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गॉसिप - व्यर्थ चर्चा- मेरे जीवन का हिस्सा क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी सत्र शुरू होने से पहले हम सभी लोग मन्त्रणा कर रहे थे। एक सज्जन ने यह सवाल उठाया कि हम लोग एच.आई. डी. पी. के छात्र हैं, तो हम ये सब क्यों कर रहे हैं, मतलब बातें वगैरह। जवाब देते हुए मैंने कहा, “‘क्योंकि ये भी जीवन का एक अंग है। जैसे और चीज़ें होती हैं, आदमी शादी करता है, परिवार बनाता है, परिवार के साथ रहता है, बहुत सारी चीज़ें हैं जो वो कर रहा है क्योंकि वो भी जीवन का अंग होती हैं, ऐसे ही ये भी ज़िन्दगी का हिस्सा है।” मेरे इस उत्तर पर खूब तालियाँ बजीं।

तो आचार्य जी, मेरे दिमाग में यहाँ पर दो सवाल उठ रहे हैं।

पहला सवाल ये है – एच.आई. डी. पी. के बाद भी हम लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? क्या ये नहीं होना चाहिए? और दूसरा सवाल ये है – जो मैंने बात कही कि ये चीज़ें पार्ट ऑफ़ लाइफ़ (जीवन का अंग) हैं, तो उसे मद्देनज़र रखते हुए इन्हें 'चीप' (ओछा) क्यों कहा जाता है? ‘*चीपनेस*’(ओछापन) की परिभाषा क्या होगी?

आचार्य प्रशांत: अच्छा सवाल है।

दो मुद्दे।

पहला – इतनी एच.आई. डी. पी. कर लो, कुछ भी कर लो, उसके बाद भी ऐसा सब क्यों होता है? और दूसरा – क्या ये पार्ट ऑफ़ लाइफ़ (जीवन का अंग) है? और अगर ये है तो इसको बुरा ठहराने का कोई औचित्य है क्या?

समझते हैं।

(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) इसी कमरे में ए. सी. चल रहे हैं, ये इनके हाथ में चाय है। ये चाय आई, आई, आई और मेरे सामने रख दी गई। इस चाय में पानी है, इसे कुछ देर पहले गरम किया गया होगा। क्या पानी ने फ़ैसला किया था कि – “सौ डिग्री हो जाएगा तभी भाप बनूँगा?” ये जो चाय आई है, निश्चित रूप से खौलाकर, बॉयल करने के बाद ही मेरे सामने लाई गई है, (मुस्कुराते हुए) उम्मीद करता हूँ। इस पानी ने क्या फ़ैसला किया था कि – “सौ डिग्री हो जाएगा तो ही भाप बनूँगा?”

ये ए. सी. है, क्या इसने फ़ैसला किया है चलने का? ये पँखा है, इसके स्विच अभी थोड़ी ही देर पहले बंद कर दिए गए थे। तो उस पँखे ने फ़ैसला लिया था कि – “बंद हो जाऊँगा”?अभी यहाँ और भी स्विच हैं, वो दबा दिए जाएँ तो ये लाइटें बंद हो जानी हैं। क्या ये फ़ैसला करेंगी कि – “हम बंद हो जाएँ”? क्या ये पानी फ़ैसला कर रहा है?

ये शक्कर रखी हुई है, जो अभी चाय में मिलाई जाएगी, क्या ये शक्कर फैसला करती है? शक्कर ना फ़ैसला करती है और ना ये कहती है, “ये सब मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा है, *पार्ट ऑफ़ लाइफ*।” शक्कर भी हमसे ज़्यादा समझदार है, पानी भी हमसे ज़्यादा समझदार है।

