संसारी का दुख, और संत का दुख

Acharya Prashant

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संसारी का दुख, और संत का दुख
पीड़ा का एक सागर है मन। इसीलिए उसको नाम दिया गया है — भवसागर। होना ही पीड़ा है। जिन्हें दुख से बचना हो, उन्हें दुख से हटकर सुख की ओर नहीं भागना होता। उन्हें योग की ओर जाना होता है। योग है, दुख से निवृत्ति। दुख से बचोगे सुख की ओर जाकर नहीं, दुख से बचोगे योग की ओर जाकर। और योग का क्या अर्थ है? योग का अर्थ है, मन को आत्मा में लीन कर देना। यही योग है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

दरस बिन दूखण लागे नैन। जब से तुम बिछुरे प्रभु जी, कबहूँ न पायो चैन। सबद सुणत मेरी छातियाँ कांपि, मीठी-मीठी बैन। बिरह-बिथा काँसू कहूँ सजनी, बह गई करवत थैन। कल न परत पल हरि मन जोवत, भाई छमासी रैण। मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैणा।।

~ मीराबाई

आचार्य प्रशांत: कल हम ही में से किसी से मेरी बात हो रही थी, तो उन्होंने कहा कि जब कोई पुराना दर्द भरा मार्मिक गीत सुनता हूँ। शायद ये नहीं कहा कि “पुराना,” पर कभी-कभी तो पता नहीं क्यों कुछ अजीब-सा लगता है, ऐसा लगता है कोई रिश्ता है। आँखें भर आ जाती हैं, मन में कुछ होने लगता है और बात कुछ नहीं। ऐसा नहीं कि मुझे कोई व्यक्तिगत उदासी है, ऐसा नहीं कि मेरे जीवन में कुछ चल रहा है। पर किसी और की तान सुनकर, किसी और के भाव सुनकर, किसी और का वियोग सुनकर — अपने भी हूक-सी उठती है। आपकी उठी हूक?

ये मीरा की कहानी नहीं है। श्रीकृष्ण कोई मीरा के व्यक्तिगत भगवान नहीं हैं। हम सब मीरा हैं और श्रीकृष्ण सबके हैं। तो मीरा ने जो कहा है, वो किसी इंसान की निजी बात नहीं है, वो हम सब की कहानी है। तो मीरा के गीत सुनकर अगर आपको कोई भावोदय न हो, मन को कोई पुरानी कहानी न याद आए, मन को ये किस्सा अपना-सा न लगे, ये दास्तान पहचानी-सी न लगे — तो वो चौंकाने वाली बात होगी। आप सुनें मीरा को, और आपको लगे जैसे आप ही गा रहे हैं, तो ये सहज साधारण बात होगी।

एक बात साफ़-साफ़ समझ लीजिएगा, जिसका योग होता है मात्र उसे ही वियोग पता चलता है। वियोगी वो नहीं जो वियोग के गीत गा रहा है, वियोगी वो है जिसे वियोग की प्रतीति ही नहीं हो रही है।

मीरा ने वियोग के गीत खूब गाए हैं। क्यों? क्योंकि मीरा योगिनी हैं। मीरा योग में स्थापित हैं, इस कारण वियोग के गीत गा रही हैं। जो वास्तव में योग से च्युत है, अछूता है, टूटा है, खंडित है — उसको वियोग का पता भी नहीं लगेगा। बहुत किस्मत वाले होते हैं वो, जिन्हें पता लगता है कि दूरी है। अधिकांश मामलों में तो दूरी इतनी ज़्यादा होती है कि हमें पता भी नहीं लगता कि हम दूर हैं।

संत गाते हैं, “कब मिलोगे राम।” मीरा कहती हैं, “कब दरस दोगे।” आम आदमी कहता है क्या? क्या आम आदमी नहीं कहता इसका क्या अर्थ है? क्या ये अर्थ है कि उसको राम और श्रीकृष्ण मिले ही हुए हैं? क्योंकि मिले हुए हैं, इसीलिए उसे तड़प नहीं? क्या ये बात है? बात ये है कि वो राम और श्रीकृष्ण से इतना दूर है, इतना दूर, कि उसे उनका अभाव भी प्रतीत नहीं होता। राम और श्रीकृष्ण से ज़रा नज़दीकी चाहिए। जब नज़दीकी होती है, तब ये पता चलता है कि कमी है।

कमज़ोर आदमी कराहता है, मुर्दा थोड़े ही कराहता है। कराहने के लिए भी थोड़े से तो प्राण चाहिए। जिनके प्राण बिल्कुल ही जा चुके हैं वो अब कराहते भी नहीं। वो मौन प्रतीत होते हैं, लगता है इनका तो सब कुछ ठीक है। पर मुर्दे के मौन को मौन मत जान लेना, वो बेबसी की निष्प्राण चुप्पी है। बात आ रही है समझ में?

