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मन की उचित दशा क्या?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु

बारह माहा(नितनेम)

वक्ता: मन का एक कोना, मन के दूसरे कोने पर न्योछावर है। एक मन है, और दूसरा मन है, और दोनों की अलग-अलग दिशाएँ हैं। नानक कह रहे हैं, ऐसा मन जो प्रभु की दिशा में है, प्रभु पर समर्पित है, उस मन पर बाकी सारे मनों की कुर्बानी देना ही उचित है।

मन दस खण्डों में विभक्त है। एक खंड बात कर रहा है किसकी? प्रभु की; और बाकी नौ खंड किसकी बात कर रहे हैं? एक खंड बात कर रहा है दुकान की, एक बात कर रहा है भूख लगी है, एक बात कर रहा है नींद आ रही है, एक बात कर रहा है, और धंधे हैं, एक बात कर रहा है कपड़ा-लत्ता, दस बातें…। नानक कह रहे हैं, बाकी नौ की सार्थकता बस इतने में है, कि वो कुर्बान हो जाएं, ‘उस’ पहले पर। कौन है प्रथम? तो मन दस बातें कहेगा, मन की दस बातें मन के दस हिस्से हैं। एक मन दस बातें नहीं कहता। यही तो मन का खंडित होना है न, कि मन क्या है? ‘मन के बहुतक रंग हैं’, दस टुकड़ो में जो बंटा वही मन है। जो मन एक दिशागामी हो गया, वो तो जल्दी ही लय हो जाएगा।

मन , मन रहता ही तब तक है, जब तक उसमें परस्पर विरोधी विचार उठते-गिरते रहते हैं।

कभी ये पलड़ा भारी, कभी वो पलड़ा भारी, कभी वो दिशा ठीक लगी, कभी ये दिशा ठीक लगी, कभी इस कोने। कौन सी दिशा जाना है? नानक ने सूत्र दिया है, उन सब लोगों को, जो जानना चाहते हैं कि कौन सी दिशा जाना है। कौन सी दिशा जाना है? किसको प्राथमिकता देनी है? किसको शक्ति देनी है, और किसकी कुर्बानी देनी है? उस मन को ताकत दो, जो प्रभु की दिशा जाता हो। उस मन को ताकत दो, जो प्रभु को मिलने को आतुर हो, और उस मन के साथ मत खड़े हो, जो पांच और दिशाओं में भाग रहा है। “जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु”, जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु।

जहाँ प्रभु है, उस तरफ जो दिशा जाती हो, वही तुम्हारी दिशा है। बाकी दिशाओं को तो छोड़ो। यही यज्ञ है, यही हवि है, यही समिधा है, और इसी का नाम कुर्बानी है; न्योछावर। यही एकमात्र उचित अर्थ है, न्योछावार शब्द का, त्याग भी यही है, अपरिग्रह भी यही है, सब एक ही परिवार के शब्द हैं, एक को समझ लिया, सबको समझ जाओगे। उप्रति भी यही है, तितिक्षा भी यही है। कृष्ण कहते हैं न “उपराम हो जा” उप्रति भी यही है, तितिक्षा भी यही है कि मन खंडित, और हर खंड की अपनी मांग, हर खंड की अपनी दिशा और अपनी इच्छा; किस खंड को बल देना है? कहाँ है विवेक? विवेक यही है न, उचित को चुनना, अनुचित को ठुकराना, कुर्बानी दे देना? नित्य को चुनना, और अनित्य के साथ न खड़े होना, यही है न विवेक? यही है। और यही संतों का कमाल होता है, कि चंद लफ़्ज़ों में, सब कुछ कह दिया; और इतने मीठे तरीके से। “जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु”, जो प्रभु नहीं है, जो सत्य नहीं है, उधर मुझे जाना ही नहीं। करूँगा क्या जा करके?