पानी जानता है कि इसमें उसका कुछ नहीं है। “ये भाप बनने का फ़ैसला मेरा कहाँ है? ये तो मेरी मॉलिक्यूलर (आणविक) प्रोग्रामिंग है। मेरा जो पूरा कॉन्फ़िगरेशन (विन्यास) है, वो ऐसा है कि सौ डिग्री पर मुझे भाप ही बनना है, मैं हूँ ही ऐसा।” और उसमें मेरापन बिलकुल नहीं है। मेरापन तब हो, जब पानी फ़ैसला करे कि – “आज नब्बे डिग्री पर ही भाप बन जाऊँगा।” हाँ, ऐसा होता है। तुम कहोगे, “प्रेशर कम हो तो ऐसा होता है।” उसको छोड़ो।

मैं कह रहा हूँ कि जितना नॉर्मल एटमोस्फेरिक प्रेशर (सामान्य वायुमण्डलीय दबाव) है, उतने पर ही पानी अगर ये फ़ैसला कर ले कि – “आज नब्बे डिग्री पर ही भाप बन जाना है, या आज एक सौ बीस भी हो जाए तो भी भाप नहीं बनूँगा,” तब मैं मानूँ कि ये पानी का अपना निर्णय है। पानी का अपना निर्णय तो नहीं हुआ न?

जब कुछ अपना होता है तो निर्णय दोनों तरफ़ किया जा सकता है – करने का भी और ना करने का भी। निर्णय तो तभी हुआ जब दोनों विकल्प सामने हों। अगर एक विकल्प सामने है, तो कोई निर्णय हुआ ही नहीं।

तुम यहाँ बैठ जाते हो, तुम्हारे पास क्या वाक़ई विकल्प रहता है कि गॉसिप ना करो? तुम थ्योरिटिकली (सैद्धान्तिक रूप से) तो कह दोगे कि “हाँ सर, ये विकल्प भी रहता है कि हम दस लोगों के बीच बैठे हैं और व्यर्थ चर्चा ना करें,” पर अपने आप से ईमानदारी से ये सवाल पूछो कि – क्या ऐसा हो सकता है कि कभी भी दस लोगों के बीच बैठो, तुम्हें आधे घंटे का समय दे दिया जाए और तुम शांत, मौन, स्थिर बने रहो?

तुम दस लोग बैठे नहीं, कि चर्चा होना लाज़मी है, अब होकर रहेगी। तुम आपस में ये चर्चा तो करते नहीं कि बताओ इस देश में क्या होने वाला है, बताओ कि आज कौन-कौन सी बातें हैं जो निकल कर आएँगी। जो चर्चा होती है, वो क्या होती है, वो तुम भी जानते हो और मैं भी जानता हूँ। और वो होकर रहेगी, उसमें ना तुम्हारे हाथ में कुछ है, और ना तुम्हारे दोस्त के हाथ में कुछ है।

शक्कर पानी में डालो तो घुल कर रहेगी, शक्कर के पास कोई विकल्प नहीं है कि, “डाल भी दो, आज मैं नहीं घुलूँगी।” और पानी के पास भी कोई विकल्प नहीं है कि, “ये शक्कर मुझे कुछ जँच नहीं रही, आज इसके साथ मिलूँगा नहीं।” कोई विकल्प नहीं, तो कोई निर्णय भी नहीं। जहाँ विकल्प नहीं, वहाँ निर्णय कैसा?

क्या पानी ये कहे कि, “ दिस इज़ ए पार्ट ऑफ़ लाइफ़ (यह तो जीवन का हिस्सा है)?” क्या शक्कर ये कहे कि – “ दिस इज़ ए पार्ट ऑफ़ लाइफ़ * ”? नहीं। वो इतने नासमझ नहीं हैं, क्योंकि वो जानते हैं कि – “जब हम पूरे तरीके से * प्री-प्रोग्राम्ड आचरण कर रहे हैं, तब हम लिविंग (ज़िंदा) हैं ही नहीं, अतः लाइफ़ (ज़िंदगी) का सवाल ही नहीं पैदा होता।

जब हमें होश ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं, जो हो रहा है वो बस हमारी कन्डिशनिंग के कारण, बेहोशी में हो रहा है, तो उस समय हम ज़िंदा हैं कहाँ?

