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डर और तनाव में क्यों जीना? || आचार्य प्रशांत
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: एक राजा था, बहादुर, निडर बादशाह। मस्त रहता था अपनेआप में, खूब उसके यार-दोस्त, सबसे उसका प्रेम। अड़ोसी-पड़ोसी राज्य उससे जलते थे। अक्सर जो लोग मस्त रहते हैं उनसे जलने वाले बहुत पैदा हो जाते हैं, क्योंकि चाहते वो भी यही हैं कि हम भी काश ऐसा मस्त रह पाते, पर वो मस्ती उनको उपलब्ध नहीं होती तो जलन का रूप ले लेती है।

तो जलने वाले पैदा हो गये। उन्होंने बड़ी कोशिश की कि इसको हरा दें, इसका राज्य हड़प लें, इसकी मौज पर कोई फ़र्क आ जाए, पर वो उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाये। अक्सर तो वो लड़ाइयों में हारता ही नहीं, और जब कभी हार भी जाता तो ये पाया जाता कि इसकी मौज पर तो अभी भी कोई अन्तर नहीं पड़ा है। ये हार गया, इसके राज्य का नुक़सान हो गया, इसकी सेना का नुक़सान हो गया, रुपये-पैसे का नुक़सान हो गया, पर फिर भी इसकी मौज पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है।

तो लोग बड़े परेशान, कि कुछ भी हम कर ले रहे हैं, ये मस्त ही है। तो उन्होंने एक आख़िरी चाल चली, उन्होंने एक जादूगर को बुलाया और जादूगर से कहा कि चलो, कुछ करो। जादूगर ने कहा, ‘बड़ा आसान है। ये पानी है, ये उसको पिला दीजिएगा, और पिलाते ही वो भूल जाएगा कि वो राजा है। राजा होते हुए भी भूल जाएगा वो राजा है, उसे लगने लगेगा कि वो भिखारी है।‘

यही किया गया, उसको वो पानी पिला दिया गया, और जो काम दुनिया की तमाम लड़ाइयाँ नहीं कर पायी थीं, बड़े-बड़े बलों का इस्तेमाल नहीं कर पाया था, वो काम उस पानी ने कर दिया। उस राजा की मौज चली गयी, उसकी मस्ती खो गयी, वो चारों तरफ़ भटकने लगा कि मैं भिखारी हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है, मुझे दे दो।

वो आदमी जिसका जब सबकुछ खो जाता था तब भी उसकी मस्ती क़ायम रहती थी, अब उसके पास सबकुछ होते हुए भी उसकी मौज चली गयी, वो दर-दर भटकता रहा। किसी से कह रहा है, ‘खाने को दे दो‘; किसी से कह रहा है, ‘मैं बड़ा दुखी हूँ, सुख दे दो‘; किसी से कह रहा है, मैं बड़ा डरा हुआ हूँ, मुझे थोड़ी सी शान्ति मिल सकती है?’ और बड़ा भिखारी बन गया। है सबकुछ उसके पास।

उसके राज्य के लोग बड़े परेशान हुए, कि ये क्या हो गया हमारे दोस्त को, हमारे राजा को। तो फिर एक ही तरीक़ा था उनके पास, कि उसको किसी तरीक़े से याद दिला दें। याद दिलाने में बड़ा समय लगा, तब तक राजा ने, जो कि अब भिखारी था, नये सम्बन्ध बना लिये। वो इधर-उधर की दुकानों के सामने बैठने लगा, कि भई, दो-चार रोटी बचती हो तो मेरी ओर फेंक दिया करो। उसने भीख माँगकर के कपड़े ले लिये थे, उसने उन कपड़ों को धारण करना शुरू कर दिया। उसने एक टूटा-फूटा कटोरा हाथ में ले लिया, कि इसमें मुझे कुछ मिल जाएगा।

वो जिससे ही मिलता, उससे उसका सम्बन्ध ग़ुलाम का रहता। वो सबसे यही कहता, ‘मैं तुम्हारा ग़ुलाम हूँ, तुम मेरे मालिक हो।’ और उसने अपने चारों ओर पचासों मालिक खड़े कर लिये, हर कोई अब उसका मालिक था। वो सबके सामने यही कहता — ‘मालिक, कुछ दे दो। मालिक, कुछ दे दो।’ किसी से नौकरी भी माँगने लगता — ‘मालिक, थोड़ी सी नौकरी दे दोगे?’ किसी से कहता — ‘थोड़ा ज्ञान दे दो।‘ किसी के पास जाता और कहता — ‘थोड़ा प्रेम दे दो न, उसकी भी बड़ी भूख है। कोई मुझे प्यार नहीं करता, थोड़ा सा प्रेम दे दो।‘ माँगता ही फिरता था।

