प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज महाशिवरात्रि है। सुन्दर और अद्भुत संयोग है कि आज महाशिवरात्रि के दिन ही आपका जन्म हुआ था। पहले तो बहुत कृतज्ञ महसूस कर रहा हूँ कि अभी आपके सामने बैठा हुआ हूँ और आपसे कुछ सवाल पूछना चाहता था इस सम्बन्ध में।
आज आपका जन्मदिवस है। जन्मदिवस पर हमेशा हमने देखा है कि लोग उत्सवों में जातें हैं, हर्षौल्लास से उसे मनाते हैं; लेकिन आप आज भी यहाँ बैठें हुए हैं और वही काम कर रहे हैं जो आप ऱोज करते हैं — लोगों के सवालों का निवारण। तो आज के दिन मैं ये जानना चाहूँगा कि आप महाशिवरात्रि, अपना जन्म, और अपने जीवन को कैसे देखते है?
आचार्य प्रशांत: कुछ बहुत भला नहीं किया तुमने, ये याद दिलाकर के कि आज महाशिवरात्रि है और जन्मदिन है मेरा। हर साल ही महाशिवरात्रि को पड़ता है। एक साल और गया। सारी शिक्षा ही मेरी यही है कि जीवन एक अवसर है; और वो अवसर निरंतर बीत रहा है। घड़ी की टिक-टिक बंद हो जाए, उससे पहले तुम्हें घड़ी से मुक्त हो जाना है, इसीलिए है जीवन।
और दूसरी बात मैं कहा करता हूँ कि मुक्ति किसी को अकेले तो मिलती नहीं। व्यक्तिगत मुक्ति जैसी कोई चीज़ होती नहीं। मुक्ति होगी तो समष्टि की होगी, नहीं तो नहीं होगी। व्यक्तित्व की क्या मुक्ति होगी? व्यक्तित्व से तो मुक्त हुआ जाता है।
तो यही दोनों बातें हैं, जो आज जन्मदिवस पर भी सामने खड़ी हैं। कोई विशेष दिवस नहीं है, रोज़ ही यही बातें सामने खड़ी रहती हैं।
पहली बात कि घड़ी की टिक-टिक लगातार ज़ारी है और दूसरी ये कि काम बहुत बचा है। सवाल व्यक्तिगत उपलब्धि का या व्यक्तिगत निर्माण का नहीं है। बहुत हैं, सबको साथ लेकर के बढ़ना है। बहुत हैं, सभी हैं, आरोहण होगा तो सबके साथ ही होगा।
तो लोग उत्सव मनाते होंगे कि आज जन्मदिवस है, जन्मोत्सव मनाएँगे; मेरे लिए तो हर बीतता पल, हर बीतता वर्ष एक चुनौती ही है। जैसे कोई बड़ी निर्ममता से बार-बार स्मरण करा रहा हो कि रुक मत जाना! थक मत जाना! काम बहुत बाकी है और समय बीत रहा है। लो! एक साल और बीत गया।
तो ज़ाहिर सी बात है, आज भी वही कर रहा हूँ जो ऱोज करता हूँ, कल भी वही करूँगा। मिशन बहुत बड़ा है, समय बहुत कम है, संसाधन बहुत कम हैं; उत्सव मनाने का समय नहीं है।
जानते हो, महाशिवरात्रि के विषय में एक कथा ये भी है कि ये वो दिन था, जिस दिन शिव ने दुनिया को बचाने के लिए हलाहल विष स्वयं अपने कंठ में धारण कर लिया था। कई प्रतीक कथाएँ प्रचलित हैं महाशिवरात्रि के बारे में, उनमें से एक ये भी है। ये मुझे सबसे गहरी और सारगर्भित बात लगती है।
अकेला पर्व है महाशिवरात्रि जो पूरी रात मनाया जाता है और जिसमें विशेष महत्व होता है ध्यान का। ढोल-नगाड़े नहीं, रंग-रोगन नहीं, दीप-उत्सव नहीं; सिर्फ़ शिवत्व पर ध्यान। ध्यान उस संधि बिंदु पर जहाँ वो सब पुराना, जो समाप्त होने योग्य ही है, समाप्त होता है और उसकी समाप्ति के उपरान्त नूतन रचना की शुरुआत होती है।