जो असत्य है , जो मिथ्या है, उसको कीमत ना देना ही त्याग है।

एक मौके पर मैंने कहा था कि तुम्हारे हाथ में जलता हुआ कोयला है, और तुम उसको छोड़ देते हो – यही त्याग है। कि तुम किसी सपने से आसक्त हो, बंधे बैठे हो, और तुम जग जाते हो, यही त्याग है। त्याग का अर्थ है: उसको छोड़ देना, जो कीमती था ही नहीं, तो छोड़ा भी तो क्या छोड़ा? त्याग में वास्तव में छोड़ने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि किसको छोड़ रहे हो? जो वैसे भी कीमती नहीं था।

त्याग का वास्तविक अर्थ छोड़ना नहीं है , जग जाना है।

हालाँकि छोड़ने जैसी घटना लगती है कि हो रही है, पर जब जो छोड़ा जा रहा है, वो वैसे भी बिना कीमत का है, तो उसे ‘छोड़ना’ कहना उचित होगा नहीं। उचित है कि बस इतना कहो कि जग गए, जान गए। ठीक इसी तरह कुर्बानी में ये कहना बिलकुल उचित नहीं होगा, कि बड़ी कीमती चीज़ की कुर्बानी दे दी। अहंकार को अच्छा लगता है कहना कि, ‘’मैंने अपनी बड़ी प्यारी चीज़ की कुर्बानी दे दी है। पर अगर अभी वो चीज़ प्यारी लग ही रही है, तो कैसी कुर्बानी। जो कहते हैं कि कुर्बानी, अपनी बड़ी प्यारी चीज़ की दो, उनसे पूछो कि यदि, अभी तुम्हारी आसक्ति इससे कायम है, तो कुर्बानी दी कहाँ?

कुर्बानी तो तब, जब कुर्बानी देने की ज़रूरत ही ना पड़े। तुम कहो पहले ये बहुत महत्वपूर्ण लगती थी, तो मन में विचार उठता भी था कि इसकी कुर्बानी दे दो। अब ये महत्वहीन लगती है, तो कुर्बानी भी क्यों दें? मन ने ही पकड़ रखा था, मन ने ही छोड़ भी दिया। कुर्बानी का अर्थ, कोई शारीरिक नहीं है, किसी वस्तु तो, किसी को दान कर दिया, कि किसी जानवर का गला काट दिया। पकड़ता कौन है? क्या हाथ पकड़ता है? क्या उँगलियाँ पकड़ती हैं? मन पकड़ता है, मन की ही पकड़ जब ढीली हो जाए, वही कुर्बानी है। पर मन की पकड़ ढीली तब होगी, जब मन को पहले ये दिखाई दे, कि कुछ और है जो बेशकीमती है, और मुझे उस दिशा जाना है। नानक यही कह रहे हैं: ‘प्रभु मिलन की दिशा जाओ, वो कीमती दिशा है, बाकी सब को छोड़ दो, इसी का नाम त्याग, इसी का नाम कुर्बानी, इसी का नाम उप्रति।

अब एक राज़ की बात: मन के सौ टुकड़ों में, एक वो हमेशा विद्यमान होता है, जो प्रभु दिशा जाने तत्पर है। वो ना हो, तो आप हो नहीं सकते। आपके होने का अर्थ ही है कि वो सदा मौजूद है। इसीलिए जो लोग मजबूरी का और लाचारी का दावा करते हैं, उन्हें मैं हमेशा कहता हूँ कि तुम ढोंग कर रहे हो। क्योंकि वो सत्य मौजूद है तुम्हारे भीतर, बस ये है कि, वो एक मन है और तुम्हारे पास निन्यानवे मन और भी हैं।

तुम ये कहने आओ मत कि, ‘‘मुझे पता नहीं है’’, तुम्हें पता है, पर तुम निन्यानवे और उलझनों में उलझे हुए हो। अब निर्णय तुम्हें करना है कि तुम उस एक की भी सुनो, उस एक की ‘ही’ सुनो। कभी किसी को ये शक ना हो कि मेरे मन में तो सिर्फ़ वस्तुओं का, और दुनियादारी का, और चालाकियों का ख्याल बैठा रहता है कि, ‘’मेरे मन के जितने हिस्से हैं, वो सब वस्तुओं से ही आसक्त है।’’ ना, तुम्हारे मन का जो सबसे महत्वपूर्ण, जो सबसे केन्द्रीय हिस्सा है, वो तो लगातार प्रभु को ही गा रहा है।

तुम जो भी हो, तुम जिस भी स्थिति के हो, तुम आदमी हो कि औरत हो, तुम बच्चे हो कि बूढ़े हो, तुम अमीर हो कि गरीब हो, तुम जैसे भी हो और जहाँ भी हो, तुम्हारे मन में वो हिस्सा लगातार मौजूद है, जो प्रभु की ओर ही जाना चाहता है, उसे कुछ और नहीं चाहिये, लगातार मौजूद है। तुम उसकी सुनो। नानक कह रहे हैं: ‘उसकी ही सुनो’, छोड़ो बाकियों को। बाकी छूट ही जाएंगे, जिस क्षण उसकी सुनने लगोगे।

