प्रश्नकर्ता: हलो सर, मेरा क्वेश्चन (सवाल) यह था, कि अच्छे लड़के क्यों नहीं मिलते। जिससे भी बात करी जाती है, ज़्यादातर यही होता है कि अट्रैक्शन (आकर्षण) की वजह से होती है, तो सीधा-सीधा दिख जाता है कि शरीर का मामला है। तो पता चल जाता है कि इस बॉडी (शरीर) से ही रिलेशन (रिश्ता) है। और कोई डेप्थ (गहराई) नहीं होती वहाँ, सिर्फ़ बॉडी (शरीर) चाहिए होता है।
आचार्य प्रशांत: देखो! दोनों बातें होती हैं, ध्यान से सुनिएगा, कोई व्यक्तिगत तौर पर नहीं है, सबके लिए है। ये आमतौर पर लड़कियों और महिलाओं की ओर से ही ज़्यादा आता है कि जितने पुरुष हैं, लड़के हैं, ये अच्छे होते नहीं, ये सम्बन्धों में सिर्फ़ शरीर देखते हैं। ये हममें सिर्फ़ बॉडी (शरीर) तलाशते रहते हैं, इन्हें और कुछ नहीं चाहिए रिलेशनशिप (रिश्ता) में, सिर्फ़ सेक्स (सम्भोग) चाहिए। इस तरह की बातें आती हैं, बहुत बार आती हैं। ये बात ठीक भी है लेकिन इस बात के दो पहलू हैं। एक बढ़िया सम्बन्ध में दो लोग होते हैं न, दो पक्ष होते हैं हमेशा, तो दोनों तरफ़ से मामला ठीक होना चाहिए। बिलकुल ऐसे लड़के होने चाहिए जो कि सामने वाले को, माने लड़की को सिर्फ़ शरीर की तरह न देखें, कि एक बॉडी (शरीर) चली आ रही है और मुझे उस बॉडी (शरीर) का इस्तेमाल करना है। बिलकुल ये ज़रूरी है कि लड़के ऐसे हों। साथ-ही-साथ ये भी ज़रूरी है कि लड़कियाँ भी ऐसी हों जिनके पास पूँजी के तौर पर, ऐसट (सम्पत्ति) के तौर पर, देह से आगे भी तो कुछ और हो। अब आप सोचो कि अगर हमारा समाज ऐसा है और शिक्षा ऐसी है और परवरिश ऐसी है कि लड़की को सिखाया ही यही जा रहा है कि तुम शरीर ही हो, तुम शरीर ही हो, और शरीर ही तुम्हारा ऐसट भी है, शरीर ही तुम्हारा अस्त्र भी है, वेपन (शस्त्र) है और शरीर का ही सबसे ज़्यादा ख़याल करो और लगातार ऐसे ही देखते रहो 'आई एम द़ बॉडी' (मैं शरीर हूँ), तो अगर वो कभी किसी रिश्ते में जाएगी तो वो उस रिश्ते में सामने क्या रखेगी। शरीर ही तो रखेगी, उस बेचारी को बचपन से कुछ भी और होने की, अपनी कोई और पहचान विकसित करने की न शिक्षा दी गयी न छूट दी गयी।
तो ज़्यादातर लड़कियाँ ऐसी बन भी जाती हैं कि उनके पास एक रिश्ते में शरीर के अलावा कुछ होता नहीं। एक लड़का अगर कहे कि मुझे ढंग की बातें करनी हैं चार और लड़की के पास वो बातें करने का ज्ञान ही न हो, तो बताओ लड़का क्या करेगा फिर! वो लड़की है और वो अपनेआप को बिलकुल सुन्दरी, कामिनी, सेक्सी (कामुक) बनाकर बैठी हुई है, बिलकुल ठीक! और डेट (मुलाकात) पर वो आकर के बैठ गयी है कहीं पर, मान लो किसी कैफ़े में, वो वहाँ कुर्सी पर बैठ गयी है।
