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डर कुछ कहना चाहता है || आत्मबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। मैं योजनाएँ अच्छी बनाता हूँ, विश्लेषण भी अच्छा करता हूँ, किंतु अपने विचारों को साकार रूप नहीं दे पाता। इसका कारण यह नहीं है कि मैं कामचोर हूँ या मेहनत से कतराता हूँ, बल्कि इसका कारण मेरे ही डर और उलझनें हैं। जैसे-जैसे महीनों-सालों को गुज़रते देखता हूँ और पाता हूँ कि मैं अपने जीवन और दिनचर्या के पुराने कामों में ही फँसा हुआ हूँ, तो स्वयं की अकर्मण्यता के कारण एक बेचैनी घेर लेती है। कृपया मार्गदर्शन करें कि मैं अपने द्वारा सोचे गए कार्यों को आरम्भ कैसे कर सकूँ।

आचार्य प्रशांत: मूल मुद्दे पर ही टिको। तुम्हें ऐसा लग रहा है कि तुम जो विचार करते हो, जो तुम योजना बनाते हो या जो तुम विश्लेषण करते हो, वो योजना, विचार, विश्लेषण तो सब ठीक ही हैं। तुम्हें ऐसा लग रहा है कि समस्या तो बस इतनी-सी है कि तुमने जो तय किया, जो योजना बनाई, उसको तुम साकार रूप नहीं दे पाए, कार्यान्वित नहीं कर पाए। तुम्हारी दृष्टि में समस्या बस इतनी-सी है। और तुमने अपने अनुसार इस समस्या का कारण भी खोजा है, निदान किया है। तुम कह रहे हो कि समस्या है डर और उलझन।

नहीं, समस्या इतनी-सी ही नही हो सकती कि जो योजना बनी है, वो कार्यान्वित नहीं हो पाती। अगर मूल में डर बैठा है और द्वन्द बैठा है, तो जो योजना बन रही है, वो कार्यान्वित होने लायक होगी ही नहीं, इसीलिए कार्यान्वित हो भी नहीं पाएगी। तुमने समस्या का एक ही स्तर देखा है, तुम मूल तक नहीं पहुँच रहे हो।

तुम्हारे अनुसार योजना तो बढ़िया बन रही है। तुम्हारे अनुसार तुम्हारे विचार, तुम्हारे आइडियाज़ तो बहुत अच्छे हैं, कमी बस उनके कार्यान्वित होने में, उनके एक्सिक्यूशन में है। न, ऐसा नहीं है।

अगर करने लायक काम हो तो तुम उसे करोगे कैसे नहीं? अगर भीतर से सशक्त प्रेरणा उठ ही रही हो, तो तुम्हेंं उसे कार्यान्वित करना ही पड़ेगा, तुम उसके सामने असहाय, मजबूर हो जाओगे। पर अगर तुम निर्णय करते हो, मन बनाते हो, योजना बनाते हो, कार्यक्रम निर्धारित करते हो, और फिर जो तुमने निर्धारित किया, उस पर चल नहीं पाते, उसे कर नहीं पाते, तो बात मात्र इच्छाशक्ति की या डर इत्यादि की नही है, बात ये है कि तुमने जो विचार बनाया है, वो विचार ही कोई बहुत सुन्दर नहीं है, वो विचार ही इतना सशक्त नहीं है कि तुमको असहाय, निरूपाय कर दे।

तुमने जो आइडिया करा है, उसमें ही कोई दम नहीं है। दम होता तो मैं कह रहा हूँ कि तुम मजबूर हो जाते, तुम्हेंं उसका अनुपालन करना पड़ता। वो तुम्हेंं रात को सोने नही देता, वो दिन मे तुम्हेंं चैन से बैठने नही देता। वो कहता कि मैं होने के लिए तैयार खड़ा हूँ, तुम मुझे होने क्यों नहीं दे रहे? मूर्ति का ख़ाका खिंच चुका है, तुम पत्थरों को मूर्त रूप लेने क्यों नहीं दे रहे?