लेकिन उसके दोस्तों ने कोशिश करी और फिर एक दिन उसको अचानक याद आ गया कि मैं भिखारी नहीं, मैं बादशाह हूँ। और जैसे ही उसको याद आया कि मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो बादशाह हूँ, उसकी मौज वापस आ गयी, उसकी मस्ती वापस आ गयी। और उसने अपने भिखारीपन में जितने सम्बन्ध बनाये थे, वो सारे सम्बन्ध उसके पलभर में टूट गये, क्योंकि वो सारे सम्बन्ध ही डर के और ग़ुलामी के थे। उसकी ग़ुलामी ख़त्म हो गयी।

उसने कहा, ‘कोई मेरा मालिक नहीं! हाँ, दोस्ती का और प्रेम का सम्बन्ध बनाना है तो आओ, स्वागत है। पर ये पुराना जो मैंने पूरा अपना संसार रच रखा है, इस संसार की कोई क़ीमत नहीं क्योंकि इस संसार में मेरे सारे रिश्ते ग़ुलामी के हैं। मैंने अगर प्रेम भी पाया है तो भीख में पाया है, मौज में नहीं पाया अपनी।‘

वो राजा तुम हो जो बादशाह होते हुए भी बिलकुल भूल गये हो कि तुम बादशाह हो। तुम अपनेआप को बिलकुल भिखारी मानकर बैठे हो और डरते रहते हो कि आज भी कुछ और मिलेगा कि नहीं।

डर! भिखारी सदा डरा रहेगा क्योंकि उसके इतने मालिक हैं न, और उसके भीतर हमेशा अपूर्णता का भाव है कि मेरे हाथ खाली हैं, मुझे जो मिलना है बाहर से मिलना है। वो हमेशा डरा-डरा ही घूमेगा। और भिखारी हमेशा तनाव में भी रहेगा क्योंकि उसका एक नहीं मालिक है, उसके कई मालिक हैं, और अलग-अलग मालिकों की अलग-अलग मर्ज़ी हो सकती है, तो उसको अलग-अलग दिशाओं में जाना पड़ेगा, वो बँट जाएगा।

उसका एक मालिक है परिवार, परिवार कह रहा है, ‘इस तरफ़ को चलो।‘ उसका दूसरा मालिक है समाज, समाज कह रहा है, ‘दूसरी तरफ़ को।‘ तीसरे मालिक हैं उसके दोस्त-यार, जो कह रहे हैं, ‘नहीं, चलो घूम-फिरकर आते हैं।‘ चौथा मालिक है मीडिया। उसके पचास मालिक हैं जो उसे पचास दिशाओं में खींच रहे हैं, और इन्हीं पचास दिशाओं में खिंचे होने का नाम है तनाव — ‘मैं जाऊँ किधर को? इधर को चलता हूँ तो उसको बुरा लगता है, उधर को चलता हूँ तो इसको बुरा लगता है, मैं जाऊँ किधर को?’

‘डर’ और ‘तनाव’ दोनों स्पष्ट हो रहे हैं? डर और तनाव दोनों इस बात के लक्षण हैं कि कहीं तुम पर कोई जादू कर दिया गया है। तुम्हारे भीतर ये बात भर दी गयी है कि तुम भिखारी हो। तुमसे कह दिया गया है कि जब तक तुम कुछ बन नहीं जाते, तुम किसी लायक़ नहीं हो। तुमसे कह दिया गया है कि अगर प्यार भी पाना है तो पहले उसकी क़ाबिलियत पैदा करो। ये सब बातें, ज़हरीली बातें तुम्हारे दिमाग़ में भर दी गयी हैं।

तुमसे लगातार कह दिया गया है कि संसार एक दौड़ है, एक रेस है जिसमें तुम्हें जीतकर दिखाना है, और अगर तुम जीते नहीं हो तो तुम्हारी कोई क़ीमत नहीं। तुमसे कहा गया है — ‘तुम खाली हाथ हो, जाओ लूटो, पाओ, अर्जित करो!’ यही तो है न भिखारी होना, और क्या है! यही जादू कर दिया गया है तुम्हारे साथ, यही पानी पिला दिया गया है तुमको, और इसी कारण डरे-डरे घूमते हो।

और मैं तुमसे कह रहा हूँ — ये पानी तुमको बचपन से ही पिलाया जा रहा है और दसों दिशाओं से पिलाया जा रहा है। टीवी खोलते हो तो टीवी यही पानी पिला रहा है, अख़बार उठाते हो तो अख़बार यही, परिवार यही, शिक्षा यही, समाज यही। वो सब तुममें लगातार स्थापित कर रहे हैं अधूरेपन का भाव, कि कुछ खोट है तुममें, लगातार यही कहा जा रहा है — ‘कुछ खोट है तुममें।‘