तो सतही तौर पर सुखी और संतुष्ट नज़र आएँगे वो लोग, जिनका वियोग वास्तव में गहरा है। आप उनकी दिनचर्या देखेंगे आपको लगेगा ये ठीक है, भरा-पूरा है, इसे कोई कष्ट ही नहीं, इसे परमात्मा की कोई वेदना ही नहीं। ये सुबह उठता है, मौज में अंगड़ाई लेता है, चार अंडे खाता है, इधर-उधर की दो चार गाली-गलौज, किसी को झूठ बोला, मस्त बनावट। उसके बाद अपना चोगा धारण करता है, दफ़्तर चला जाता है। वहाँ पर भी जितने उपद्रव, जितने उत्पात, जितने झूठ, जितनी बनावट, जितने फसाद करने हैं, सब करता है। फिर शाम को घर आता है, तो दफ़्तर से जो नोच-खसोट के कमा के लाया है, उसको इधर-उधर जाकर उड़ाएगा।

आप कहोगे — ये ठीक है, ये भला है, इसे कोई दुख नहीं! और ऐसे लोग ख़ूब दिखते हैं कि नहीं? वो खोए हुए हैं, उन्हें पीड़ा भी नहीं प्रतीत हो रही। पर उन्हें पीड़ा प्रतीत भर नहीं हो रही है। पीड़ा है गहरी।

पीड़ा है गहरी, इसका प्रमाण है उनकी दिनचर्या। पीड़ा उनकी इतनी गहरी है कि उन्हें लगातार अपने आप को नशे में रखना पड़ रहा है। जानते हो ना, कैंसर इत्यादि के रोगी जब अपनी आख़िरी अवस्था में पहुँचते हैं, तो डॉक्टर उन्हें ख़ूब अफीम देते हैं। जानते हो? मॉर्फीन के इंजेक्शन लगते हैं, क्यों लगते हैं? नशा देना पड़ता है। क्यों देना पड़ता है? ताकि दर्द पता ना चले। और उन्हें फिर नहीं दर्द पता चलता है, या कम पता चलता है।

आम आदमी का जीवन वैसा ही है। हम सब लगातार अपने आप को नशे में रखते हैं। दर्द हमें नहीं है, पर नशे में रखना इस बात का प्रमाण है कि दर्द गहरा है। और दर्द प्रतीत नहीं हो रहा है क्योंकि? नशा कर रखा है। दर्द प्रतीत भले ना हो रहा हो, पर नशा तो प्रतीत हो रहा है न? नशा तो ज़ाहिर है। दिन का एक-एक कदम नशे में है, नशे की तरफ़ है। नशा प्रमाण है इस बात का कि कितनी वेदना में जी रहे हो।

सतही शांति को शांति मत समझ लीजिएगा। गृहस्थों ने कभी वियोग के गीत नहीं गाए, गृहस्थ कभी रात-रात भर नहीं जागे। संत जगते हैं, फ़क़ीर जागते हैं, सूफ़ी जागते हैं। वो रात-रात भर जागते हैं और रोते हैं। ये अजीब बात नहीं है। गृहस्थ मजे में सोता है और फ़क़ीर जगता है और रोता है। कबीर तो क़रीब-क़रीब इन्हीं शब्दों में कह गए हैं। क्या?

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै॥

~ संत कबीर

संसार सुखी प्रतीत होता है, उसको सुखी मान मत लेना। वास्तव में बड़ा भ्रम, बड़ा उपद्रव, बड़ा अनर्थ हुआ है इसी कारण, क्योंकि तुम्हें संसार सुखी प्रतीत होता है। तुम संसार को ही आदर्श बनाकर उसका अनुकरण करने लग जाते हो। तुम कहते हो, "देखो उसको वो जा रहा है बड़ी गाड़ी में। और बड़ा भवन है उसका, और खूब पैसे हैं। कितना सुखी है।" और फिर तुम उसे आदर्श बना के कहते हो, "मुझे भी ऐसा ही जीवन जीना है।"

और तुम देखते हो किसी फ़क़ीर को, किसी कबीर को — और देखते हो उसकी बदहाली को, देखते हो उसके फटे वस्त्रों को और कहते हो, "ऐसा जीवन हमें नहीं जीना।" हम इन दोनों की तुलना कर रहे हैं, तो ज़ाहिर हो जा रहा है कि ये व्यक्ति जो बड़ी गाड़ी में चलता है, ऊँचे महल में रहता है, ये सुखी है। ये क्यों सुखी है? क्योंकि इसके जीवन में परमात्मा जैसी कोई वस्तु नहीं।

और कबीर दुखी है, संत दुखी है, क्योंकि उसके जीवन में परमात्मा ही परमात्मा है। निष्कर्ष तुम ये निकालते हो कि जो परमात्मा के साथ जाएगा, वो दुखी रहेगा। और सुखी रहने का तरीक़ा है — संसारी हो जाना, सत्य को भुला देना।

ज़माना आज सत्य को भुलाए बैठा है तो उसकी वजह यही तुलना, यही भ्रम है। बोलो हाँ कि ना? तुम्हें दिखते हैं कि नहीं सड़कों में, शहरों में हज़ारों ऐसे लोग जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन वो हट्टे-कट्टे, हष्ट-पुष्ट और सुखी नज़र आते हैं, और उनमें विश्वास बहुत है, उनमें अकड़ भी पूरी है। उन्हें यक़ीन पूरा है कि हम जो कर रहे हैं, बिल्कुल ठीक कर रहे हैं। और उन्हें उनके यक़ीन की कोई सज़ा मिलती नहीं दिखती।

शास्त्र तुम्हें बताते हैं कि जो परमात्मा से दूर होगा, वो नर्क में सड़ेगा। वो किसी नर्क में सड़ते दिखाई नहीं देते। तो तुम कहते हो — "शास्त्र झूठ ही बोलते होंगे, वेदों-उपनिषदों ने जो बताया वो भ्रम होगा।" क्योंकि ये लोग तो हर प्रकार के कुकर्म करते हैं, हर प्रकार के पाप में आकंठ डूबे हैं — तब भी हम नहीं देखते कि इन्हें कोई सज़ा मिल रही है। बोलो हाँ कि ना? और चूँकि कोई सज़ा उन्हें मिलती दिखती नहीं तो तुम कहते हो, "इनका मार्ग हमारे लिए भी ठीक है।" तुम उन्हीं के पीछे-पीछे चल देते हो। बोलो हाँ कि ना?