देखो, मुझे मालूम है आप सब फ़ेम़िऩिस्ट (नारीवादी) होंगे, यहाँ पर मुझ पर आक्रमण मत करने लग जाना, ठीक है। मैं जो बात बोल रहा हूँ उस को थोड़ा-सा निष्पक्ष होकर के सुन लो। अब वो कैफ़े में आकर के बैठ गयी है, ठीक है। डेट का मौका है, अपना मिले हैं शाम को सात बजे, वो आकर के बैठ गयी है। बिलकुल मान लिया, ज़्यादातर लड़के ज़लील होते हैं, एकदम निरे जानवर हैं, जाते ही हैं मान लो डेट पर सेक्स के लिए, ठीक है। पर एक लड़का, कल्पना कर लो कि ऐसा नहीं है, एक लड़का ऐसा नहीं है। (श्रोतागण हँसते हैं) ऐसा नहीं है कि वो नपुंसक है, सेक्स भी कर लेगा, लेकिन वो ये नहीं कहता कि मैं सिर्फ़ सेक्स ही करता हूँ। ठीक है? अब वो भी डेट पर गया है और वो जाकर के कुर्सी पर बैठ जाता है।
लड़की के पास है क्या जो उस रिश्ते में वो ला सके? वो लड़की कह रही है, 'मेरे पास रिश्ते में लाने के लिए सिर्फ़ मेरी ज़ुल्फें हैं, मेरा चेहरा देखो, अभी-अभी पार्लर से निकला है, मेरे कपड़े देखो, और मैं ऐसे अपनेआप को मेंटेन (रख-रखाव) करके और ग्रूम (सजना) कर के आयी हूँ, यही है मेरे पास।‘अब लड़का चाहे भी तो उस लड़की से उसको क्या मिलेगा? बताओ तो सही न। लड़का कहे कि मुझे अभी बात करनी है, जियो-पोलिटिकल स्ट्रेटजी (भू-राजनीतिक रणनीति) पर, और लड़की इधर-उधर देख रही है, काँव-काँव करने लग गयी है, क्या अब होगा?
और इसमें मैं कह रहा हूँ लड़की की गलती नहीं है, क्योंकि बहुतों को बुरा लगेगा।मैं कह रहा हूँ कि उसको बना ऐसा दिया गया है। क्योंकि अगर उसको भी बताया जाता कि आप बॉडी (शरीर) बाद में हैं, आप कॉनशिअसनेस (चेतना) पहले हैं, जेंडर (लिंग) बहुत बाद में आता है, चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री दोनों के लिए पहले कॉनशिअसनेस (चेतना) आती है लेकिन ये बात उसको बतायी नहीं गयी। आपका मीडिया, आपका टी.वी, आपके ये सब जो शादी-ब्याह के उत्सव होते हैं, उसमें लड़की को क्या बना दिया जाता है? बॉडी (शरीर) ही तो बना दिया जाता है न पूरे तऱीके से?तो वो बॉडी (शरीर) बनकर डेट पर आ गयी, और वो कह रहा है नहीं मुझे तो वो प्रियम्बल ऑफ इंडिया (भारत की प्रस्तावना) डिस्कस (चर्चा) करना है और उसको प्रियम्बल (प्रस्तावना) की स्पेलिंग (वर्तनी) नहीं पता।
मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि सारी लड़कियाँ ऐसी होती हैं, मैं फिर समस्या के एक पक्ष की ओर ध्यान दे रहा हूँ क्योंकि जो समस्या का दूसरा पक्ष है, वो तो हम सब जानते ही हैं; जानते ही नहीं, हम सहमत ही हो चुके हैं कि लड़के गलीच होते हैं। तो उस मुद्दे को तो हमने सुलटा दिया। उसपर आगे ज़्यादा बात करने की ज़रूरत नहीं है, लड़का हवासी है, बात ख़तम! ठीक है न?(श्रोतागण हँसते हैं)तो हम लड़कों की बात आगे नहीं करेंगे, हम लड़कियों की बात करना चाहते हैं। लड़का हवसी है लेकिन लड़की के पास क्या है उसकी हवसपूर्ति के सामान से ज़्यादा, ये भी तो बताओ।