जब डर बैठा हो कर्ता के साथ, तो उसका प्रत्येक कर्म डर मे ही रंगा हुआ होगा। और कर्म का मतलब यही नही होता कि स्थूल तौर पर काम करना, विचार और योजना भी तो कर्म हैं न? अगर डर के मारे तुम ठीक से हाथ नहीं चला पा रहे, तो इतना तुमने कह दिया कि डर है, इस कारण ये स्थूल कर्म नहीं हो पा रहा, कि मैं डर के कारण ठीक से हाथ नही चला पा रहा पर ये भी समझना कि अगर डरे हुए हो, तो डर के कारण जैसे तुम ठीक से हाथ नहीं चला पा रहे, वैसे ही तुम ठीक से दिमाग़ भी नहीं चला पा रहे होगे।

डर का मतलब है — तुम्हारी हस्ती के सहज प्रवाह को लकवा मार जाना। सब कुछ ही लकवाग्रस्त हो जाएगा — न ठीक से हाथ चलेगा, न ठीक से बुद्धि चलेगी और न ठीक से अंतःकरण चलेगा। हाथ भी कंप-कंपकर आगे बढ़ेगा और विचार और योजनाएँ भी कंपी-कंपी ही होंगी। इसीलिए मैंने कहा कि वो योजनाएँ इतनी सुन्दर होंगी ही नहीं कि तुम उन्हें कार्यान्वित करो। उन योजनाओं में भी कुछ अच्छा नहीं है, इसीलिए तो वो आज तक साकार नही हो पाईं।

तो बाकी सब बातें छोड़ो, अपने बारे में तुमने जो भी मान्यताएँ बनाई हैं कि मैं योजना करता अच्छा हूँ, मैं विश्लेषण अच्छा कर लेता हूँ, ये सब हटाओ, बस एक बात ईमानदारी से याद रखो कि डरे हुए हो और उलझन मे हो, द्वन्द में हो। उस उलझन को हटाना है, उस डर को मिटाना है। वो डर मिट जाएगा तो सब अच्छे-अच्छे काम हो जाएँगे, ये भी हो सकता है कि बिना किसी ख़ास योजना के ही हो जाएँ। और वो डर मौजूद है तो बड़ी-से-बड़ी योजना विफल जाएगी, क्योकि वो योजना बड़ी तो होगी, पर जितनी बड़ी होगी, उतनी डरी हुई भी होगी। वास्तव में योजना जितनी डरी हुई होती है, उतनी बड़ी होती है। जैसे-जैसे निर्भीक होते जाते हो, वैसे-वैसे आयोजन की ज़रूरत ज़रा कम ही होती जाती है।

डर पर ध्यान दो। कहाँ से आ रहा है? क्या कह रहा है तुमसे? डर को हारना पड़ेगा, क्योकि डर के मूल मे एक झूठ बैठा होता है, वो झूठ तभी तक छुपा रहता है जब तक तुम डर से दूर-दूर रहो। डर को मिटाने का तरीका है कि डर के केंद्र में घुस जाओ, वहाँ तुम्हेंं मिलेगा एक झूठ, और झूठ तुमने पकड़ा नहीं कि डर मिट जाएगा। लेकिन डर चूँकि डरावना है, डर का तो नाम ही है 'डर', तुम उससे रहते हो दूर-दूर।

दूर रहोगे तो उसके केंद्र में जो झूठ बैठा है, उसे देखोगे कैसे, उसे पकड़ोगे कैसे? तो डर के पास जाओ, आमने-सामने उससे बात करो, बोलो उससे, “क्या बोलता है तू?”

डर तुम्हेंं डराने के लिए तुमसे कुछ तो बोलता होगा न? क्या बोलता है?

