प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। पिछले सात-आठ महीने से आपको सुन रहा हूँ। कई बार बहुत ज़्यादा सुन लेता हूँ और इतना सुन लेता हूँ कि फिर बिलकुल नहीं सुनता। और उसके पीछे ये है कि आपको सुनने से मेरे चित्त में जो चल रहा होता है उसकी बेचैनी बढ़ जाती है, ऐसा लगता है कि दिमाग में विस्फोट हो जाएगा। और आगे का रास्ता मुझे कुछ दिखाई नहीं देता है, आगे का रास्ता बिलकुल धुँधला है। शायद, सात-आठ साल पहले आपका वीडिओ मैंने देख लिया होता तो मेरी ज़िन्दगी कुछ और होती। अभी मैं जो काम कर रहा हूँ वो पिछले चौदह साल से कर रहा हूँ, छत्तीस साल मेरी उम्र है।
तो पहले कुछ साल सात-आठ साल जब तक कमीटमेंट नहीं बने थे, पिछले चार-पाँच सालों से मैं काम और कम्पनियाँ ऐसे बदल रहा हूँ जैसे कपड़े बदलते हैं क्योंकि मैं वहाँ से ऊब जाता हूँ और इतना ऊब जाता हूँ कि वो जगह ही छोड़ देता हूँ। मुझे स्पष्टता नहीं या रही, अभी जो काम कर रहा हूँ उसमें इतनी दिक्कत है कि मैं उसको एक दिन भी नहीं करना चाहता लेकिन ‘कमीटमेंट’ इस तरह से है कि अगर मैंने काम छोड़ दिया तो मेरी और बुरी स्थिति हो सकती है। तो सही चुनाव रास्ते का मेरा हो नहीं पा रहा है। इसपर मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: आपका रास्ता धुँधला नहीं है। आपको आगे का रास्ता अपनी शर्तों पर चाहिए, ये है समस्या। सच तो बहुत सीधा-साधा होता है, एकदम मासूम। उसमें कोई जटिलता, कॉम्प्लिकेशन होती नहीं है जितना आप कह रहे हैं। वहाँ तो बात बिलकुल सीधी होती है। आप कह रहे हैं, आप बहुत ज़्यादा सुन लेते हैं तो ऐसा लगता है भीतर विस्फोट हो जाएगा। सच में तो एक सरलता होती है उसमें ये विस्फोट वगैरह कहाँ से आया? ये विस्फोट वगैरह जानते हैं कहाँ से आता है? आपने एक मोह या स्वार्थ बैठा लिया होता है अपनी वर्तमान स्थिति के साथ, उसको आप बदलने देना नहीं चाहते। फिर पता चलता है कि अगर सही जीवन जीना है तो इसको बदलना पड़ेगा। यहाँ होता है फिर संघर्ष, घर्षण, जिसको आप विस्फोट वगैरह कह रहे हैं। तो दोनों को साथ लेकर कैसे चल सकते हो? अगर बात सुन रहे हो और बात समझ में आ रही है तो उन शर्तों का पालन कैसे कर सकते हो जो सच्चाई के रास्ते से रोकती है?
आप कह रहे हो, ‘देखो, मुझे जाना तो सही राह है लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं।’ अब वो शर्तें हो भी नहीं हैं पूरी तो रास्ते पर आगे भी नहीं बढ़ पा रहे। आगे भी नहीं बढ़ पा रहे लेकिन जान तो गये हो कि वही सही रास्ता है तो पीछे भी नहीं या पा रहे अटक गये हो। ये शर्तें इतनी ज़रूरी कैसे हो गयी? क्यों रखी हुई हैं शर्तें? हटाओ न शर्तें, नहीं पूरी करनी शर्तें। नहीं करते। सही चीज़ से बड़ी चीज़ ये शर्तें कैसे हो गयी? शर्तें आप समझ रहे हैं?