यह विशिष्ट रात्रि, दो कालधाराओं के संगम की रात्रि है। पहली धारा है विध्वंस की, प्रलय की। और फिर दूसरी धारा है प्रभव की, एक नयी शुरुआत की। और कोई नयी शुरुआत हो पाए, उसके लिए तो पहले ये आवश्यक है कि जो पुराना सड़ा-गला, मूल्यहीन, भ्रामक और झूठा हमारे जीवन में मौजूद है, पहले उसे मिटाया तो जाए।
तो यही अर्थ है मेरे लिए महाशिवरात्रि का। जितना झूठ फैला हुआ है, मिथ्या धारणाएँ, भ्रामक मान्यताएँ, जीवन को बर्बाद कर देने वाले सिद्धाँत, सत्य से दूरी बनाएँ रखने की ज़िद, इन सबका विध्वंस होना है। इन सबका विध्वंस होना चाहिए, प्रलय होना चाहिए।
जब तक झाड़-झंखाड़ साफ़ नहीं होंगे, तब तक उपवन खड़ा कैसे होगा तुम्हारे ज़ीवन के भवन में? अगर कचरा ही कचरा भरा हुआ है तो वो कचरा बाहर निकाले बिना, सफ़ाई किए बिना, तुम अपने ज़ीवन भवन में देवमूर्ति स्थापित कैसे कर लोगे?
मेरा काम है सफ़ाई के उस काम में तुम्हारी मदद करना। पर कचरे से तुम बहुत आसक्त हो चुके हो। मदद लेने को अक्सर तुम तैयार भी नहीं होते। तब मेरा काम हो जाता है तुम्हें ठेलना। तुम सुनने को तैयार हो, न हो; तुम्हें सुनाना। वो भी कहना जो तुम्हें अप्रिय लगता हो। उसको भी जगाए रखना, जो सोने को आतुर हो रहा हो।
तुम्हारा बस चले तो तुम तो अपनी बोझिल पलकों की ही सुन लो तुरंत, अभी पड़ के सो जाओ। पर महाशिवरात्रि है, मेरा दायित्व है तुम्हें जगाए रखना।
तुमने तो जैसे ठान ही रखी है कि ज़िंदगी तो बड़ी हल्की चीज़ है। मुफ्त में मिल गयी है, व्यर्थ ही गवाँ दो। मेरा काम है, तुमको लगातार सचेत रखना कि बहुत क़ीमती, बड़ी मूल्यवान चीज़ है, ऐसे मत गंवाओ।
तुम्हारी भी ज़िद है मेरी भी ज़िद है!
पर ये खेल ऐसा है, जिसमें तुम शिखर पर पहले से बैठे हुए हो और मुझे शिखर तक चढ़कर जाना है। खेल पूर्वाग्रहग्रस्त है। तुम पहले से ही जीते हुए हो और मुझे किसी तरह से जीत को तुम्हारे हाथों से छुड़ाना है।
मुझे पहली बात तो चढ़ाई करनी है और दूसरी बात, वो चढ़ायी करने के लिए समय मेरे पास बहुत कम है। ज़ीवन के इकतालीस वर्ष बिता चुका हूँ और कितने हैं पता नहीं।
तुम्हें जीतने के लिए कुछ करना नहीं है। तुम्हें जीतने के लिए बस अपने भ्रम और अपने असत्य के शिखर पर जमकर बैठे रहना है। तुम्हें बस इतना करना है कि समय बीतता चले।
जैसे फुटबॉल का खेल हो और कोई पक्ष चार-शून्य से जीत रहा हो। आख़िरी दस मिनट बचे हैं, उसे कोई आवश्यकता नहीं है कि वो आक्रमण करे, और गोल बढ़ाये। उसको तो बस ये करना है कि ये दस मिनट वो बिता दे।
तो तुम्हें भी बस यही करना है कि गुरु के ज़ीवन के जो कुछ साल बचे हों, उनको तुम किसी तरीक़े से बिता दो; ख़तरा टल जाएगा। हाँ, जो पक्ष पिछड़ा हुआ होता है फुटबॉल में, उसके लिए समय की क़ीमत बहुत हो जाती है।
