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पुरुषार्थ या प्रारब्ध? || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: ये भी संवाद का एक बड़ा आम सवाल रहता है कि प्रारब्ध ज़्यादा महत्वपूर्ण है या पुरुषार्थ। ‘पुरुषार्थ’ मतलब, ‘मैं करके दिखाऊँगा’ और प्रारब्ध मतलब, ‘मैं क्या करूँ? सब पहले से ही तय है।’ दोनों ही अहंकार के लिए ही हैं।

प्रारब्ध भी अहंकार का है और पुरुषार्थ भी अहंकार का है। प्रारब्ध कहता है, "करना चाहते हैं, कर नहीं सकते।" पुरुषार्थ कहता है, "करना चाहते हैं, करके दिखाएँगे।" जो प्रारब्धवादी है वो कहता है, "करना तो चाहते हैं पर क्या करें किस्मत ही ऐसी है।" पुरुषार्थ-वादी क्या कहता है?

श्रोतागण: “करना चाहते हैं, करके दिखाएँगे”।

आचार्य: और दोनों ही बातें क्या हैं?

श्रोतागण: अहंकार की।

आचार्य: लेकिन अब सवाल तुम पूछते हो संवाद में तो यह ही पूछते हो कि, "सर, प्रारब्ध ज़्यादा महत्वपूर्ण है या पुरुषार्थ?" तुम को पता भी नहीं है कि तुम प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बारे में पूछ रहे हो पर पूछ तुम वही रहे हो। अब क्या जवाब दें?

और जब जवाब दिया जाता है कि दोनों ही अनुपयोगी हैं क्योंकि दोनों में ही कर्ता-भाव है, तो फिर तुम कहते हो कि, "आपने हमारे सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया। मैंने तो पूछा था कि दोनों में से चुन कर बता दो; पुरुषार्थ या प्रारब्ध? और आपने कहा कि दोनों ही गड़बड़ हैं। ऐसा कैसे हो सकता है?"

ना प्रारब्ध, ना पुरुषार्थ।

प्रश्नकर्ता: विचार तो समर्पण में भी कहीं-न-कहीं वो ही होता है कि हम कर नहीं सकते, इसलिए समर्पित हो जाते हैं।

आचार्य: तुम कह रहे हो कि समर्पण एक तरह का प्रारब्ध है?

प्र: नहीं, मैं फर्क जानना चाहता हूँ।

आचार्य: समर्पण और प्रारब्ध में? प्रारब्ध इतना ही नहीं कहता कि, "पहले से तय है तो मैं क्या करूँ?" प्रारब्ध कहता है, "पहले से जो तय है कि मुझे करना है, वो तो करूँगा।" कृष्ण गीता में अर्जुन को बोल रहे हैं न, "अपने प्रारब्ध के अनुरूप काम कर।" अब क्या है उसका प्रारब्ध? क्षत्रिय घर में पैदा हुआ है तो लड़। तुम पुरुष का शरीर लेकर पैदा हुए हो तो स्त्रियों की तरफ आकर्षित हो जाओ, ये प्रारब्ध है तुम्हारा। मनुष्य की देह लेकर पैदा हुए हो, तो एक प्रकार का चित्त रहेगा, यह प्रारब्ध है तुम्हारा।

प्रारब्ध का अर्थ है, "मैं मशीन हूँ" और मशीन का कोई माई-बाप नहीं होता। मशीन के पास चेतना ही नहीं है अपने माई-बाप जैसा कुछ सोचने की। समर्पण का अर्थ होता है, "मैं जान गया कि क्या यांत्रिक है, और मैं उसमें नहीं बन्धूंगा, समझ गया।" यही समर्पण है।

समर्पण का मतलब यह थोड़े ही होता है कि कोई खड़ा है, विशाल, विराट और तुम्हें उसके पाँव में जा कर बैठना है। यह जान जाना कि, "जो कुछ मैं अपना कहता था वो मेरा नहीं है", इसी का नाम समर्पण है। हमने कल समर्पण की व्याख्या की भी थी। क्या है समर्पण?

समर्पण यह नहीं है कि कहीं से लिया और कहीं दे दिया। समर्पण यह भी नहीं कि मैंने किसी को कोई चीज़ समर्पित कर दी। समर्पण है — वो ना पकड़ना जिसको पकड़ना ही बेवकूफी है। तुम बहुत समय से अपने हाथ में एक गरम कोयला पकड़े हुए हो, समर्पण है उसे गिरा देना। प्रारब्ध-वादी कहता है, "जब किस्मत में लिखा है कि कोयला पकड़ना है तो पकड़े हैं।" पुरुषार्थ वादी कहता है, "कसम उड़ान छल्ले की, छोड़ कर रहूँगा।" और वह पिछले बीस साल से पूरा पुरुषार्थ दिखा रहा है। पुरुषार्थ मतलब कोशिश। वो पूरी कोशिश कर रहा है उसे?

श्रोतागण: छोड़ने की।

आचार्य: और समर्पण का अर्थ है?

प्र: छोड़ दिया।

प्र१: तो फिर हम सवाल उठाएँगे कि यह जानने वाला कौन है?