शास्त्र तो बताते हैं, कबीर तो बताते हैं, कि साधु घर आए तो पलक पावड़े बिछा दो। और लोग हैं ऐसे कि साधु अगर घर आए, तो घुस जाते हैं शयन कक्ष में और कमरा बंद करके सो जाएँगे। कबीर की सुनो तो ऐसे लोगों को तो नर्क का भागी बनना चाहिए, पर तुम देखते नहीं कि उन्हें नर्क मिलता है। तो तुम कहते हो, "ठीक है, जब इन्हें नर्क नहीं मिला, तो पक्का हो गया कि कबीर झूठे थे।"

उन्हें नर्क मिल रहा है और उसका प्रमाण ये है कि वो साधु का सामना नहीं कर सकते। साधु का सामना न कर पाना ही तो नर्क है। जो साधु के सामने आने पर मुँह छुपाकर के भाग जाए, सो जाए — वो तो पहले ही नर्क में है। अब उसे और कौन सा नर्क मिलेगा? जिसे क़दम-क़दम पर जीवन से पलायन करना पड़े, मुखौटे पहनने पड़ें और झूठ बोलने पड़ें — वो तो पहले ही नर्क में है, उसे अब और कौन सा नर्क मिलेगा? वो सज़ा भुगत ही रहा है। बात आ रही है समझ में?

हम में से जो लोग सुखांक्षी होते हैं, उन्हें मीरा पसंद नहीं आएँगी। वो कहेंगे, "क्या रो रही है! 'दरस बिन दुखन लागे नैन।' आँखों से आँसू झर रहे हैं, शरीर कंपित हो रहा है, शब्द बाण की तरह चुभते हैं, नींद नहीं आती है, सेज पर काँटे बिछे हैं। अरे! हमें नहीं जीना ऐसा जीवन। अगर ये है भगवत्ता से दिल लगाने का अंजाम, तो हमें नहीं चाहिए ऐसी भगवत्ता!" यही कहते हो ना?

रोंदू-रोतड़ू-सी प्रतीत होती है मीरा। होती है कि नहीं? कि बैठे-बैठे कोई स्त्री रो रही है। अब ये तुम्हें बहुत भाएगी तो नहीं ना? ना वो तुम्हें लुभा रही है? ना वो मधुर प्रेम के गीत गा रही है। क्यों बैठे-बैठे आँसू बहा रही है? और वो भी किसके वियोग में? किसको उसने पति बना लिया है? ऐसा कोई जिसका शरीर ही नहीं! ऐसा कोई जो आत्मा मात्र है! ऐसी मीरा तुम्हें पसंद क्यों आएँगी?

पर ये जान लेना अच्छे से — कि यदि मीरा का वियोग नहीं तुम्हारे पास, तो उसका विकल्प ये नहीं है कि तुम्हें सुख मिलेगा। उसका विकल्प ये है कि तुम्हें महादुख मिलेगा। मीरा जो दुख प्रदर्शित कर रही हैं, वो बड़ा मीठा और छोटा दुख है। और यदि तुम्हें वो दुख नहीं मिल रहा जो मीरा को मिल रहा है — तो तुम्हें महादुख मिलेगा। तो चुनाव दुख और सुख में नहीं है। चुनाव है यहाँ पर, मीरा के मीठे वियोग के दुख में और संसार के नर्क के महादुख में। चुन लो जो चुनना है।

भाई बात सीधी है। मीरा का ये गीत हो और इसके बगल में, इसके समांतर कोई उत्तेजना-पूर्ण, रसपूर्ण, कामुकता-पूर्ण गीत रख दिया जाए — जिसमें से प्रसन्नता की लहरें उठती हों, जिसमें से आशा की सुगंध उठती हो, जिसमें तुम्हारे लिए हसीन स्वप्न हों। तो सच-सच कहना, कौन से गीत पर उंगली रखोगे? बोलो। एक तरफ़ मीरा के आँसू हैं, और मीरा की विकट स्थिति है कि एक स्त्री परमात्मा से प्रेम में पड़ गई है। कैसी अजीब, विकट हालत!