‘नहीं, मैं सही जॉब कर लूँगा बशर्ते उसमें मुझे दो लाख रुपये म हीना मिले।’ सही जॉब तो मैं करना चाहता हूँ लेकिन दो लाख रुपये महिना वाली मिल नहीं रही इसलिए नहीं करूँगा। साहब! मैं बिलकुल सच्चा साधक हूँ और सात्विक नौकरी करना चाहता हूँ बस वो दो लाख चाहिए। और दो लाख मिल नहीं रहे तो अब भीतर हाहाकार मचा हुआ है — ‘क्या करें, क्या करें।’ ये दो लाख की शर्त क्यों रखी? सबकुछ तो एक साथ नहीं मिल जाएगा न। दोनों हाथ में मिठाई और सिर कड़ाही में। और ये सबकी समस्या है।
आचार्य जी बातें तो बहुत अच्छी करते हैं बस उनकी बातों को मानने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं जो हम नहीं करेंगे। और फिर कहेंगे, ‘विस्फोट हो रहा है जाने जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया है। डायनामाइट लगा आया आपके घर में। सीधी-सच्ची-सरल बात है न उसमें कोई उलझन, न दाँव, न पेंच। खर्चों का पहाड़ मत खड़ा किया करो। आज ये संस्था काम कर पा रही है, मैं आपके सामने बैठा हूँ तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैंने खर्चें नहीं खड़े किये। आपको दुनिया नहीं गुलाम बनाती, आपको खर्चे गुलाम बनाते हैं। और खासतौर पर वो खर्चे तो बिलकुल मत करो जो आपको भविष्य के लिए भी बाँध दें — इएमआइ वगैरह।
‘आचार्य जी, मैं संस्था में आना चाहता हूँ लेकिन!’ क्या लेकिन? ‘पिच्चासी हज़ार की इएमआइ है।’ अच्छा ठीक है कितने दिन की? बीस साल की। ठीक है चुका लो, चुका लो बीस साल बाद मिलेंगे। भारत में इसीलिए स्थिति को शान्त करने के लिए पुनर्जन्म वगैरह का सिद्धान्त लगाया गया। बोले सीधे ही बोल देंगे कि अब कुछ नहीं हो सकता तो बच्चू का दिल डूब जाएगा। तो उससे बोलते हैं — ‘अगला जन्म, अगला जन्म। पूरा ही अगला जन्म बाकी है।’ अरे पिच्चासी हज़ार इएमआइ वाली जो चीज़ खरीदी है उस चीज़ को ही बेच दो मुक्त हो जाओगे।
कोई बहुत बड़ी कश्मकश होती नहीं है आपकी ज़िन्दगी में क्योंकि बहुत बड़ा कुछ होता ही नहीं है ज़िन्दगी में। एक ही चीज़ होती है — ‘पैसा फँस रहा है, पैसा फँस रहा है, पैसा फँस रहा है।’ वो पैसों के फँसने को हम फिर कई तरीकों का नाम दे देते हैं। कभी कहते हैं, ‘प्यार फँस रहा है। पैसा ही फँस रहा होता है और कुछ नहीं फँस रहा।’ कह रहे हैं, ‘फ़लाना छोड़ गया या फ़लानी बेवफाई कर गयी।’ वो कुछ भी नहीं था वो पैसा था। उस एक चीज़ के अलावा कुछ नहीं होता, पैसा ही सबकुछ है संसार में। क्यों उसे अपना बन्धन बनाते हो जब जानते हो संसार माने सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा?
घर में महँगा हाथी कभी मत खड़ा करो। पहली बात तो उसे लाने में बहुत पैसा खर्च करोगे और फिर पालने में बहुत खर्च करोगे। इशारा समझ जाओ। हाइ-मेंटेनेंस माल से बिलकुल बचकर। नहीं तो फिर यही होगा। आइआइएम का नहीं कहता पर कम-से-कम आइआइटी में जो लोग आते हैं उसमें से बहुत सारे ऐसे होते हैं लड़के क्योंकि कम उम्र में वहाँ जाते हैं जो बहुत लालची नहीं होते। वो बस एक बात होती है कि बारहवीं के बाद वहाँ जाना चाहिए तो वो भी अपना लगकर मेहनत-वेहनत करके वहाँ आ गये। ज़्यादा बात शायद प्रतिष्ठा की होती है कि हम भी होंगे तो हमारा नाम, और पहुँच जाते हैं। और अब तो बदल गया है लेकिन आज से पच्चीस साल पहले सब ऐसे ही होते थे कि घिसी हुई चप्पल में और दो शॉर्ट्स हैं और गन्दी टीशर्ट है और उसमें अपना घूम रहे हैं और चार साल ऐसे ही बिता दिये। नहीं चाहिए होता था किसी को पैसा।
