हूँ। मैं थोड़ा आसक्त हो गया था अपनी उम्मीद को लेकर। आगे वाले से जो उम्मीद रहती है, वो उम्मीद कभी पूरी नहीं होती या कभी खत्म नहीं होती है। और मैं अकेला नहीं हूँ ऐसा, मेरे जैसे बहुत हैं। मैं जैसे अभी स्वीमिंग क्लास जाता हूँ, उसमें जो कोच (सिखाने वाला) है वो मुझ पर ध्यान नहीं देते, लेकिन जो लड़कियाँ रहती हैं उनके पास बराबर चले जाएँगे। कोई वुमन है या लेडीज़ है कोच के पास, उसको जान-बूझकर कहीं उसके अंगों को हाथ लगाएँगे।
तो मैंने देखा कि मुझे भी कहीं-न-कहीं वो कामना है कि मैं भी ऐसे कुछ हाथ लगाऊँ। ये इच्छा क्या खत्म होगी या इसका कुछ इलाज है दूसरा? ये समझ में नहीं आ रहा।
आचार्य प्रशांत: इलाज ये है कि ट्रेडमिल पर चढ़ जाओ, बीस मिनट दौड़ो और अपने लिए वहाँ पर टारगेट सेट करके रखो कि पाँच किलोमीटर दौड़ना है और पाँच-सौ किलो कैलॉरी जलानी है। जब हफर-हफर करोगे तो लड़की खुद ही नहीं याद आएगी। ये तो तभी कर सकते हो जब जिम में नाकारा, वेले घूम रहे हो, तभी लड़कियों को देखोगे। जिम में घूमने जाते हो? जो शोल्डर प्रेस मार रहा हो, लेग प्रेस कर रहा है, चेस्ट प्रेस ले रहा है, छाती पर पचास किलो जिसने वज़न ले रखा है, उसको लड़की का अंग कहाँ से दिखाई देगा? या दिखाई देगा? ये तो उसी को दिखाई देगा जो वो खड़ा हो गया है और ऐसे-ऐसे वो बस अपना कर रहा है, ‘मैं स्ट्रेचिंग कर रहा हूँ’ और स्ट्रेचिंग करते हुए वो लड़कियों को देख रहा है।
जिम में काहे के लिए जाते हो? बात सार्थक उद्देश्य की होती है न जीवन में? जिम जाने का उद्देश्य क्या होता है? जिमिंग करना। तो जिमिंग करो न, उसमें लड़की कहाँ से आ गई? स्वीमिंग (तैराकी) करो न, उसमें लड़की कहाँ से आ गई? स्वीमिंग करते हुए लड़की को देखोगे, डूब जाओगे। ट्रेडमिल पर भाग रहे हो — आप तो जिम जाते हो, भागे होगे ट्रेडमिल पर — साँस फूल रही है। और जब भी किसी ने कभी टाइम सेट किया हो कि इतने मिनट भागना है, तो वो अच्छे से जानता है मैं क्या बात बोल रहा हूँ।
और टाइम हमेशा अपनी सामर्थ्य से थोड़े आगे का ही सेट किया जाता है न कि कोई दस मिनट दौड़ता है, तो वो कहता है, ‘मैं आज बारह मिनट का सेट करूँगा।’ और छठे-सातवें मिनट के बाद से अगर स्पीड अच्छी रखी है; छठे-सातवें मिनट के बाद से जो दुर्दशा होनी शुरू होती है कि आप गिन रहे होते हो कि समय बीते, समय बीते। जो बारह मिनट वाले होते हैं वो पंद्रह मिनट सेट करते हैं, पंद्रह मिनट वाले बीस मिनट सेट करते हैं। ये सब करा है कि नहीं करा है? और उसमें तो आदमी के दिमाग में बस एक चीज़ घूम रही होती है — समय, स्पीड, कैलोरी, जो भी आपने सेट करा है। यही जीवन जीने का सूत्र है, सारा ध्यान किस पर लगा दो? काम पर लगा दो।