और दूसरी तरफ़ कोई गीत हो, जो तुम्हें सफलताके, समृद्धि के, देह के सुख के स्वप्न दिखाता हो तो ज़ाहिर-सी बात है, कौन सा गीत चुनोगे तुम? कहो कौन सा गीत चुनोगे? गलत चुनोगे। ज़ोर देकर कह रहा हूँ — गलत चुनोगे।

मीरा के दुख में आनंद है। और जो सुख तुम चुनोगे, उस सुख में अनंत पीड़ा की ज्वाला है। दिखावे पर मत जाना, अपनी अक़्ल लगाना।

नियत तुम्हारी यही है कि दुख से बच के रहो। पर तुम दुख का विकल्प सुख को मानते हो, इसलिए निरंतर दुख में ही फँसे रह जाते हो।

जिन्हें दुख से बचना हो, उन्हें दुख से हटकर सुख की ओर नहीं भागना होता। उन्हें योग की ओर जाना होता है। योग है, दुख से निवृत्ति। दुख से बचोगे सुख की ओर जाकर नहीं, दुख से बचोगे योग की ओर जाकर। और योग का क्या अर्थ है? योग का अर्थ है, मन को आत्मा में लीन कर देना। यही योग है।

मन पर अगर दुख छा रहा हो, तो उसका उपचार ये नहीं है कि जाकर किसी उत्सव में शरीक हो गए या बाज़ार जाकर कुछ चीज़ें ख़रीद लाए, या कोई फ़िल्म इत्यादि देख ली या मनोरंजन का कोई और साधन ढूँढ लिया। दुख जब जीवन पर छा जाए तो उसका एक ही इलाज है — सत्य। लेकिन हालत तुम्हारी कुछ ऐसी रहती है कि दुख तुम पर जितना छाता है, तुम सत्य से और उतना ही दूर भागते हो।

कह गए होंगे कबीर, "दुख में सुमिरन सब करें।" तुम दुख में भी नहीं सुमिरन करते। तुम दुख में सुमिरन करते भी हो तो जानते हो किसको? सत्य को नहीं, सुख को। तुम्हारा दुख जितना गहराता है, तुम उतना ज़्यादा सुख का सुमिरन करते हो। "आहा... वो भी क्या दिन थे।" और "आहा... वो भी क्या दिन होंगे जब ये दुख छट जाएगा।" सत्य का कहाँ तुम सुमिरन करते हो?

यदि दुख में तुम सत्य का सुमिरन कर रहे होते, तो फिर तो पूरा संसार ही सत्य का सुमिरन करता नज़र आता, क्योंकि दुखी तो सब हैं। ऐसे निर्लज्ज हैं, इतनी मोटी खाल है कि जितना हमारा दुख गहराता है, उतना ही हमारा अँधेरा गहराता है। दुख हमारे लिए रोशनी लेकर नहीं आता, दुख हमें और अंधियारा कर जाता है। बात आ रही समझ में?

मीरा के वियोग को आनंद का प्रस्फुटन जानना। इसीलिए शुरू में ही तुमसे कहा, कि वियोग की अनुभूति मात्र उनको होती है जो योगस्थ हैं। जिसका योग हो गया, उसे ही प्रतीत होगा वियोग। तो सौभाग्य वाले होते हैं वो, जिन्हें दर्द उठता है। कल इसीलिए कह रहे थे तुमसे, रूमी: "खोज दर्द, खोज दर्द, दर्द और दर्द।" बड़े भाग होंगे तुम्हारे अगर तुम्हारे सीने में परमात्मा की हूक उठे।

आम आदमी को नहीं उठती। आम आदमी को तो अगर सीने में दर्द हो तो समझ लेना कि एसिडिटी है। कोई सीने पर हाथ रख के घूमता हो और "आ..हा..हा..हा" करता हो, तो उसको राम की नहीं याद आ रही है — कल ज़्यादा अधर के खा लिया था, ये हुआ है बस। आ रही है बात समझ में?

बड़ी किस्मत वाले होते हैं वो, जिनकी आँखों से राम के नाम के आँसू निकलते हैं।

रोते तो तुम खूब हो, पर तुम्हारी आँखों से एक आँसू राम के नाम का नहीं झरता। और हर चीज़ के लिए झर जाएगा। खाल में खरोंच आ जाए, उसके लिए रो बैठोगे। कोई दो चुभते शब्द बोल जाए, उस पर भी रो बैठोगे। रोने में कोई कमी नहीं है। राम के लिए रोए हो कभी? तो बड़भागी होते हैं वो, जो राम के लिए रोते हैं। राम के नाम पर तो हमारा दिल और आँखें सब सूख जाते हैं।

अब एक और अंदर की बात जान लो। जो राम के नाम पर रो लिया, उसे अब और किसी नाम पर रोने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। और अगर तुम पाते हो कि ज़िंदगी तुमको हज़ार नाम ले-ले के रुलाती है हज़ार तरीकों से, हज़ार माध्यमों से, हज़ार जगहों पर, हज़ार कारणों से — तो जान लेना कि तुम उस एक के नाम पर नहीं रोए, जिसके नाम पर तुम्हें फूट-फूट के रो लेना चाहिए था। उसके नाम पर रो लिए होते, तो बाक़ी जगहों पर न रोना पड़ता।

अब चुनना तुम्हें है — या तो एक बार रो लो, या रोज़-रोज़ मरते रहो, खटते रहो, रो-रो के घुलते रहो। देख लो बुद्धिमानी कहाँ पर है। मीरा रो रही हैं, पर मीरा का अंतर्मन मुस्कुरा रहा है। और हम हँसते हैं, और भीतर ही भीतर बिलख-बिलख के रोते हैं। बताओ भला कौन हुआ? बताओ बेहतर कौन हुआ? बोलो। मीरा रो रही है, भीतर मुस्कुरा रहे हैं श्रीकृष्ण।