वो हवसी है और इसके पास हवस पूरी करने की सामग्री है, तो इस आधार पर तो दोनों का रिश्ता बनता है। यही होता है कि नहीं, बोलो। हर मामले में ऐसा नहीं होता, मुझे एक्सेप्शन्स (अपवाद) मत गिनाने लगना। लोग आते हैं, कहते हैं, 'आप जो बात बोल रहे हैं न, वो सब पर लागू नहीं होती।' अरे ! सब पर तो कुछ भी लागू नहीं होता। वो कहते हैं, ‘आपकी बात हज़ार में नौ-सौ-निन्यानवे लोगों पर लागू होती है लेकिन सब पर नहीं होती।‘ किस पर नहीं होती? ‘मुझ पर नहीं होती।‘ हर व्यक्ति कहता है, ‘नहीं, आपकी बात जनरली (आमतौर पर) सही है, बस मुझ पर नहीं लागू होती।‘ क्योंकि ये मानना कि मुझपर भी लागू होती है तकलीफ़देह होता है न। इगो (अहंकार) को बड़ी चोट लगती है मानने से कि जो बात कही जा रही है, साहब, सब पर लागू होती है। और अगर कुछ होते होंगे अपवाद तो होते होंगे, अपवादों का क्या करना है, एक्सेप्शन्स (अपवादों) का क्या करना है। लेट्स टॉक अबाउट द़ जेनरल प्रिंसीपल एण्ड द़ जेनरल सिचुएशन (सामान्य नियम और सामान्य स्थिति पर बात करते हैं)।
तो हुआ क्या है — ज़्यादातर — कि, जैसा हम जानते हैं कि पेट्रिआर्की (पितृसत्ता) में होता है, मेल (पुरुष) को बना दिया गया है प्रोवाइडर (प्रदाता) और फ़ीमेल (महिला) को बना दिया गया है फ़ैमिली रेज़र (परिवार को बढ़ाने वाली)। और जब आपको फ़ैमिली रेज़र होना होता है न तो वो काम ज़्यादातर बॉडीली (शारीरिक) ही होता है। फ़ैमिली रेज़ करने का क्या मतलब होता है, सोच के देखो न! वहाँ पर कोई बहुत बड़ा अनुसन्धान तो करना नहीं होता, न बहुत बड़ी रिसर्च (खोज) करनी होती है, न वहाँ पर तुमको किसी लैब (प्रयोगशाला) में बहुत भयानक प्रयोग करने होते हैं। क्या करना होता है? फ़ैमिली रेज़ करने का मतलब होता है कि आप किसी घर में आओगे अपने पिता का घर छोड़कर, पहली बात। क्यों छोड़ के आते हो, मालूम नहीं। किसी और के घर में आओगे। वहाँ सेक्स होगा, फिर प्रेगनेंसी (गर्भ) होगी, फिर बच्चा होगा, फिर बच्चे को आप फिज़ीकल नरिशमेन्ट (शारीरिक पोषण) दोगे, ठीक है न। और उसके बाद बच्चे, वो इतना-सा बच्चा होता है, उसको बड़ा करने में बड़े साल लग जाते हैं। और आप ये ही करते रहोगे। इस पूरे काम में कितना हाई आईक्यू (अधिक बौद्धिक क्षमता) चाहिए, बताओ ज़रा। चाहिए है क्या?