ज़िंदा तो वो, जिसका आचरण उसकी समझ से निकलता हो।

“जब कुछ जानकर कर रहा हूँ, तभी तो ज़िंदा हूँ।”

तुम मुझे इतना बता दो कि तुम जब गॉसिप करते हो, तो अपनी समझ से करते हो, अपनी इंटेलिजेंस से करते हो, अपने होश से करते हो? या तुम्हारी प्रोग्रामिंग ही है गॉसिप करने की? ठीक- ठीक बताना। ईमानदारी से देखो, क्योंकि अगर तुम्हारी प्रोग्रामिंग नहीं है, तो तुम्हारे पास ये विकल्प होना चाहिए कि- “आओ दोस्तों आज दस लोग बैठेंगे, और आज मौन बैठेंगे, उसमें भी बड़ा आनन्द है।”

वो विकल्प तुम्हारे पास क्या है भी? अगर वो विकल्प ही नहीं है तुम्हारे पास, तो तुम्हारी ये जो पूरी गॉसिप है, ये सिर्फ़ तुम्हारे यान्त्रिक होने का सबूत है। तुम ज़िंदा ही नहीं हो, जब तुम गॉसिप कर रहे हो। लाइफ़ का सवाल ही नहीं पैदा होता। तुमने कहा, “ पार्ट ऑफ़ लाइफ ,” लाइफ़ है कहाँ? वो वैसी ही लाइफ़ है, जैसी इस कैमरे की, शक्कर की, चाय की, पंखे की, ए.सी. की। इन्हें क्या हक़ है ये कहने का कि – “हम ज़िंदा हैं”?

ज़िंदा तो वो कि जिसके पास होश हो।

ज़िंदा तुम तभी जब तुम होश में हो।

जहाँ होश नहीं, वहाँ ज़िन्दगी कैसी?

हमारे साथ त्रासदी ये हो जाती है कि हम पूरी क्षमता रखते हैं ज़िन्दगी होश में बिताने की, उसके बाद भी बेहोश रहते हैं।

कोई पंखा ऑटोमैटिक (यंत्रवत) तरीके से चलता है तो इसमें कोई नई बात नहीं हो गई। आज तक तुमने किसी को रोते हुए नहीं सुना होगा कि – “ये पंखा बड़ा बेहोश चलता है, हमने बटन दबा दिया तो चल पड़ा, हमने बटन दबा दिया तो बन्द हो गया। हमने स्पीड कम कर दी तो आर.पी.एम. बढ़ गया, और हमने रेगुलेटर घुमा दिया तो कम हो गया।” तुमने किसी को रोते हुए नहीं सुना होगा। किसी बुद्ध को कहते हुए नहीं सुना होगा कि – “मैं पंखों को होश में लाऊँगा।” किसी भी समझदार, ज्ञानी आदमी ने आज तक ये नहीं कहा कि – “मैं पानी की चेतना जागृत करूँगा और उसे कहूँगा कि जीवन अपने इशारों पर जी।”

“अरे तू क्यों सौ डिग्री का गुलाम है? चल करते हैं क्रान्ति। ये सौ डिग्री जो है बड़ा बन्धन है। ये सौ डिग्री हुआ नहीं और तुझे भाप बन जाना है। अरे क्यों बन जाना है? अब क्रान्ति करेंगे। अट्ठानवे, निन्यानवे, और अनप्रिडिक्टेबल (अप्रत्याशित) हो जाएँगे। अचानक ही भाप बन जाएँगे, मूड हुआ तो कभी।” इनका मशीनी रहना कोई दुर्घटना नहीं है, अफ़सोस की कोई बात ही नहीं है।