रूपए का नुक़सान हो जाएगा, अपमान हो जाएगा, यही सब बातें तो बोलता है। कहीं के नहीं रहोगे, घर छिन जाएगा, घर वाले छोड़कर भाग जाएँगे, और क्या बातें बोलता है डर?

प्र: शरीर का नुक़सान हो जाएगा।

आचार्य: शरीर का नुक़सान हो जाएगा, असुविधा हो जाएगी, खाने-पीने को नहीं मिलेगा, जो भी बात है। कहो, “अच्छा, बोलो और क्या बोल रहे हो?”

और फिर जो कुछ वो बोल रहा है, उसका परीक्षण करो, बोलो, “ये कैसे होगा?” तुमने कह तो दिया पर कैसे होगा, समझें तो।

डर तुम्हारा हितैषी बनकर आता है, वो तुमसे कहता कि देखो, हम तुम्हेंं तुम्हारे भले की बात बता रहे हैं। फलाना काम मत करना, क्योंकि अगर तुमने वैसा काम किया तो तुम्हारा नुक़सान है। हम तुम्हारे हितैषी हैं, शुभेच्छा रखते हैं, इसीलिए बता रहे है कि फलाना काम मत करना। ऐसा ही कहता है न डर?

डर से बोलो, “ठीक है, आओ। तो तुम हमारे हितैषी हो, तुम हमारा कोई नुक़सान बचाना चाहते हो। देखें तो तुम हमारा कौन-सा नुक़सान बचाना चाहते हो, देखें तो कि वो नुक़सान हो भी सकता है या नहीं। और ये भी देखें कि अगर नुक़सान हो भी गया, तो हमारा जाता क्या है, और ये भी देखें कि वो नुक़सान न हो, उस नुक़सान को बचाने के लिए हम क़ीमत कितनी बड़ी अदा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि दो रूपए का नुक़सान बचाने के लिए क़ीमत दो लाख की अदा कर रहे हैं?”

ये सब बातें करनी पड़ेंगी क्योंकि डर के पास तर्क हैं। बात करो। जैसे-जैसे डर के क़रीब जाओगे, वैसे-वैसे तुम्हेंं दिखाई देने लगेगा कि ये तो बात कुछ झूठी है। बहुत कुछ है जो है नहीं, लेकिन डर उसे बड़ा करके तुमको दिखा रहा है, और जो असली चीज़ है, डर उसे बिलकुल छुपा ही रहा है।

शुरुआत यहीं से कर लो कि क्या कहता है तुम्हारा डर। क्या कहता है?

ये मत कह देना कि बस यूँ ही डरते हैं, यूँ ही कोई नहीं डरता। अगर तुम यूँ ही डरते होते तो सोते समय भी डरते। ऐसा कोई है जो गहरी नींद में भी डर जाता हो? मैं सपनो की बात नहीं कर रहा, सुषुप्ति की बात कर रहा हूँ। कोई है? नहीं डरते न?

इसका मतलब डर का सम्बन्ध विचारों से है। और विचारों में तो बातें आती हैं, तो डर के पास भी कोई बात है, कुछ कहता है तुमसे। क्या कहता है? बात करो।

प्र: कुछ ग़लत हो जाने का डर।

आचार्य: क्या ग़लत होने का? और बात करो साफ़-साफ़। क्या ग़लत?

वो कहेगा कि ग़लत हो जाएगा, उससे कहो, “बहकी-बहकी बातें मत करो। खोलकर बताओ, साफ़-साफ़ बताओ। प्रिसाइसलि , इग्ज़ैक्टलि (ठीक-ठीक) क्या ग़लत और कितना ग़लत? नुक़सान कितना है? और तुम्हारी अगर सलाह मानें, तो उसमें कितना नुक़सान है? तुम मुझे नुक़सान ही दिखा रहे हो न, तो हम नफ़े-नुक़सान का पूरा हिसाब करेंगे, साफ़-साफ़ करेंगे। एक तरफ़ा बात नहीं चलेगी।"

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