देखा है! उस टीम को जो पीछे होती है? वो जल्दी-जल्दी पास देगी, जल्दी-जल्दी खेल की गति को बढ़ाने की कोशिश करेगी क्योंकि उसको पता है कि समय कम है और काम बहुत बड़ा बचा हुआ है।
तो मैं कोशिश करता हूँ कि काम जल्दी-जल्दी हो, ज़्यादा से ज़्यादा हो; और तुम बाधा बनते हो। दुख की बात ये है कि तुम अपनी ही मुक्ति के ख़िलाफ़ बाधा बनते हो। तुम अपने ही हित के ख़िलाफ़ खड़े हो।
मेरा क्या है? एक जन्मदिवस और बीत गया। कुछ और होंगे, बीत जाएँगे। मैं भी बीत जाऊँगा, तुम अपना देख लेना।
प्र२: आचार्य जी, अभी भी आप जब बोल रहे हैं तो हमें पता है कि अभी आपकी तबियत अच्छी नहीं है। उसके बाद भी सत्र आप ले रहे हैं और लिए जा रहे हैं। करीब दस दिन हुए जब लगातार आपके सत्र हुए जा रहे हैं, ये लड़ाई की तरह होता है?
आपको देखता हूँ, तो हमेशा ज़ीवन को लड़ाई की तरह ही जिया है आपने। तो जब सामने यह दिखाई देता है कि लड़ाई और लम्बी होती जा रही है, और लम्बी होती जा रही है, और जो मेहनत है वो कहीं से भी कम होती हुई नहीं दिखाई दे रही, तो क्या होता है जो और, और, और, और करने के लिए प्रेरित करता है?
आचार्य: लड़ाई ही तो है और क्या है बताओ? सीधा-सीधा टकराव ही तो है और क्या है? अभी देख नहीं रहे हो क्या चल रहा है? हो सकता है इसको करने के कुछ बड़े मीठे और सुखप्रिय तरीक़े भी होते हों, मुझे वो तरीक़े नहीं पता। मैं सीधा-सादा आदमी हूँ, मैं ये जानता हूँ कि जब कोई खड़ा हो रेल की पटरी पर और पीछे से रेल आती दिख रही हो, तब उस व्यक्ति की अनुमति नहीं ली जाती। उसके साथ शालीनता का ही बर्ताव नहीं रखा जाता। जब दिख ही जाए कि सुनने-समझने को तैयार नहीं, तो धक्का दे दिया जाता है।
युद्ध ही तो है। और युद्ध ये ऐसे बन जाता है कि तुम जिसको धक्का दे रहे हो, वो खुद तो पटरी से हटने को तैयार नहीं। हाँ, तुमने धक्का दिया, इस नाते बुरा बहुत मान जाता है। पलटवार करता है, पूरी एक भीड़ बुला लेता है कि देखो! हम कितना शुभ कार्य करने जा रहे थे और ये साहब हमें रोक रहें हैं; और भीड़ भी उसके समर्थन में खड़ी है। एक को बचाना है तो पूरी भीड़ से लड़ना पड़ेगा, युद्ध तो है ही।
कह रहे हो कि, 'तबियत आदि ठीक नहीं है, तब भी कोई ये क्यों करता है?' इसलिए करता है क्योंकि उसे उसका स्वार्थ प्यारा है। मैं अकेला नहीं हूँ, जो ख़राब स्वास्थ्य में भी किसी दूसरे काम को स्वास्थ्य से ऊपर समझता है, ये सब ने किया हुआ है।
ऐसा नहीं हैं कि हम स्वास्थ्य को ही सर्वोपरि रखते हैं। अंतर ये है कि स्वास्थ्य से ऊपर हम क्या रखतें हैं।
सिगरेट पीते हो तुम, तुम भलीभांति जानते हो न कि सिगरेट स्वास्थ्य को बर्बाद कर रही है! पर स्वास्थ्य से ऊपर तुम नशे को रख देते हो न! लत को, आदत को रख देते हो न!
