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लेख
लड़कियों से बात करने में झिझक || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
6 मिनट
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प्रश्नकर्ता: लड़कियों से बात करने में झिझक क्यों होती है?

आचार्य प्रशांत: तुम हर समय लड़के बनकर क्यों घूमते हो? तुम जितना ज़्यादा देहभाव में जियोगे, उतना अपने लिए परेशानियाँ खड़ी करोगे। लड़कों के सामने कौन शर्माती है? लड़की। लड़की माने क्या? लड़की का हाथ, लड़की का जिस्म, लड़की के अंग? कौनसा अंग शर्माता है लड़के के सामने जाने से बताना?

लड़कियाँ, लड़कों के सामने जाती हैं तो क्या उनका शरीर मना कर देता है? गाल शर्माते हैं? होंठ शर्माते हैं? ऐसा तो कुछ होता नहीं। तो फिर क्या होता है लड़की में जो लड़के के सामने जाने से घबराता है? वो ‘मन’ जिसने अपनी पहचान बना रखी है कि मैं तो लड़की हूँ। इस पहचान में मत जियो न। कोई भी पहचान जो तुम लेकर चलोगे, वो तुम्हारे लिए एक झूठी आशा ही सिद्ध होगी। तुम कुछ भी बनते इसी उम्मीद में हो कि उससे शान्ति-तृप्ति मिल जाएगी, वो नहीं मिलती। हाँ, वो ज़रूर मिल जाता है जिसकी बात कर रहे हो — घबराहट मिल जाती है।

होता क्या है कि विपरीत लिंगी को देखकर तुम्हारी जो अपनी लिंग आधारित पहचान है, जेंडर आइडेंटिटी है, वो दूनी सक्रिय हो जाती है। लड़कियाँ सामने आती हैं, तो तुम और ज़्यादा लड़के बन जाते हो। जब पुरुष सामने आता है, तो स्त्रियाँ और ज़्यादा स्त्री हो जाती हैं। इन सब झंझटों से बचने का सीधा तरीक़ा है — या तो अपनेआप को कुछ मत मानो और अगर बहुत आग्रही हो अपनेआप को नाम, पहचान देने का, तो कह दो, 'विशुद्ध चैतन्य हूँ'; विशुद्ध चैतन्य का कोई लिंग नहीं होता। या तो कह दो, ‘कुछ भी नहीं हूँ’ या कह दो ’शिवोहम्’, ‘शून्योहम्’ बिलकुल ठीक, कुछ हूँ ही नहीं। निर्वाण षट्कम् सुना है न, क्या कहता है?

प्र: चिदानन्द रूपः शिवोहम शिवोहम।

आचार्य: उससे पहले क्या कहता है?

प्र: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।

आचार्य: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार — कुछ भी नहीं हूँ मैं। न बच्चा हूँ, न बूढ़ा हूँ; न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ। क्या हूँ मैं?

प्र: शिवोहम्।

आचार्य: शिवोहम्। ठीक है। अब शिव को लड़कियों से क्या घबराहट है? शिव-तत्व को लड़कों से क्या घबराहट है? न अमीर हूँ, न ग़रीब हूँ; न देसी हूँ, न विदेशी हूँ; न यहाँ का हूँ, न वहाँ का हूँ; इन सबसे शून्य हूँ मैं, शिव हूँ मैं, बस। पढ़ा-लिखा हूँ मैं? नहीं। अनपढ़ हूँ मैं? नहीं। जानता हूँ मैं? अनजान हूँ मैं? हिन्दू हूँ मैं? मुसलमान हूँ मैं?