तो जैसे कि इतिहास और समाज ने साज़िश करी है, स्त्री के दिमाग को कुंठित रखने की। उसको जो काम दे दिया गया है, उसमें बौद्धिक, तार्किक, आध्यात्मिक क्षमता की बहुत कम ज़रुरत है। बताओ न। आप किसी के घर में आते हो और आपका काम ये है कि किचन (रसोई) ठीक रहे, बेडरूम (शयनकक्ष) और ड्राइंग रूम (बैठक) ठीक रहे, सास-ससुर प्रसन्न रहे, कटलरी (छुरी-काँटे) ठीक रहे। ये आपको काम दिया गया है, ये काम करने के लिए कितना आईक्यू चाहिए?और आईक्यू माने जो आपकी बौद्धिक क्षमता होती है, वो भी धार की तरह होती है, वो घिसने से बढ़ती है। जब उसका इस्तेमाल नहीं होता तो बौद्धिकता फिर कुंठित हो जाती है। धार पैनी नहीं रह जाती। समझ में आ रही है बात?
फिर यही जो स्त्री है जिसकी बौद्धिकता विकसित नहीं होने दी गयी, ये एक बेटी को जन्म देती है। अगर उसने उसकी फीटिसाइड (भ्रूण हत्या) नहीं कर दी। बहुत बार तो ऐसा होगा कि जन्म ही नहीं देगी, वो मार ही देगी उसको। पेट्रिआर्की , आपको क्या लगता है कि पेट्रिआर्क (पुरुष) चलाता है? नहीं, पेट्रिआर्की औरतें चलाती हैं सबसे ज़्यादा। पेट्रिआर्की चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाओं की रही है। तो अब वो लड़की पैदा कर दी, वो लड़की भी देखती है कि क्या है, माँ की स्थिति क्या है और माँ की ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं। वो कहती है, ‘यही तो है, माँ शो-पीस (दिखावटी वस्तु) है।‘ तो लड़की भी अपनेआप को शो-पीस बना लेती है।
ठीक है, मैं बिलकुल मान रहा हूँ कि दिल्ली और बम्बई के लिबरल कॉलेजेज़ (उदारवादी धारा के शिक्षण संस्थानों) में अब ऐसा नहीं होता लेकिन मैं पंचानबे प्रतिशत भारत की बात कर रहा हूँ। ठीक है। आप यहाँ पर कैंपस में कहें कि हमारे यहाँ तो वैसा माहौल नहीं है। हमारे यहाँ तो जो जेंडर इक्वालिटि (लैंगिक समानता) है, वो इंटेलेक्चुअल फील्ड (बौद्धिक क्षेत्र) में भी है तो मैं बात आपकी मान लूँगा, पर क्या शेष भारत में भी ऐसा है? मैं जो साधारण, सामान्य, जनरल स्थिति है, मैं उसकी बात कर रहा हूँ।
तो वो लड़की ले-देकर बेचारी बस मांस का एक पुलिन्दा बनकर रह जाती है और वो कहती है, ‘बस यही है मेरे पास, बॉडी । बस यही है मेरे पास, बॉडी।‘ जब वो कहती है, ‘मेरे पास यही है – बॉडी’ तो जो पुरुष वर्ग होता है, उसको और अधिकार मिल जाता है ये कहने का कि लड़कियों के पास तो और कुछ होता ही नहीं बॉडी के अलावा। ये तो पागल होती हैं! ये सुना नहीं है? ये पितृसत्ता का, पेट्रिआर्की का पसन्दीदा तर्क है, क्या, ‘इनके, महिलाओं के बुद्धि तो होती ही नहीं, इनके ज़रा कम बुद्धि होती है, दिमाग इनका कम चलता है, ये भावनाओं पर चलती हैं। इनकी बुद्धि नहीं चलती।‘ ये सुना नहीं है? और ये सब करने की उनको ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) किसने दी है, खुद पेट्रिआर्की ने। तो वो लड़की ऐसी ही बन जाती है।