मीरा के गीतों में दर्द है, पर भीतर श्रीकृष्ण की मुरली की मिठास। शब्द मीरा के हैं, संगीत श्रीकृष्ण का है। और हमारे पास बाहर-बाहर मिठास है और भीतर अथाह वेदना की कड़वाहट। इसीलिए हम हँसते हुए कितने अजीब लगते हैं न। कोई आदमी गाली देता हो, उसका चेहरा विकृत हो गया हो, वो फिर भी थोड़ा सहज लगता है। पर किसी आदमी को मुस्कुराते हुए देखो — वो कितना बनावटी, कितना प्लास्टिक लगता है। क्योंकि हमारी मुस्कुराहट बड़ी विसंगति है।

भीतर हो दर्द का ज्वार और ऊपर-ऊपर तुम रहे हो मुस्कुरा, ये तो बड़ी अटपटी बात हुई न? तो लगती अजीब है फिर। ऐसी हालत हो गई आदमी की आज कि जब वो गाली देता हो, जब वो हिंसा में हो, जब उसका चेहरा बिगड़कर डरावना हो गया हो, तब वो ज़्यादा असली लगता है। और जब वो मीठे वचन बोलता हो, हँसता हो, मित्रता की और प्यार की बातें करता हो, तब ज़ाहिरी तौर पर बड़ा नकली लगता है। ऐसी हालत हो गई है हमारी। विकृति हमारी प्रकृति बन गई है।

कल रूमी आपसे कहते थे, आज मीरा आपसे कहती हैं। और मीरा के साथ मैं आपसे कहता हूँ, इस दर्द को अपने में उतर जाने दीजिए। रो लीजिए। आप किससे छुपा रहे हैं? अपने आप को ही बना रहे हैं। आप किसको दिखा रहे हैं कि आप हँस रहे हैं? आप किसको दिखा रहे हैं कि जीवन में बड़ी प्रसन्नता है, आह्लाद है? जो है, हालत आपकी उसको खुलेआम बयान कर दीजिए।

पीड़ा का एक सागर है मन। इसीलिए उसको नाम दिया गया है — भवसागर। होना ही पीड़ा है।

ये कोई संयोग नहीं है कि सत्य के संपर्क में आते ही आँखों से आँसू झरने लगते हैं। इस बात ने कभी आपको हैरान नहीं किया, कि झूठ के संपर्क में आओ तो हो सकता है हँसने भी लग जाओ। पर सत्य जब सामने आता है, आँखें बेवजह नम हो जाती हैं। ये होता नहीं है? इसीलिए होता है क्योंकि सत्य जब भी सामने आएगा, आपके अंदर की पीड़ा के ऊपर का आवरण हटाएगा। वो सत्य है न, आवरण झूठ होता है। सत्य का काम ही है तथ्य को खोलकर रख देना, हकीकत को उजागर कर देना। और हकीकत ये है कि हमारे भीतर पीड़ा लहरा रही है। इसीलिए आँसू, इसीलिए आँखें छलछला जाती हैं।

क्या रखना है? बाहर-बाहर आँसू और भीतर आनंदघन? या बाहर कृत्रिम प्रसन्नता और भीतर दर्द का सैलाब? बोलो। क्या है ज़्यादा सुंदर, असली आँसू या नकली मुस्कुराहट?

श्रोता: असली आँसू।

आचार्य प्रशांत: चुन लो। और जो चुनो, फिर उस पर अडिग रहना। हमारी आँखें सूखी ही रह जाएँगी। इतने बड़भागी हम नहीं कि मीरा सामने हो, तब भी रो पाएँ। हाँ कोई चुटकी काट दे, ज़रूर रो पड़ेंगे — उई माँ! तुम्हारा मोबाइल चोरी हो जाए, तुम रो पड़ते हो। तुम्हारा जीवन चोरी हुआ जाता है, तुम्हें दो बूँद आँसू नहीं आते?

खुशी की फ़सल हैं और हँसी का हँसिया — काटो-काटो! समृद्धि का ज़माना है, जवानी है, जाम है, पैमाना है! अरे, काटो-काटो! हँसी-खुशी, हँसी-खुशी! मीरा तो आउटडेटेड है, पुरानी, तितबाह्य। रोती है पगली। हम तो हँसते हैं, झूमते हैं, खिलखिलाते हैं। और जब भीड़ छट जाए, तब अकेले में जाते हैं और गंधाते हैं।

धूमिल की पंक्तियाँ हैं, ठीक-ठीक याद नहीं पर जो अभी कहा उससे बड़ी मिलती-जुलती हैं। कुछ ऐसा कहते हैं वो:

"जब-जब सभा में होता हूँ, बहस में होता हूँ, रह-रह कर चहकता हूँ। हँसता हूँ, बतियाता हूँ, पर फिर अपने कमरे के निर्जन एकांत में जाकर, पाँव से निकाले गए मोज़े जैसा गंधाता हूँ।"

उत्सव के बाद की, श्रृंगार के बाद की शक़्ल देखी है अपनी? उतर जाते हैं जब नक़ाब, घुल जाता है जब मेकअप — कैसे लगते हो? जब मीरा के आवरण उतरते हैं, तो मीरा की सुंदरता और निखर कर सामने आती है। और जब हमारे आवरण और आभूषण उतरते हैं, तो हमारी कुरूपता और विभत्स रूप में सामने आती है। ये अंतर है हम में और मीरा में।

मीरा जितनी आवरणमुक्त होती जाएँगी, उतना उनका सौंदर्य और उभरेगा। हम जितने आवरणमुक्त होते जाएँगे, हमारा विकृत चेहरा उतना और भयानक लगेगा। कहिए — हम भले कि मीरा?