तुम ये सब न कह पाओ फूहड़ बातें कि छोटा हूँ, बड़ा हूँ, अमीर हूँ, ग़रीब हूँ, लड़का हूँ, लड़की हूँ इसीलिए देने वालों ने तुम्हें बहुत सारे नाम दे दिये। वो सब झुनझुने हैं, ताकि तुम्हारा जी बहल जाए।

कभी कह दिया कि कह दो, ‘मैं निरामय हूँ’। कभी कह दिया कि कह दो, ‘मैं शुद्ध-विशुद्ध हूँ’। कभी कह दिया कि मैं आत्मा हूँ, ब्रह्म हूँ, पूर्ण हूँ। कभी कहा, ‘निर्विकार हूँ'; कभी कहा, ‘शिव हूँ’; कभी कहा, ‘शून्य हूँ’ — ये सब तुम्हें इसलिए दिये ताकि तुम ये न कहो कि मैं ‘अजितेश’ हूँ। ‘पूर्ण’ कह दो अपनेआप को, ‘शुद्ध’ कह दो अपनेआप को, ‘मुक्त’ कह दो अपनेआप को, ‘निरामय’ कह दो अपनेआप को, ‘चैतन्य’ कह दो अपनेआप को, ‘अनन्त’ कह दो अपनेआप को; वो मत कहना अपनेआप को जो तुम्हें दुनिया कहती है।

प्र: कुछ धारणाएँ रहती हैं जो बहुत ज़्यादा जकड़ी रहती हैं, जैसे — मैं सुन्दर हूँ या समझदार हूँ। ये सब धारणाएँ बनी ही रहती हैं, कितना भी कुछ कर लो, कितना भी होश रहे, इन धारणाओं में बह जाते हैं।

आचार्य: अभी तुम्हारी सुन्दरता बात कर रही है? तो जैसे अभी हो, ऐसे अन्यथा भी तो रह सकते हो न? अभी सुन्दर होकर तो नहीं बात कर रहे? शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब होकर तो नहीं बात कर रहे हैं? कुछ लोग बीच-बीच में ज़रूर तार तोड़ देते होंगे, नहीं तो ध्यान की धार है बिलकुल, है न? जिसमें तुम्हारी हस्ती ही नहीं होती, तो पहचान क्या होगी! कोई होगा तो उसकी पहचान होगी।

यहाँ पर अगर बिना पहचान के मस्त काम चल रहा है, तो अन्यत्र भी तो चल सकता है, सर्वदा भी तो चल सकता है। एक माहौल है यहाँ पर और उस माहौल के तत्वों को तुमने जान ही लिया होगा। जहाँ ऐसे तत्व न पाओ, वहाँ मत जाओ और जहाँ इसके विपरीत तत्व पाओ, वहाँ से तो दौड़ लगाओ।

यहाँ बात चेतना की हो रही है, तो ऐसे लोगों के माहौल से बचना जो तुम्हारे शरीर की बात करते हों। अगर ऐसे लोगों की संगति है तुम्हारी जो तुम्हें बार-बार यही एहसास दिलाते हों कि तुम्हारी उम्र क्या है, तुम्हारा कद क्या है, तुम्हारा रूप-रंग क्या है, तो ऐसों की संगति से बचो। कोई भी पहचान तुम्हारी तो होती नहीं न? दुनिया तुम्हारे ऊपर पहचान थोपती है। तो जो लोग, जो माहौल, जो संगति तुम्हारे ऊपर कोई भी पहचान थोपती हो, उस संगति से बचो। कष्ट होता है न उसमें?

पहचान लेकर चलने में भी तो कष्ट होता है न? तो सही कष्ट चुनो। पहचानों को हटाने में भी कष्ट है और पहचान लेकर चलने में भी कष्ट है, सही कष्ट चुनो। एक इशारा दिये देता हूँ, पहचानों को हटाने में जो कष्ट है, वो अन्ततः तुम्हें कष्ट से मुक्ति दिला देगा और पहचान लिये-लिये चलने में जो कष्ट है, वो कष्ट कभी ख़त्म नहीं होगा, बढ़ता ही जाएगा। तो वो कष्ट चुनो न जो आगे जाकर ख़त्म हो जाए। वो कष्ट क्यों चुनते हो जो आज भी है और कल भी रहेगा और कल आज से दूना रहेगा? हाँ, मैं कोई झूठी दिलासा नहीं देना चाहता, अध्यात्म के रास्ते पर भी कष्ट तो है।

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