बाकी सारे जो खंड हैं मन के, वो उठते-बैठते रहते हैं, वो केवल वस्तुओं से आसक्त हैं, और वस्तुएं बदलती रहती हैं समय के साथ, स्थान के साथ, पर मन का ‘वो’ एक बिंदु अचल है। उसको तो एक ही दिशा जाना है और वो एकटक देखे जा रहा है। मन का बाकी माहौल कितना बदलता रहे, वो एक है अकेला, जो उधर को ही देख रहा है। जैसे कि एक कमरे में बहुत सारे बच्चे मौजूद हों, और उस कमरे में खेलने के हजार खिलौने रखें हैं, और मिठाइयाँ रखी हैं, और मनोरंजन के उपकरण रखे हैं, और बहुत सारे बच्चे हैं, जो उनमें मगन हो गए हैं। कोई बच्चा, कोई खिलौना उठा रहा है और हज़ार खिलौने, और हज़ार मिठाइयाँ रखी हैं। पर एक बच्चा है, जो लगातार खिड़की से बाहर को देख रहा है कि माँ कहाँ है। उसे कमरे के भीतर का कुछ चाहिये ही नहीं। और बच्चों के हाथ के खिलौने, और मिठाइयाँ और डब्बे बदल रहे हैं, वो एक दिशा से दूसरी दिशा भाग रहे हैं, कभी ये उठाते हैं, कभी वो उठाते हैं, पर ये बच्चा एकटक बस खिड़की से बाहर देख रहा है- ‘माँ के पास जाना है’। नानक कह रहे हैं, तुम इस बच्चे के साथ हो लो।

बाकी बस इसी योग्य हैं कि उनकी कुर्बानी दे दी जाए। संख्या गिनने की बात नहीं है, बिलकुल संख्या गिनने की बात नहीं है। जो महत्वहीन हैं, उनकी संख्या क्या गिननी? कुछ नहीं से कुछ नहीं को कितना भी जोड़ो, कुछ नहीं ही हाथ आएगा।

“जिना मिलिआ प्रभु आपणा, नानक तिन कुरबानु”

हम सब के भीतर, वो बच्चा मौजूद है, वही असली है, बाकी सब नकली हैं, बाकी परछाइयां हैं, भ्रम हैं। वो असली है, और वो मानेगा नहीं, उसको तो बस माँ चाहिये। माँ उसके भीतर बैठी ही हुई है। वो मिला ही हुआ है माँ से, कहीं ना कहीं। इसीलिए बिना माँ के किसी और को वो चाहता नहीं। कह रहे हैं न नानक- “जिना मिलिआ प्रभु आपणा…”, वो मिला ही हुआ है। वो एक है माँ से, वो आत्मा है। उसके साथ हो जाओ। वो बात भी जो कही जाती है न कि जो सबसे प्यारी चीज़ है, वो कुर्बान करो, वो इसीलिए कही जाती है कि हमारी प्यार की परिभाषा ही उल्टी है, तो इसीलिए कहने वालों ने ये एक विधि बनाई है।

तुम प्यार ही किससे करते हो? जो सबसे घटिया चीज़ होती है, उसी से प्यार करते हो, तो उन्होंने कहा, ऐसा करो जो सबसे प्यारा है, उसे कुर्बान करो क्योंकि

जो तुम्हें प्यारा होगा , वही तुम्हारी बीमारी होगी।

तो कहने वालों ने कहा, अपनी सबसे प्यारी चीज़ कुर्बान कर दो क्योंकि तुम्हारी बीमारी है ही क्या? तुम्हारा प्यार ही तो तुम्हारी बीमारी है। अपनी-अपनी जिंदगी में झांक करके देखो, जिनसे ही दिल लगाया है, वही तुम्हारी गर्दन काट रहा है। वोल्टायर ने कहा है कि, “जिंदगी ऐसा सांप है, जिसको तुम सहलाए जा रहे हो, और वो तुम्हारा दिल, कलेजा खाए जा रहा है।‘’ उन्होंने कहा तुम उसे दुलार रहे हो, और वो तुम्हारा कलेजा खाए जा रहा है!

तो यही कहा गया कि जिससे प्यार करते हो, उसे कुर्बान करो। तुम्हारा प्यार ही तो गलत है। तुम प्यार जानते कहाँ हो? तुम आसक्ति जानते हो।

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