जब से तुम बिछुरे प्रभु जी, कबहूँ न पायो चैन।

उन्हें ये तो एहसास है न, कि पिया मिल भी सकते हैं। और कोई पल ऐसा था, जब पिया बिछड़े हुए नहीं थे। आप बता दीजिए, आपके अंतर मन में हल्की से हल्की भी स्मृति है पिया की? पिया माने सत्य। पिया माने परमात्मा। पिया माने वो जिसकी आपको निरंतर तलाश है। बिछड़ने की बात तो वो करें न, जिसको कभी पिया का साथ मिला हो। जो कभी सधवा हुई हो, उसको पति का वियोग सताए। जो जन्मजात विधवा हो, उसको पति के सहचर्य का पता क्या?

हमारी हालत है — जन्मजात विधवाओं जैसी। तो हमें पति का दुख, पति का वियोग कुछ पता भी नहीं चलता। पति माने कोई पुरुष इत्यादि नहीं। पति माने परमात्मा। पति माने सत्य। मीरा कहती है — “जब से तुम बिछुरे प्रभु जी, कबहूँ न पायो चैन।"

हमारे पिया कब बिछड़े? आप बताइए। जानते हो पिया बिछड़ते कैसे हैं? जब ज़िंदगी में बहुत सारे नकली पिया आ जाते हैं। जितनी तुम्हारी ज़िंदगी नकली स्वामियों से, नकली मित्रों से, नकली सहचरों से, नकली पतियों से भरी हुई रहेगी — उतना ज़्यादा तुम्हारी ज़िंदगी में अवकाश, स्थान कम रहेगा असली पति के लिए।

नकली पति माने क्या? जो भी तुम पर नियंत्रण कर ले, तुम्हारा स्वामी बन जाए, वही तुम्हारा पति। पति का अर्थ ही होता है, नियंत्रणकर्ता स्वामी। तुम देख लो, कितने तुम्हारे स्वामी हैं। बाज़ार से चली जा रही हो, कोई दिख गई दुकान रंग-बिरंगी, भड़कीली, वही नहीं तुम्हारी स्वामी हो जाती? बोलो हो जाती है कि नहीं? कहो हो जाती है कि नहीं?

बाज़ार में गाड़ी का एक नया मॉडल आया, वही नहीं तुम्हारा पति हो जाता? जो कुछ भी तुम्हारे मानस को आच्छादित कर दे, वो तुम्हारा पति हो गया। जो भी तुम पर कब्ज़ा कर ले, वही तुम्हारा पति हो गया। कोई विचार तुम्हारे मन में चल रहा है यदि, तो वो क्या हो गया? पति तुम्हारा। और बताओ तुम्हारे मन में विचार नहीं उमड़ते-घुमड़ते रहते? तो कितने तो पति हैं तुम्हारे।

कबीर इसीलिए तो बार-बार सती की बात करते हैं। एक होती है सती और दूसरी होती है, कौन? व्यभिचारिणी। व्यभिचारिणी कौन? जिसके हज़ार पति हैं। हज़ार पतियों का मतलब समझते हो क्या है? हज़ार पतियों का ये मतलब नहीं है कि तुम हज़ार पुरुषों की संगत कर रहे हो। हज़ार पतियों का मतलब है कि तुम्हारे मन में हज़ार ऐसे विषय हैं जो तुम पर क़ब्ज़ा किए बैठे हैं।

“मेरी प्रोन्नति कब होगी? मेरा घर कब बनेगा? मेरी नई नौकरी कब लगेगी?” अब ये सब पति हैं तुम्हारे, और हज़ार पति हैं तुम्हारे। जिनके हज़ार पति हों, कबीर उन पर थूकते हैं। मीरा होने का मतलब है कि अब एक ही पति होगा मेरा। नाम है उसका श्रीकृष्ण, नाम है उसका "सत्य"। और किसी ख़्याल को मैं तवज्जो दूँगी ही नहीं।

जिस भी चीज़ को तुमने अपने मन पर छा जाने दिया, वही चीज़ हो गई तुम्हारा पति। असली पति तुम्हें इसीलिए उपलब्ध होकर भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि तुमने बहुत सारे नकली पति पाल रखे हैं। अपने नकली पतियों की सूची तो बनाओ ज़रा। बनाओ, बनाओ।

सबद सुणत मेरी छातियाँ कांपि, मीठी-मीठी बैन।

छाती इसलिए काँपती है क्योंकि वहाँ गूंज उठती है। “अनुगूँज” समझते हो? “रेज़ोनेंस।” मैं एक दिन बोध स्थल पर था। वहाँ एक अजीब नज़ारा देखता था, जहाँ पर तख़्त बिछे हैं उसके ऊपर स्पीकर लगे हैं। तो एक दिन उसमें गाना बज रहा था। और जो बाँस खड़े हैं न, जिन पर कुछ गमले भी लगे हुए हैं, वो तारों से बंधे हैं दीवारों से। बाँस दीवार से, तार से बंधा है।