आचार्य: जानता तो अहंकार ही है। जो दोनों को समझता है, वो दोनों ही से मुक्त हो जाएगा। ना वो यह कहेगा कि, "किस्मत है तो क्या करें?" और ना वो यह कहेगा कि, "हम बहुत कुछ कर सकते हैं।"

प्र२: और जब यह समझ जाएगा तब उसमें निष्ठा आ जाएगी।

आचार्य: नहीं ये समझने पर निष्ठा नहीं आती है। जो निष्ठा-युक्त होता है, वो इन दोनों से मुक्त हो जाता है। कल कहा था न, “भक्ति ज्ञान की माता है।” पहले सबसे वही आती है निष्ठा, भक्ति। वो आती है फिर ये सब आते हैं। हम प्रारब्ध से तो मुक्त होना चाहते हैं, हर आदमी की कोशिश लगातार यही रहती है कि किस्मत से मुक्त हो जाए। और शायरों ने खूब लिखा है कि हाथों की लकीरों को मिटा दो और ये कर दो, वो कर दो। यह सब क्या हैं? यह प्रारब्ध से मुक्त होने की हमारी?

श्रोतागण: इच्छा है।

आचार्य: क्योंकि प्रारब्ध दबाता है। और पुरुषार्थ आश्वासन देता है कि प्रारब्ध से मुक्त कर दूँगा। इन दोनों की लड़ाई में जीवन चलता रहता है – प्रारब्ध और पुरुषार्थ। शायर किसके साथ खड़ा हो जाता है? कभी प्रारब्ध के साथ, कभी पुरुषार्थ के पास। जब कहता है, "यह न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता", तो वो किसके साथ खड़ा है? प्रारब्ध के साथ खड़ा है। और जब कभी कहता है, "हाथों की लकीरों को मिटा दो", तब वो किसके साथ खड़ा है?

श्रोतागण: पुरुषार्थ के।

आचार्य: पर दोनों के साथ ही खड़ा होना बेवकूफी है।

प्र: श्रद्धा समझ लो एक तरह की रस्सी है जो अहंकार को उसकी तरफ खींचती है।

आचार्य: हाँ।

अच्छा है न तरीका, लगे रहो लगे रहो और जब हार जाओ तो बोलो, "प्रारब्ध था।"

अब ये सब बातें होने के बाद जब शायरी पढ़ना तो थोड़ी खुली आँखों से पढ़ना। "हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था। हमारी कश्ती वहाँ डूबी...

श्रोतागण: "जहाँ पानी कम था।"

आचार्य: अब ये क्या कर रहे हैं? यह किसको दोष दे रहे हैं? यह प्रारब्ध को दोष दे रहे हैं। "हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन।" यह किसके साथ खड़े हैं? यह पुरुषार्थ के साथ खड़े हैं। "नसीब में जिसके जो लिखा था वो उसकी किस्मत में काम आया। किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया।" यह क्या है?

श्रोतागण: प्रारब्ध।

आचार्य: "कभी किसी को मुकमल जहाँ नहीं मिलता। कभी किसी को ज़मी कभी आस्मा नहीं मिलता।" क्या है यह?

श्रोतागण: प्रारब्ध।

आचार्य: सब अहंकार है यह। इसमें कहीं कोई निष्ठा नहीं है। शायरों को समर्पित आदमी मत मान लेना।

प्र: जैसे प्रारब्ध एक मुखौटा है और पीछे उसके…

आचार्य: पुरुषार्थ बेचैन है, हाँ। "वक्त करता वफ़ा जो आप हमारे होते। हम भी गैरों की तरह आपको प्यारे होते।"

(श्रोतागण हँसते हैं)

"वक्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते।" क्या करें वक्त ने वफ़ा नहीं की। "वक्त ने किया क्या हसीन सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम।" असल में प्रारब्ध यह ही है — वक्त। प्रारब्ध का अर्थ है भूत से तादात्म्य। तो साहब ने लिख तो सही दिया, "वक्त करता जो वफ़ा।" पर दिक्कत यह है कि वक्त किसी से वफ़ा नहीं करता। वक्त खुद बेवफा है। वक्त पैदा ही ऐसे हुआ है कि बेवफाई हुई है।

जब अहंकार स्रोत से बेवफाई करता है, तो वक्त पैदा होता है। वक्त बेवफाई की पैदाइश है।

जब मन स्रोत के साथ बेवफाई करता है, तो वक्त पैदा होता है। तो वफ़ा कैसे करेगा? भूत और भविष्य अवैध संतानें हैं अहंकार की। ओशो कहा करते थे, "यह दुनिया अवैध संतानों से भरी हुई है, क्योंकि जो प्यार में पैदा हो, वही एक वैध संतान है।" अब तुम देखो न मन स्रोत से क्यों दूर होता है? प्यार का अभाव है। जैसे ही मन दूर होता है, भूत और भविष्य आ जाते हैं, तो वो अवैध संतानें हैं। जो भी कोई प्रेम में पैदा नहीं होता वो अवैध संतान है। इसलिए ओशो ने कहा कि तुम सब अवैध संतान हो, क्योंकि तुम विवाह से जन्मे हो, प्रेम से नहीं।

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