पर अगर तुम बेहोश हो, तो ये बड़ी अफ़सोस की बात है क्योंकि तुम में होश की पूरी-पूरी काबिलियत मौजूद है। उसमें काबिलियत ही नहीं है, तो इसीलिए कुछ भी करे, उससे प्रभावित होने की, बुरा मानने की कोई बात नहीं है। पर जब तुम गैर-होशमंद तरीकों से जीते हो, तो तुम्हारे गुरु को बुरा लगता है, क्योंकि उसको पता है कि तुम्हारा सामर्थ्य बहुत बड़ा है।

तो तुम्हारे गुरु को अगर बुरा लग रहा है,अफ़सोस हो रहा है, तो उसे उसकी करुणा समझो। गुस्सा नहीं, करुणा है, क्रोध नहीं।

देखो हम अक्सर ये दावा कर देते हैं कि – “मेरा जीवन, मेरी ज़िन्दगी, इट्स माय लाइफ़ ,” बिना ये जाने कि ‘मेरी ज़िन्दगी’ इसमें है कहाँ पर? “मैं तो सब कुछ वही कर रहा हूँ जो मेरी कन्डिशनिंग का हिस्सा है। इसमें मैं हूँ कहाँ पर?”

और जिस दिन, यकीन मानो, तुम अपनी समझ से कुछ करोगे, या बोलोगे, वो सुन्दर होगा। उस दिन पहली बात, तुम्हें कोई गुरु टोकेगा नहीं, दूसरी बात उस दिन तुम किसी गुरु के शिष्य नहीं, हर गुरु के मित्र बन जाओगे। उस दिन तुम्हारे सामने गुरु नहीं खड़ा होगा, दोस्त खड़ा होगा, और वो तुम्हें गले लगा लेगा।

गुरु के लिए सबसे अच्छा क्षण वही होता है जब शिष्य, शिष्य रहा ही नहीं।

इसका मतलब ये नहीं है कि वो कक्षा से भाग जाता है। बात समझ रहे हो न? उस दिन गुरु कहता है कि – “अब तू शिष्य नहीं रहा, अब मैं गुरु भी नहीं रहा। अब तुझमें, मुझमें कोई अंतर नहीं रहा। जो मैं, वही तू। अब तो दोस्ती का ही सम्बन्ध हो सकता है।”

पर उसके लिए पहले तुम्हें अपने आप को पाना होगा। कुछ मूलभूत सवाल हैं जो अपने आप से पूछने होंगे कि – “मेरी ज़िन्दगी में ‘मैं’ कितना हूँ?” तुम्हारे पड़ोस में कोई ज़रा-सी आवाज़ करे, तुम्हारी गर्दन उसकी ओर मुड़ जाती है। क्या तुमने अपनी गर्दन अपनी समझ से मोड़ी? नहीं।

जैसे इस चाय की कन्डिशनिंग है कि इसको ज़रा सा धक्का दें तो इस छोटे से प्याले में भी लहरे उठने लग जाएँगी, वैसे ही तुम्हारी भी कन्डिशनिंग है कि तुम्हारा पड़ोसी तुम्हें ज़रा-सा धक्का देता है, और तुम्हारे मन में लहरें उठने लग जाती हैं। अगर तुम्हारा पड़ोसी तुम्हें ज़रा-सा छू भर दे, तुम तुरन्त उसकी ओर देखोगे। तुममें से कोई ऐसा नहीं है जिसको कोई छू दे, और वो विचलित ना हो जाए। ठीक वैसे ही कि जैसे मैं इस प्याले को छू दूँ, तो इस प्याले के पास कोई विकल्प ही नहीं है कि उसमें रिपल्स ना उठ आएँ। उठेंगी, पक्का है।

तुम उस दिन अपने मन के मालिक हुए जिस दिन तुम्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोई क्या कर रहा है आसपास।

“मैं वो कर रहा हूँ जो मुझे करना है। मैं परेशानी के बीच में भी परेशान नहीं हूँ, मैं शोर के बीच में भी अशान्त नहीं हूँ,” तब समझना कि – अब ये मेरा जीवन है।

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