तो गाना बज रहा है, गाने में झंकार है। और मुझे खिड़की से चार तार दिखाई दे रहे थे। चार बाँस हैं, चार बाँसों को बाँधने वाले चार अलग-अलग तार। और गाने की झंकार के साथ सिर्फ़ एक तार था जो झंकृत हो रहा था, सिर्फ़ एक में रेज़ोनेंस हो रही थी। बाक़ी तीन में नहीं हो रही थी।

परमात्मा का शब्द तो जगत में चहुँदिशा व्याप्त है। पर आपके भीतर झंकार होती है क्या? मीरा के भीतर होती है। वो कह रही है, “शब्द सुनत मेरी छतियाँ काँपे।” आपकी नहीं काँपेगी। ऐसा नहीं कि वो झंकार, वो गीत, वो शब्द आप तक नहीं पहुँच रहे। पहुँच आप तक भी रहे हैं। लेकिन आपकी फ्रीक्वेंसी मेल नहीं खा रही। रेज़ोनेंस की अनिवार्य शर्त ये है कि? कुछ “साम्य” होना चाहिए आप में और उसमें। फिर उसकी आवाज़ जब आएगी, तो आप भी काँपने लग जाओगे।

वैसे ही जैसे रेडियो का आप चैनल सेट करते हो। प्रसारण तो निरंतर आ ही रहा होता है, तरंगें तो निरंतर आ ही रही होती हैं। पर जैसे ही सुई से सुई मिलती है, जैसे ही वो मिलाप होता है — वैसे ही गीत बज उठता है। अन्यथा गीत नहीं बजता।

तो परमात्मा की आवाज़ तो लगातार आ ही रही है, पर आप कहीं और हैं। इसीलिए मेल नहीं बैठता। सुई से सुई मिलती नहीं, छाती इसीलिए काँपती नहीं। अन्यथा तो ये दीवार और क्या है? ये परमात्मा का चेहरा है। ये हवा और क्या है? ये परमात्मा की साँस है। ये पेड़, ये पक्षी और क्या हैं? ये परमात्मा के पैग़ंबर हैं। हर कोई आपसे एक ही कहानी बयान कर रहा है। आप सुन कहाँ पाते हैं? सुन नहीं पाते। तो आपका मन काँप उठे, आपका अंतर जगत कंपित हो उठे — इसकी कोई संभावना ही नहीं।

कोई आकर के आपको सुंदर से सुंदर, मार्मिक से मार्मिक कहानी सुनाता हो, पर वो आपको सुनाई ही न देती हो, तो उसका आप पर प्रभाव क्या पड़ेगा? हम कहीं और हैं। तो जो हमसे कहा जा रहा है, वो हमें सुनाई ही नहीं देता। मैं भी अभी आपसे बोल रहा हूँ — पक्का है मुझे, हम में से कईयों को सुनाई नहीं दे रहा। शब्द कान पर तो पड़ रहे हैं, हृदय तक नहीं पहुँच रहे। जब पहुँच ही नहीं रहे, तो हृदय काँपेगा कैसे? मीरा का हृदय काँपता है — “शब्द सुनत मेरी छतियाँ काँपे, मीठे लागे बैन।”

कहीं और मत रहिए। कहीं और कुछ है ही नहीं। आप जहाँ हैं वो जगह अस्तित्व में है ही नहीं। और जो जगह है ही नहीं, वहाँ कौन होगा? जो स्वयं है ही नहीं। आप यदि कहें कि आप एक ऐसी जगह पर बैठे हुए हैं जो है ही नहीं, तो इसका मतलब, आप कौन हैं? आप भी फिर हैं ही नहीं। और हम में से अधिकांश लोग ऐसी ही जगहों पर होते हैं निरंतर, जो हैं ही नहीं। कृपया वापस आ जाएँ। वापस आ जाने को ही कहते हैं "योग"। योग और कुछ नहीं है, घर वापसी जैसी चीज़ है। कोई खो गया था, वो वापस आ गया। बात समझ रहे हो?

तुम जहाँ जा बैठे हो, वो जगह है ही नहीं। सोचो, कितनी हास्यास्पद और डरावनी स्थिति है तुम्हारी! तुम पेड़ की एक ऐसी डाल पर बैठे हो, जो डाल है ही नहीं। और तुम बैठे हुए हो। तुम्हारा होगा क्या? थोड़ा सा और बताऊँ? वो पेड़ भी है ही नहीं। और तुम बैठे हुए हो! अब तुम बताओ, तुम हो या नहीं? पर तुम बैठे हुए हो।

अपनी नज़र में तुम बैठे हुए हो, तुमने घर बसा रखा है वहाँ। उस डाल को तुम “घर” कहते हो। उस पेड़ को तुम “दफ़्तर” कहते हो। वहाँ तुम बैठे हुए हो और तुम्हें बड़ा भरोसा है। तुम उसके दम पर जीवन काटना चाहते हो। तुम कहते हो, इन्हीं का तो आसरा है। और ये जो सब पत्तियाँ हैं — ये मेरे स्वजन, परिजन, परिवार वाले। वो सब है ही नहीं, और तुम उनके मत्थे भवसागर पार करोगे। बढ़िया!