तो मैं कोई अकेला थोड़े ही हूँ, जो जानता है कि स्वास्थ्य से ऊपर भी कुछ होता है। तुम भी तो स्वास्थ्य से ऊपर कई चीज़ें रखते हो; रखते हो कि नहीं? तुम जानते हो कि क्या खा रहे हो, क्या पी रहे हो, वो सब स्वास्थ्य ख़राब कर रहा होगा; पर फिर भी खा पी लेते हो।
माँओं को ममता होती है तो अपना स्वास्थ्य पीछे छोड़कर के वो अपने शिशु की देखभाल करने चल देती हैं; चल देती हैं कि नहीं? लोभी आदमी भी अपनी तबियत की परवाह करे बिना, दाम कमाने निकल पड़ता है; निकल पड़ता है कि नहीं? तो मैं जो कर रहा हूँ वो कोई अनूठी चीज़ नहीं है। स्वास्थ्य से ऊपर कुछ हो सकता है, ये हम सबका अनुभव है। हाँ, बस ये है कि शायद मैं देख रहा हूँ कि क्या है जो वाकई शारीरिक स्वास्थ्य से ज़्यादा मूल्यवान है।
शरीर एक उद्देश्य के लिए मिला है। क्या करूँगा मैं शरीर रखकर के, अगर जिस उद्देश्य के लिए शरीर मिला है वही पूरा न हो पाया?
आपको परीक्षा में लिखने के लिए एक पेन दिलाया जाए और पेन ज़रा नाज़ुक किस्म का है। उसको ज़ोर से घिसो, दबाकर घिसो तो उसके टूटने का ख़तरा है। और तीन घंटे की परीक्षा थी, आख़िरी आधा घंटा बचा है। ज़ोर से पेन चलाओगे तो पेन टूट सकता है, तो क्या करोगे? पेन को सुरक्षित रखोगे? कलम परीक्षा के लिए है या कलम इसलिए है कि कलम को ही सुरक्षित रखो?
कलम सुरक्षित रखे-रखे परीक्षा भवन से तुम बाहर आ गए, प्रश्नपत्र का उत्तर दिया ही नहीं, ज़ीवन के सवाल हल किए ही नहीं, तो भाड़ में जाए ऐसी कलम। कलम की क्या शोभा बनाकर टाँगनी है?
शरीर भी ऐसा ही है। शरीर इसलिए है कि इसका सार्थक इस्तेमाल करके तर जाओ। और अकेले तर नहीं सकते, तरोगे तो सबके साथ। तो अपने स्वार्थवश ही, मैं शरीर का जो ऊँचे से ऊँचा इस्तेमाल हो सकता है वो कर रहा हूँ। शारीरिक स्वास्थ्य ऊँची चीज़ है, पर मुक्ति उच्चतम है। शरीर की हैसियत मुक्ति से ज़्यादा नहीं है। मुक्ति की खा़तिर अगर शरीर की बलि देनी पड़े तो अच्छी बात है।
प्र३: अभी, आज के सत्र में भी जो सवाल उठे हैं, उसमें भी यही निकल कर आया है कि जीवन जा रहा है। काफ़ी तो युवा लोग बैठे हैं और जन्मदिवस पर जीवन की सार्थकता कैसे पाई जा सकती है? इस पर अगर आप कुछ बताएँ।
आचार्य: मैंने बताया न! जीवन की सार्थकता इसी में है कि जीवन से मुक्ति मिल जाए। जीवन इसलिए नहीं है कि तुम्हें जितने भी बरस मिले हैं — चालीस, साठ, अस्सी, तुम उनमें सुख भोगो। इससे बड़ा भ्रम दूसरा नहीं है, इससे आज़ाद हो जाओ।
जीवन इसलिए नहीं है कि साठ-सत्तर साल तुम सुख भोगो। बहुतों के लिए जीवन का लक्ष्य यही है — सुख या ख़ुशी, प्रसन्नता; ये पागलपन की बात है। जीवन सुख के लिए नहीं है, जीवन मुक्ति के लिए है।
और हम जीवन मानते हैं अपनी शारीरिक उपस्थिति को। हैं न! जीवित उसी को कहते हैं जो शरीर लेकर घूम रहा हो। तो शरीर का भी उद्देश्य क्या है साफ़-साफ़ समझ लो! शरीर इसलिए नहीं है कि तुम शरीर का ही पालन-पोषण, संवर्धन करते रहो। शरीर इसलिए है कि शरीर को किसी ऊँचे लक्ष्य की, मुक्ति के यज्ञ में आहुति बना दो।