अब, लेकिन उसको भी किसी-न-किसी तरीक़े से पावर (ताक़त) तो चाहिए न, पावर की भूख तो हर इंसान में होती है। पावर या तो आपको ज्ञान से मिल सकता है या आपकी क़ाबिलियत से मिल सकता है, है न? आपने तरीक़े-तरीक़े से अपने जो गुण, सद्गुण विकसित करे हैं, उनसे मिल सकता है। और अगर आपके पास ज्ञान और क़ाबिलियत विकसित करने का मौका ही नहीं आया, आपरच्यूनिटीज़ (अवसर) ही नहीं आयीं, तो फिर आप पावर कैसे पाना चाहते हैं, आप कहते हैं – ‘मैं इस बॉडी को वेपनाइज़ (शस्त्रीकरण) करूँगा आई विल यूज़ माई बॉडी एज़ अ वेपन (मैं अपने शरीर को एक हथियार के रूप में प्रयोग करूँगा)’, और वही महिलाएँ कर रही हैं। ये सब जिसको आप बोलते हो वलगैरिटी (अश्लीलता) वगैरह, ये क्या है, इट्स अ सोश़ल फिनॉमिना इन व्हिच़ द़ वूमेन इज़ कॉम्पनसेटिंग फॉर ह़र लैक आफ़ पावर बाइ वेपनाइज़िंग हर बॉडी (यह एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें महिला अपने शरीर को हथियार बनाकर अपनी ताकत की कमी की भरपाई कर रही है)। वो कह रही है – ‘मेरे पास और तो कुछ तुमने दिया नहीं, न मेरे पास इकोनॉमिक आपरच्यूनिटीज़ (आर्थिक अवसर) हैं’, दुनिया की तीन प्रतिशत वेल्थ (संपत्ति) है बस महिलाओं के पास, सोच के देखो। दुनिया की तुम पार्लियामेंट्स (संसद) देख लो, वहाँ देखो कि व़िमेन रिप्रेज़ेनटेशन (महिला प्रतिनिधित्व) कितना है। या ये देख लो कि जितने सीईओज़ हैं दुनियाभर में, उसमें महिलाएँ कितनी हैं।
तो उन्हें और कुछ तो मिलता नहीं, तो वो पावर कहाँ से लाएँ। वो कहती हैं, ‘हम एक जगह से पावर लाएँगे, बॉडी से पावर लाएँगे।‘ जब वो बॉडी से पावर लाती हैं तो वो और ज़्यादा बॉडी आईडेंटिफ़ाइड () बन जाती हैं। तो फिर पुरुषों को और कहने का हक़ मिल जाता है कि इसमें है क्या, शरीर ही तो है तो हम इसके शरीर को भोगेंगे। वो और हवसी हो जाते हैं। तो ये मिला-जुला कर दोनों ही पक्षों के लिए एक बड़ी ख़राब स्थिति रहती है। महिला और ज़्यादा, और ज़्यादा बस मांस का लोथरा बनती जा रही है, सेक्सी मांस, ठीक है! लेकिन फिर भी मांस तो मांस है, भले ही सेक्सी होगा। और पुरुष और ज़्यादा, और ज़्यादा हवसी जानवर बनता जा रहा है। इसमें दोनों में से किसी को कोई लाभ हो रहा है? दोनों में से किसी को कुछ नहीं मिल रहा।
अगर आप चाहती हैं कि अच्छे लड़के मिलें तो वैसे गुण विकसित करिए जो अच्छे लोगों की अच्छाई से रिलेट (सम्बद्ध) कर सकें। देखो, सामने जो लड़का होता है न, आप जब उससे रिश्ता बनाते हो, डेटिंग वगैरह करते हो, एक जो लड़का होता है, वो कई चीज़ें होता है। एकदम अपने न्यूनतम, लोएस्ट (निम्नतम) स्थान पर वो एक जानवर होता है। और अपने हाइएस्ट (उच्चतम) स्थान पर वो एक थिंकर (विचारक) होता है, वो एक रिअलाइज़र (आत्मस्थ) होता है, वो एक फ़्रीडम फ़ाइटर (स्वतंत्रता सेनानी) होता है, वो सब कुछ होता है। अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम उसकी हस्ती के कौनसे बिन्दु से सम्बन्ध बनाते हैं। समझ में आ रही है न बात? जैसे, एक ट्रेन (रेलगाड़ी) होती है, उसमें हर तरह के डब्बे होते हैं, ये तो अब आपके टिकट पर निर्भर करता है कि आप कौनसे डब्बे में बैठोगे। वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति कई व्यक्ति होता है, एक इंसान कई इंसान होता है। वही इंसान जो हो सकता है कि कॉलेज में प्रोफेसर बनकर के लिबर्टी (स्वतंत्रता), इक्वैलिटि (समानता), फ़्रैटर्निटी (भाईचारा) के लेसन (पाठ) देता हो, वो घर में जाकर के औप्रेसर (उत्पीड़क) बन जाता हो। ऐसा हो सकता है न, हो सकता है न?
