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जीवन में बड़ा लक्ष्य कैसे चुनें? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में बड़ा लक्ष्य कैसे चुनें?

आचार्य प्रशांत: जो एब्सॅल्यूटली (पूर्ण) बड़ा है उसको लक्ष्य नहीं बना सकते न, तो कम-से-कम जो अनुपातिक तौर से बड़ा है, जो तुलनात्मक रूप से बड़ा है उसको ही लक्ष्य बना लो। क्योंकि दुनिया में तो जो भी कुछ तुम्हें बड़ा मिलेगा वो दूसरे से बस अपेक्षतया बड़ा होगा, रिलेटिवली बड़ा होगा।

दुनिया में तुम छोटे से बड़े की यात्रा करते जाओ; इसकी ताक़त तुम्हें वो देता है जो पूर्णतया बड़ा है। और दुनिया में तो छोटे से बड़े की यात्रा करते रहोगे, एक दिन वो मुक़ाम भी आता है जब तुम कहते हो कि बड़े की यात्रा अब दुनिया में और ज़्यादा हो भी नहीं सकती।

अध्यात्म व्यावहारिक होना चाहिए। तुम अभी तीन लोगों को अपना मानते हो, इतनी जल्दी नहीं कह पाओगे कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’। बड़ी आदत पाल रखी है तुमने पुरानी कि यही तीन लोग मेरी दुनिया, मेरा संसार हैं। तुम तीन को बढ़ाकर पाँच तो करो, तुम पाँच को बढ़ाकर पन्द्रह तो करो, तुम पन्द्रह से पचास पर तो पहुँचो; आगे बढ़ते रहो। जो भी तुम्हारा सांसारिक कामकाज़ है उसमें आगे बढ़ते रहो, दिशा आकाश की होनी चाहिए।

किसी को तुम कुछ देते हो — अधिकांश लोग कुछ-न-कुछ दान-दक्षिणा करते ही हैं, उसके नियम भी तय हैं। कहीं कहा जाता है एक प्रतिशत, कहीं कहा जाता है दो, कहीं ढाई, कहीं पाँच, कहीं सात — तुम आगे तो बढ़ते रहो, अगर तुम्हें यही लगता है कि दान ही तुम्हारे अध्यात्म का मार्ग है।

तुम पाठ करते हो, तुम घंटाभर पाठ करते हो; बढ़ाओ न उसको! ये सब आँकड़ों का खेल है, पर दुनिया में तो जो कुछ है, वो आँकड़ा ही है। दुनिया में तो जो कुछ है सीमित है और जो भी कुछ सीमित है वो आँकड़ों में समा ही जाएगा; आगे तो बढ़ो! ये मत कर लेना कि जब तक अनन्त ही नहीं मिल जाता, तब तक क्षुद्रता को ही पकड़े रहूँगा, न!

क्या संख्याओं के आयाम में यात्रा कर-करके वो मिल जाएगा जो संख्यातीत है? बिलकुल नहीं। क्या संख्याओं के आयाम में यात्रा किये बिना वो मिल जाएगा जो संख्यातीत है? बिलकुल नहीं। संख्याओं के आयाम में प्रगति करके परमात्मा नहीं मिल जाएगा, लेकिन संख्याओं के आयाम में प्रगति करे बिना भी परमात्मा नहीं मिल जाएगा। रिलेटिव डाइमेंशन (सापेक्ष आयाम) में आगे बढ़-बढ़कर एब्सॅल्यूट नहीं मिलता, लेकिन रिलेटिव डाइमेंशन में आगे बढ़े बिना भी एब्सॅल्यूट नहीं मिलेगा।

संख्याएँ उसको नहीं पा सकती, लेकिन बात उसको पाने की नहीं है। बात तुम्हारी तैयारी और तुम्हारी मर्ज़ी की है। वो तो संख्यातीत है, वो तो अनन्त है, तो निश्चित रूप से कोई संख्या, कोई आकार, कोई तरक़्क़ी उसको नहीं पा सकती। लेकिन खेल भी उसको पाने का कहाँ है, खेल तो तुम्हारी तैयारी का है न!

जब तुम संख्याओं के आयाम में आगे बढ़ते हो तो तुम उसको ये सन्देश भेजते हो कि मैं तैयार हूँ। तपस्वियों के किस्से सुनते हो तुम कि फ़लाने तपस्वी ने डेढ़ हज़ार साल तक नदी किनारे खड़े हो करके तप किया। ये बड़ी संख्या क्यों बतायी जा रही है? ये अतिशयोक्ति क्यों बतायी जा रही है? ये दर्शाने के लिए कि ये तपस्वी कितना तैयार था, कितनी बड़ी ग्राह्यता थी इसकी, कितनी लम्बी क़ुर्बानी देने को राज़ी था।

तो संख्या का खेल चलेगा तुम्हारी ओर से; आवश्यक है लेकिन पर्याप्त नहीं है। क्योंकि संख्या का खेल उसकी ओर नहीं पहुँच सकता, उस तक नहीं पहुँच सकता। मैं कह रहा हूँ, ‘उस तक नहीं पहुँच सकता, लेकिन फिर भी आवश्यक है।’ उसकी तरफ़ संख्याएँ नहीं हैं, तुम्हारी तरफ़ तो संख्याएँ हैं न! और आनाकानी किसकी तरफ़ से है, उसकी तरफ़ से या तुम्हारी तरफ़ से, बोलो?