जिस काम के लिए विवेकानंद कहते थे, ‘वर्ल्ड जिम’। वो कहते थे, ‘ये दुनिया ही एक जिम है, जहाँ तुम आए हो अपनी माँसपेशियाँ मज़बूत करने कष्ट सह-सहकर के।‘ कहते थे, ‘यहाँ हर चीज़ एक कष्ट का स्रोत है।‘ जिम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हें कष्ट नहीं देता। जिम में एक-एक जो चीज़ रखी हुई है, वो तुम्हें कष्ट देने के लिए ही रखी हुई है। कहते थे, ‘वर्ल्ड एक जिम है (दुनिया व्यायामशाला है), यहाँ तुम आए हो कष्ट सह-सहकर बाज़ू बनाने।‘ लड़की देखने थोड़े ही आए हो आप, लड़की देखोगे तो बाज़ू कहाँ से बनेगा? हाँ, लड़की का बाज़ू बन जाएगा। वो तुम्हें नहीं देख रही है, वो अपना वज़न उठा रही है। तुम उसको देखो, कुछ दिनों में उसका बाज़ू इतना मज़बूत हो जाएगा कि थप्पड़ मार देगी, फिर अपना सा मुँह लेकर हम घूमेंगे।
यही होता है दुनिया में, जो अपने काम पर ध्यान देते हैं वो मज़बूत हो जाते है; जो काम पर ध्यान नहीं देते, वो वैसे ही पीछे छूट जाते हैं। ट्रेनर भी ऐसा अपना धंधा गँवाएगा, क्योंकि जिम में ज़्यादा तो लड़के ही जाते हैं। मान लो, लड़के-लड़कियाँ बराबर भी जा रहे हैं, पर अगर ये बात बिल्कुल ज़ाहिर हो गई, सब देखने लग गए कि ये साहब, एक वर्ग पर ज़्यादा ध्यान देता है, एक लिंग पर ज़्यादा ध्यान देता है, तो ऐसे ट्रेनर को कोई हायर करेगा? आपको किसी दूसरे ट्रेनर का विकल्प मिलेगा, आप उधर चले जाओगे न? कहोगे, ‘ये तो लड़कियों पर ध्यान देता है, हम पर ध्यान ही नहीं देता, हमारा पैसा बर्बाद हो रहा इसके साथ।’ तो ऐसे ट्रेनर का भी धंधा डूबेगा, ऐसे स्वीमिंग कोच का भी धंधा डूबेगा। उनको डूबने दो, आप क्यों डूब रहे हो?
इसमें कोई नाइंसाफ़ी की बात थोड़ी है कि मेरा कोच लड़कियों पर ध्यान देता है, मुझ पर नहीं देता है। ऐसे कोच का धंधा चलना नहीं है, कितने दिन चलेगा ऐसे का धंधा? और ऐसा कोच जो वासना के कारण लड़कियों पर ध्यान देता हो, इसका स्कैंडल (कांड) ज़रूर फूटेगा किसी-न-किसी दिन; आए दिन फूटते रहते हैं। कोई-न-कोई लड़की होगी जो ज़रूर शोर मचाएगी, उससे पूरा जिम बंद हो जाएगा कि ये ट्रेनर है और ये लड़कियों को ट्रेनिंग के बहाने परेशान करता है। जिम ही बंद होगा, इसमें आप क्यों अपने आप को फँसा रहे हो? आप वो करो न जो आपको करना है।
ये वर्ल्ड जिम है, जहाँ आए हो आप अपनी मांसपेशियाँ बनाने — कौनसी मांसपेशियाँ? मुक्ति की मांसपेशियाँ, जिससे आपके बंधन टूटेंगे। आपको क्या करना है और बातों में सोचकर? ‘मेरे ऑफ़िस में गॉसिप होती है;’ ऑफ़िस में गॉसिप होती है, तुम्हें पता ही क्यों है? तुम ऑफ़िस क्या करने गए हो? काम करने गए हो। अगर तुम अपने काम में तल्लीन होते, डूबे होते, तन्मय होते, तो तुम्हें उस गॉसिप का?
प्रश्नकर्ता: पता भी नहीं लगता।
आचार्य प्रशांत: पता भी नहीं लगता। तुम्हें पता लग रहा है, इसका मतलब भी यही है कि तुम खुद...