जब किसी डूबते की स्थिति का वर्णन करना होता है, तो हम कहते हैं "डूबते को तिनके का सहारा।" हमारी हालत ये है कि डूबते को "सपने" का सहारा। तिनका भी उपलब्ध हो जाए, तो कुछ तो संभावना है क्या पता बच जाओ। हमें तिनका भी नहीं उपलब्ध है — हमें “तिनके का सपना” उपलब्ध है। कोई डूब रहा है, और सपना ले रहा है कि हमें तिनका आएगा बचाने — ऐसी हमारी स्थिति है।

और जहाँ से सहारा मिल सकता है, उसको हम धकियाते हैं, उसको टालते रहते हैं, “अरे नहीं, आज नहीं कल, देखेंगे।” जिसको तुम कल के लिए टाल रहे हो — वो तो कल भी रहेगा, और परसों भी और समय के अंत तक। पर ये बता दो, "कल" तुम रहोगे? तो किस हिम्मत से टाले जाते हो, “कि आज नहीं, कल?” कल तक तुम रहोगे? तो ये टालमटोल का खेल क्या है?

“एक टकटकी पंथ निहारूँ, भई चामासी रैन।”

एक पल, छह मास जैसा हो गया। एक रात छह मास जैसी हो गई, इंतज़ार करते-करते। एक समय वो होता है जो घड़ी में दिखाई देता है, और एक घड़ी वो होती है जो मन में टिक-टिक चलती है। हमारे लिए ज़्यादा प्रासंगिक, "आंतरिक घड़ी" होती है। बाहर जो घड़ी है, वो बहुत महत्त्व की नहीं है। असली घड़ी वो है जो भीतर चलती है। आपका जो क्षण “आनंद” का होता है, वो ठहर जाता है। और आपका जो क्षण “ऊब” का होता है, वो खिंच जाता है। कष्ट का एक मिनट भी एक घंटे समान होता है। बाहर की घड़ी को देखोगे तो दिखाई देगा, एक मिनट। और भीतर से पूछोगे तो कहेगा, घंटों बीत गए। बात आ रही है समझ में?

समय का पता ही तब चलता है, जब आप कष्ट में हों। जब आप कष्ट में नहीं होते, तो समय ठहर जाता है। अपना एहसास ही नहीं कराता। अब आप बताइए — अपने जीवन को देखकर और संसार को देखकर, संसार के लिए समय बड़ी बात है कि नहीं है?

समय का यदि आपको पता चल रहा है, यदि आपको घड़ी की ओर देखना पड़ रहा है — तो इसका अर्थ यही है कि जीवन की दशा, दिशा ठीक नहीं।

बिरह-बिथा काँसू कहूँ सजनी, बह गई करवत थैन। कल न परत पल हरि मन जोवत, भाई छमासी रैण।

फिर वही मज़ाक दोहरा रही हैं मीरा। प्रभु मिले हैं तभी तो प्रभु से शिकायत कर रही हैं। मिले हुए प्रभु से कह रही हैं, “कबरे मिलोगे?” अगर तुम किसी से शिकायत कर पाते हो, तो ये साक्ष्य है इस बात का कि तुम्हारा उससे कुछ संबंध है। तुम्हारी उससे कुछ नज़दीकी है। हम तो शिकायत भी न कर पाएँ।

आप देखिए ग़ौर से — आप ज़िंदगी में सबसे शिकायत करते हो, परमात्मा से नहीं करते। और आप हर चीज़ की शिकायत करते हो, वियोग की नहीं करते। आपको "डबल रोटी" न मिले, आप शिकायत कर बैठोगे। आपको परमात्मा नहीं मिला है, आपने कभी शिकायत नहीं की होगी। बाएँ पाँव की चप्पल न मिले, दुनिया सर पर उठा लोगे।

कभी कहा है, "सत्य नहीं मिल रहा सुबह से ढूँढ रहे हैं, इसीलिए मन बड़ा खिन्न है।" सत्य की औक़ात बाएँ पाँव की चप्पल जितनी भी नहीं। अभी एक काग़ज़ दे दूँ आपको,और कहूँ कि लिखिए — कि क्या-क्या चाहिए जीवन में, अपनी 10 प्राथमिकताएँ। उसमें पहले बाएँ पाँव की चप्पल लिख दोगे, फिर दाएँ पाँव की चप्पल लिख दोगे, फिर नया टूथब्रश लिख दोगे, फिर सोने का जाँघिया लिख दोगे, फिर नरम तकिया लिख दोगे, फिर मुलायम गुलाब जामुन लिख दोगे, पड़ोसी का कुत्ता लिख दोगे, सास की नेल पॉलिश लिख दोगे । “सत्य” लिखोगे? “श्रीकृष्ण” लिखोगे?

वो कह रहे हैं — "मैं लिखूँगा गैस की गोली"। आप गैस की गोली की महत्ता और महानता जानते नहीं हैं, वो आपको तब पता चलेगी जब गैस उठेगी। तब श्रीकृष्ण, मीरा सब भूल जाएँगे। मैं कहता हूँ — सबसे ऊपर जो है, उसे ही तो “गैस” कहते हैं, क्योंकि गैस ऊपर उठती है। तो परमात्मा में क्या ऊँचाई है, जो गैस में है। एक घंटा फेसबुक के बिना चला जाए तो पगला जाते हो। और पूरा एक जन्म “सत्य” के बिना चला गया — तुम्हें कुछ नहीं हुआ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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