उसकी तरफ़ संख्याएँ नहीं हैं लेकिन तुम तो संख्याओं की दुनिया में जीते हो। उसकी तरफ़ आकार नहीं हैं, सीमाएँ नहीं हैं, पर तुम्हारी तरफ़ तो आकार हैं, सीमाएँ हैं। और कमी किसकी ओर से है? मिलन में बाधा कौन है, वो या तुम? मिलन में बाधा तो तुम हो, तो तरक़्क़ी किसे करनी है? काम किसे करना है, उसको या तुमको? तुमको करना है।

और तुम जब काम करोगे तो किस दुनिया में करोगे, उसकी दुनिया में या अपनी दुनिया में? अपनी दुनिया में। और जब अपनी दुनिया में काम करोगे, तो तुम्हारा काम संख्याओं के अन्दर-अन्दर होगा या संख्याओं से कूदकर बाहर निकल जाएगा? संख्याओं के अन्दर-अन्दर ही होगा न, इसलिए संख्याओं की महत्ता है।

तो एक तरफ़ तो मैं — जैसा कि आपने उद्धृत करा — ये भी बताता हूँ कि क्षुद्र में लिपटे मत रहना, दूसरी ओर मैं ये भी बोलूँगा कि अनन्त की शर्त मत रख देना। ये मत कह देना कि अनन्त ही चाहिए, अनन्त से नीचे कुछ नहीं चाहिए। क्योंकि शर्त बड़ी बचकानी है। अनन्त ने कब इनकार किया तुम्हें मिलने से! मिल तो तुम इसलिए नहीं पा रहे न, क्योंकि तुम क्षुद्र में लिपटे हुए हो, अटके हुए हो।

तुम्हें प्रमाण देना होगा कि तुम क्षुद्र से आगे जाने को तैयार हो और तुम्हारी मजबूरी ये है कि वो प्रमाण तुम सिर्फ़ एक ही तरीक़े से दे सकते हो, क्या है वो प्रमाण? संख्या। कुछ ऐसा ही कर सकते हो जो रंग-रूप, संख्याओं, सीमाओं, आकारों के दायरे के भीतर का हो। और क्या कर पाओगे? इससे अधिक क्या कर सकते हो? आदमी की दुनिया में अनन्त कुछ नहीं होता है।

हनुमान भक्ति भाव दर्शा रहे थे, तो एक साधारण जड़ी की जगह पूरा पहाड़ उठा लाये, ठीक? पर पहाड़ भी तो सीमित ही है न! इंसान की दुनिया में जो बड़े-से-बड़ा है, वो भी संख्याओं के भीतर का ही है। तुम इस दुनिया में जो भी कुछ कर लोगे उसे नापा तो जा सकता है, तो तुम वही सबकुछ करो जिसे नापा जा सकता है, पर डटकर करो, लगातार आगे बढ़ते रहो। संख्याओं की बहुत अहमियत है। जो संख्याओं का खेल ठीक से खेलना जान गया वो एक दिन संख्यातीत में प्रविष्ट हो जाएगा।

प्र: आचार्य जी, अभी जो आपने कहा उसको ग़लत सुनने वाला ऐसे भी सुन सकता है कि जो भी हम कर रहे हैं उसी को करते रहें।

आचार्य: छोटे को बड़ा करना है। बात किसी भी संख्या की नहीं है। बात ये नहीं है कि अभी तक मैंने दो खून किये हैं तो अब बीस कर लूँ; संख्या तो बढ़ गयी। बात इसकी नहीं है कि कमर छत्तीस है तो छियालीस करनी है; संख्या तो बढ़ ही गयी — परमात्मा मिलेगा अब, प्रगति हो रही है।

ये ज़ाहिर सी बात है, मैं किन संख्याओं की बात कर रहा हूँ। मैंने उदाहरण दिया था न कि तीन लोगों को अपना परिवार समझते हो तो पाँच को समझो, पन्द्रह को समझो। मैंने तुम्हारी करुणा के विस्तार की बात करी थी। अब उल्टा समझना ही हो तो फिर मर्ज़ी तुम्हारी है। मैंने दान की बात करी थी, मैंने पाठ की बात करी थी कि घंटेभर पाठ करते हो, देखो कि क्या डेढ़ घंटा कर सकते हो।

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