क्या करोगे शरीर को बचाकर? चिता के पार ले जाओगे? कब्र से निकलकर दोबारा नाचेगा शरीर? करोगे क्या शरीर का? संसाधन है शरीर, और संसाधन है समय, और संसाधन है वो सबकुछ जो तुम्हें मिला हुआ है। कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि, अंतःकरण, स्मृति, ये सब संसाधन भर हैं, इनका इस्तेमाल करो।
पर पूरी जीवन दृष्टि ही सुखवादी है कि सुख मिल जाए और सुख मिले, मिलता है नहीं। छटांक भर सुख मिलता है तो पसेरी भर दुख, पर बाज़ नहीं आते। सारी भूल ही यही हो रही है जीवन दर्शन में। मुक्ति की जगह जीवन का लक्ष्य बना लिया गया है सुख को। और मुक्ति आनंद है, मुक्ति परम सुख है।
जो परम सुख चाहते हैं, उन्हें परम सुख मिल जाता है। जो सिर्फ़ सुख चाहते हैं, उन्हें सुख से ज़्यादा दुख मिलता है। तो जो सुख माँग रहे हैं, वो दोनों तरफ़ से मारे जा रहे हैं। पहली बात तो उन्होंने छोटी चीज़ माँगी। परम सुख माँग सकते थे, माँगा सुख। और जो छोटी चीज़ माँगी, वो भी पूरी मिली नहीं।
मुक्ति का मतलब असुख नहीं होता। मुक्ति कोई सुख की विपरीत नहीं है। मुक्ति और आनंद एक हैं। तुम मुक्ति की दिशा में बढ़ो तो फिर पता चलेगा कि ज़िंदगी कितना अमृत बरसा सकती है।
प्र४: ऐसा लगता है कि अभी बहुत समय बाकी है, जल्दी क्या है?
आचार्य: जिन्हें लगता हो बहुत समय बाकी है, उन्हें समय-समय पर अपने मेडिकल टेस्ट कराते रहना चाहिए। पूरे शरीर की जाँच कराना, कभी ऐसा होगा नहीं कि कुछ न कुछ गड़बड़ न निकले। हर बार कुछ न कुछ ऊपर-नीचे आएगा ज़रूर। ख़ुद ही समझ जाओगे कि बहुत समय है नहीं।
तुम्हें पूरा भी समय दे दिया जाए, सौ साल; तो सौ साल में भी तुम कर क्या लोगे? चालीस के तुम हो गए, चालीस में तुमने क्या कर डाला है जो अगले साठ में तुम सोच रहे हो कि किलाफ़तह कर लोगे? और ये तब जब अभी तुम जवान थे, ऊर्जा थी। आगे जैसे-जैसे तुम्हारी ऊर्जा ढलेगी, तो तुम जीवन की संध्या में बड़ी दौड़ लगा लोगे?
एक एहसास निरंतर बना रहना चाहिए। घड़ी टिक-टिक टिक-टिक कर रही है, काम बहुत बड़ा है, समय बहुत छोटा है। एक भी पल गवाँया नहीं जा सकता आराम करने के लिए, शौक फ़रमाने के लिए, अय्याशी के लिए, एक भी पल उपलब्ध नहीं है। जो असली चीज़ है उसको कल पर नहीं टाला जा सकता, ये चेतना लगातार बनी रहनी चाहिए।
हर जन्मदिन यही सन्देश लेकर आये तुम्हारे लिए कि क्या पता ये आख़िरी हो। ऐसे जियो कि अगला नहीं आने वाला। जो असली काम है उसको तुरत-फुरत निपटा दो, उसके बाद छोटे-मोटे काम निपटाते रहना। पर हम छोटे-मोटे कामों में ज़िन्दगी बिताए दे रहे हैं और जो असली काम है, वो बेचारा प्रतीक्षा ही करता रह जाएगा।
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