आज अभी हालत ये है कोविड आया, पिछले डेढ़ साल से ये मामला रहा उनमें से कइयों की हालत बहुत खराब। जो ‘आंतरप्रेन्योर’ हैं, जिनके अपने बिजनेस हैं। ‘बिजनेसेस’ पर काफ़ी असर पड़ा, उनकी हालत बहुत खराब है। मेरे पास लोग आते ही तब हैं जब उनकी हालत खराब होती है तो जिनसे दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह साल से नहीं मिला था उन्हें भी याद आ गयी वो मिलने आ गये। मैं पूछता, ‘क्या है? तकलीफ़ क्या है?’ कहते, ‘ये है, वो है।’ क्या हो रहा है? बोल रहे, ‘अब इतना ही हो पा रहा है।’ मैंने कहा, ‘ये तो बहुत है, जो तुम बता रहे हो। इसको तुम इतना ही क्यों कह रहे हो?’ कहते, ‘यार, छह लाख, आठ लाख का महीने का तो बँधा ही हुआ है’। छह लाख, आठ लाख का महीने का बँधा हुआ है, कैसे? कैसे? और तब वो मूक हो जाते है, तब कोई जवाब नहीं क्योंकि जवाब सबको पता है कैसे।
कोई ऐसी स्थिति या जाए जीवन में कि बहुत पैसा आने लग जाए, होता है कई बार। अभी पिछले डेढ़ साल से आइटी में एक नया बूम है। अनाप-शनाप तनख़्वाहें आ रही हैं। तो उस आमदनी के साथ अपना खर्च मत खड़ा कर लो कि अब इतना तो आने ही लग गया तो अब मैं इतना तो खर्च भी कर सकता हूँ महीने का। आमदनी संयोग अनुसार, खर्चा ज़रूरत अनुसार। बच जाए तो बच जाए, अच्छी बात है बच गया। लगा दो, किसी अच्छे काम में लगा दो।
यही है कुल मिलकर के। मेरी बात समझ में तो आ ही जाती है उसपर चलने की राह में बस यही चीज़ बाधा आती है — पैसा। और मैं अन्दर की बात बताता हूँ। मेरी बात सुनोगे न तो पैसे की कमी नहीं होगी, आमदनी कुछ कम हो जाएगी, खर्चे उससे भी ज़्यादा कम हो जाएँगे। कुल मिला-जुलाकर के मुनाफ़े में ही रहोगे। अगर आमदनी कम होती है तो, ज़रूरी नहीं है कम ही हो जाए। पर अगर कम भी हो जाती है तो खर्चे भी कम करोगे। डर मत जाया करो — ‘कैसे काम चलेगा? कैसे काम चलेगा?’
प्र: जैसा आप कहते हैं कि कोई लक्ष्य ऊँचा होना चाहिए तो हम कैसे पता लगाएँ कि कौनसा काम बड़ा होता है?
आचार्य: इतना तो स्पष्ट है न कि अगर तुम तंबाकू बेचने वाली, सिगरेट बनाने वाली किसी कम्पनी में काम करते हो तो वो काम कैसा है। ये तो खुली बात है, ठीक? जैसे ये देख पाएँ कि तंबाकू बेचने का काम कुछ ठीक नहीं, वैसे ही ये क्यों नहीं देख पाओगे कि कौनसा काम ठीक है? उसी मापदंड का इस्तेमाल करके देख लो न।
कैसे पता चलता है कि सिगरेट की कम्पनी में काम करना कोई ठीक बात नहीं? कैसे पता? कैसे पता? दुनिया का नुकसान हो रहा है न उससे! कोई भलाई नहीं हो रही तुम्हारे इस काम से किसी की। वैसे ही ये देख लो तुम जो काम कर रहे हो उससे किसी का कुछ भला होता भी है या नहीं। इतना जान लेना — तुम्हारा हित, दूसरे का हित बिलकुल साथ-साथ चलते हैं।
जिस काम में दूसरों का नुकसान हो रहा हो उसमें तुम्हारी भलाई नहीं हो सकती। भले ही तुम्हें लग रहा हो कि दूसरों को ज़हर बेचकर तुम्हारा मुनाफ़ा बढ़ रहा है, वो मुनाफ़ा ही तुम्हें खा जाएगा। और अगर दूसरों का हित हो रहा है उसमें भले ही तुम्हें पैसे वगैरह कम मिल रहे हों तो भी तुम पाओगे कि तुम्हारा फ़ायदा ज़्यादा हुआ।
ये जानना कोई मुश्किल काम थोड़े ही है कि तुम जो करते हो उसका दूसरे पर क्या असर होता है। ये तो बिलकुल प्रकट बात है न! कि नहीं?
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=SRmxljmJBV8