प्रश्नकर्ता: शामिल हो।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बहुत आतुर हो रहे हो उस गॉसिप में शरीक होने को, नहीं तो पता ही क्यों है इन बातों का, हो रहा होगा, हमें क्या पता। मैं इतना ज़्यादा इस ट्रेडमिल में जूझ गया हूँ, मेरे दाएँ-बाएँ क्या हो रहा है मुझे क्या पता! और अब तो ट्रेडमिल आती है, उनमें सामने स्क्रीन लगी होती है, कान में ऐसे तुम दो अपने लगा लो, कुछ सुनना है तो सुन लो, सुनाई भी नहीं पड़ेगा कि बाकी जगह बातें क्या हो रही हैं। आगे स्क्रीन है, उसमें जो देखना है पंद्रह मिनट, बीस मिनट के लिए वो देखने को लगा लो, मतलब क्या है। इसे संगति कहते हैं, तुम चुनो न, तुम्हारी संगति क्या होगी।
ट्रेडमिल का मतलब है अपने आप को कर्म में पूरी तरह से झोंक देना। और सामने स्क्रीन है और यहाँ पर इयरप्लग्स हैं, इसका क्या मतलब है? अपनी संगति में विवेक से फ़ैसला करना। मुझे सब सुनना ही नहीं इधर-उधर का, मैं तय करूँगा कि ये मेरी इंद्रियाँ क्या सुनेंगी और ये मेरी इंद्रियाँ क्या देखेंगी। तो वर्ल्ड जिम है, तुम अपनी ट्रेडमिल चुनो और अपने आप को वहाँ आहुति की तरह झोंक दो, तुम्हें इधर-उधर और कुछ देखने की ज़रूरत नहीं है। कौन लड़की, कौन ट्रेनर, दुनिया-जहान का बवाल, यहाँ तो प्रपंच है चारों ओर, जितना देखोगे उतना फँसोगे। तुम अपने काम पर ध्यान दो।
प्रश्नकर्ता: सर, एक बात और है। जैसे जो मेरे कुछ परिचय के फीमेल्स हैं, उनको मैंने आपकी किताबें दी और जो फ्री वाला गीता सेशन था वो भी रजिस्टर करवाया, लेकिन उनका ऐसा कहना है कि ये सब चीज़ें व्यावहारिक नहीं है, या ज़्यादातर व्यावहारिक है रेस्टोरेंट जाना, रिसोर्ट जाना या घूमने जाना।
आचार्य प्रशांत: वो तो मैं भी जाता हूँ, इसमें व्यावहारिक-अव्यावहारिक की क्या बात है?
प्रश्नकर्ता: किताबें देना, फूल देना, जैसे आपने कहा था कि जो आपका हित चिंतक होगा वो आपको फूल की जगह, गुलाब की जगह, बुक्स देगा, तो वो सब चीज़ें उनको समझ में नहीं आतीं।
आचार्य प्रशांत: नहीं समझ में आती तो आप क्यों परेशान हो? एक मशीन काम नहीं कर रही है, दूसरी मशीन पर काम करो, या ये बोलोगे कि इस जिम की ये मशीन काम नहीं करती है तो नहीं करूँगा? आपको चेस्ट की एक्सरसाइज़ करनी है, आपको लेग्स ही करनी है, वो एक नहीं, चार मशीनों पर चार अलग-अलग तरीके से हो सकती है, आप कर लो। और कई बार तो जब कोई मशीन नहीं होती है, आप घर में हो, तो भी हो जाता है, फ्री-वेट ट्रेनिंग भी होती है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन सर, अगर वो मशीन परमानेंट चिपक गई है आपके साथ तो?
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं चिपकता, आज क्या समझाया है?
प्रश्नकर्ता: चलाने वाला ‘मैं’।
आचार्य प्रशांत: ये इन्होंने बात कौन-सी करी है अभी-अभी?
प्रश्नकर्ता: बाल-वैरागी।
आचार्य प्रशांत: बाल-वैरागी वाली बात करी है कि बाहर वाले ने आगे पकड़ लिया है। कोई नहीं चिपकता, तुम चिपकते हो। ये ऐसी सी बात है, ‘अरे! मैं क्या करूँ, ट्रेडमिल मुझे दौड़ा रही है।‘ अच्छा, बटन किसके हाथ में है? ट्रेडमिल का बटन तुम्हारे हाथ में है, या तुम्हारा बटन ट्रेडमिल के हाथ में है?
प्रश्नकर्ता: ट्रेडमिल का बटन अपने हाथ में है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो दबाओ न, ट्रेडमिल ने क्या किया है? जो करा है तुमने करा है, क्योंकि एकमेव कर्ता अहंकार होता है। जगत कर्ता नहीं होता, अहंकार कर्ता होता है।
प्रश्नकर्ता: आपने एक बात बोली थी, विवाह, जो लीगली (कानूनी) चिपक जाता है आदमी, वो उससे निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है।
आचार्य प्रशांत: मुश्किल तो सभी कुछ है, असंभव कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता: लीगली?
आचार्य प्रशांत: बोला तो, मुश्किल तो सभी कुछ है, ये गली कि वो गली, लीगली, कि इललीगली, सब, क्या लीगली; क्या बोल रहे हो, विवाह कर लिया है?
प्रश्नकर्ता: गलत विवाह।
आचार्य प्रशांत: तो वो जानो तुम, मैं नहीं जानता। यहाँ बोल रहे हैं, ‘गलत विवाह कर लिया है,‘ घर जाकर कहेंगे, ‘गलत गुरु कर लिया है।‘ अब ये तुम, ये तो इस पर मेरी कोई टिप्पणी नहीं है।