तो एक बन्दा कई बन्दा होता है। उसके पर्सनैलिटी (व्यक्तित्व) में, उसके एग्ज़िस्टेन्स (अस्तित्व) में कई लेयर्स (परतें) होती हैं। तो ये ज़िम्मेदारी कुछ हद़ तक आपकी भी है, एज़ अ वूम़न (एक महिला के रूप में) कि आपके सामने जो पुरुष आ रहा है, आप उसके एग्ज़िस्टेन्स (अस्तित्व) के राइट (सही) प्वाइंट (बिन्दु) को एक्टिवेट (सक्रिय) करें। आप उसके सामने अगर बस सेक्सी डॉल (कामुक गुड़िया) बन कर जाओगे तो आपने उसके कौनसे प्वाइंट को एक्टिवेट कर दिया, जो उसका सेक्शुअल सेंटर है बस उसको एक्टिवेट किया, आपने और क्या करा। बिलकुल हो सकता है कि वो बंदा एक थिंकर था, एक फ़िलॉसफ़र था, हो सकता है कि नहीं? पर अब आप उसके सामने सिर्फ़ और सिर्फ़ डॉल बनके जाओगे, तो वो आपसे फ़िलॉसफ़ी (दर्शन) की बात थोड़े ही कर पाएगा, बेचारा। थोड़ी-सी सहनुभूति उसके लिए भी, पशु के लिए भी। उसके पास हो सकता है बहुत कुछ हो, लेकिन वो आपसे कैसे सम्बन्ध बनाए अगर आप कह रहे हो कि मेरे पास सिर्फ़ बॉडी है, है न?
तो ये तो हम देखो बहुत पहले मान चुके थे कि वो जो पक्ष है वो तो एकदम सड़ा-गला, मरा, निकृष्ट है, उसको तो जितनी गालियाँ देनी है, दे दो। है न? उसको तो हमने बरख़ास्त कर ही दिया है, बोलकर कि तू हवसी जानवर है, द मेल इज़ द एनिमल (नर जानवर है)। हट! अब हम ये करना चाहते हैं कि थोड़ी ज़िम्मेदारी हम महिलाओं पर भी डालें। रियलाइज़ डैट द़ पर्पस ऑफ़ योर लाइफ़ इज़ द़ अपलिफ्टमेंट ऑफ़ कॉनश्यस्नस (समझें कि आपके जीवन का उद्देश्य चेतना का उत्थान है)। द़ बॉडी इज़ नॉट योर रिएलीटी (शरीर आपकी वास्तविकता नहीं है)। आप शरीर होकर के, शरीर बनकर के जीने के लिए, शरीर दिखाकर के जीने के लिए और शरीर की रोटी खाने के लिए नहीं पैदा हुए हो। आप ठीक उसी उद्देश्य के लिए पैदा हुए हो जिस उद्देश्य के लिए कोई पुरुष पैदा होता है। है न। और क्या उद्देश्य है आपके जीवन का? हाँ, जानना, समझना, आगे बढ़ना और अंततः हर तरह के बन्धन से मुक्त हो जाना। वही स्त्री के जीवन का भी उद्देश्य है। जब वैसा हो जाएगा तो फिर स्त्री और पुरुष दोनों में स्वस्थ सम्बन्ध बन पाएँगे। समझ में आ रही है?