परिवार कह रहा है — ‘देखो, पड़ोसी को देखो, वो कितना ऊँचा, और तुम कुछ नहीं, खोट है तुममें।‘ मीडिया तुमसे कह रहा है — ‘अरे! तुम्हारे चेहरे का रंग गाढ़ा है, खोट है तुममें, लो ये क्रीम लगाओ!’ सिनेमा तुमसे कह रहा है — ‘अरे! इतनी उम्र हो गयी, अभी तक साथी नहीं मिला तुम्हें, कुछ खोट है तुममें। जाओ ढूँढकर लाओ!‘ शिक्षा तुमसे कह रही है — ‘अरे! बस इतने ही प्रतिशत नम्बर आये, कुछ खोट है तुममें। जाओ, बढ़ो! प्रतिशत बढ़ाओ अपना।‘

हर ओर से सन्देश तुम्हें लगातार यही दिया गया है कि तुम नाकाफ़ी हो — यही वो पानी है जो तुम पी रहे हो, और तुमने इस पानी को ही अमृत मान रखा है। तुम सोचते हो कि वो लोग तुम्हारे हितैषी हैं जो तुमसे कहते हैं कि कुछ बनकर दिखाओ। ना! वो तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हैं, क्योंकि ‘बनकर दिखाओ’ में ये भाव पहले आता है कि मैं अभी कुछ नहीं हूँ। वो लगातार तुमसे कह रहे हैं कि अभी तुम जैसे हो, बेकार हो, फ़ालतू हो, व्यर्थ हो। वो तुमसे कह रहे हैं, ‘भविष्य सुनहरा हो‘, पर भविष्य आता कब है! जीते तुम सदा वर्तमान में हो, भविष्य आता कब है?

लेकिन चारों ओर तुम्हारे जादूगर-ही-जादूगर बैठे हैं, वहाँ तो एक था। वो है न, कि “बस एक ही उल्लू काफ़ी था बर्बाद गुलिस्ताँ करने को, हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा।” वहाँ तो एक जादूगर था, यहाँ तो चारों तरफ़ जादूगर-ही-जादूगर हैं, जो तुम्हें लगातार यही एहसास करा रहे हैं कि आ गया भिखारी। “हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा।“ वो उजड़ ही जाएगा गुलिस्ताँ, जैसे तुम उजड़े हुए हो, कि डर, तनाव, आक्रांत हो, कि जैसे कोई हमला किये दे रहा है तुममें।

आँखों में कोई आनन्द नहीं, जीवन में प्रेम नहीं, बस एक दहशत की छाया है। दो शब्द तुमसे उठकर बोले नहीं जाते, एक-एक क़दम तुम उठाते हो सहमा हुआ। क्या जीवन ऐसा ही नहीं है? मन में हमेशा विचार यही चलता रहता है कि मेरा कुछ बिगड़ सकता है। इस कारण फिर तुम गणित बिठाते हो, तिकड़में लगाते हो, चतुराई दिखाते हो। ये सब भिखारी होने के लक्षण हैं — चालबाज़ियाँ, कि मेरा कुछ बिगड़ जाएगा, मुझमें कोई कमी है, कोई दिक्क़त है।

फिर तुम बड़ी चालें चलते हो, तरकीबें लगाते हो। तुम कहते हो, ‘मैं अच्छे कपड़े पहन लूँ, शायद इससे मेरा भिखारी होना न दिखे।‘ फिर तुम कहते हो, ‘मेरी भाषा अच्छी हो जाए, शायद इससे ये बात छुप जाए कि मैं भिखारी हूँ।‘ फिर तुम कहते हो, ‘मैं दस-बारह डिग्रियाँ अर्जित कर लूँ, फिर कोई कह नहीं पाएगा कि मैं भिखारी हूँ।‘ पर ये सबकुछ करने के पीछे भाव यही है कि हूँ तो मैं भिखारी ही। भिखारी हूँ, जिसे इस बात को छुपाना है कि वो भिखारी है।

छुपाने की कोशिश यही बताती है कि तुम मान चुके हो कि तुम?

श्रोतागण: भिखारी हो।

आचार्य: अन्यथा तुम छुपाने की कोशिश क्यों करते? जो मानेगा कि उसमें कोई कमी है, वही तो उस कमी को छुपाएगा न? और तुमने छुपाने के पूरे इंतज़ाम कर रखे हैं — तुम नकली चेहरे पहनते हो, तुम नकली बातें करते हो — ये सब क्या है?

डर और तनाव मूलतः इसी भाव से निकलते हैं कि मेरा कुछ छिन सकता है। तुम कुछ कर लो, न डर से मुक्ति पाओगे न तनाव से मुक्ति पाओगे, जब तक तुमने ये धारणा बाँध रखी है कि मेरा कुछ छिन सकता है या कि मुझे बाहर से कुछ मिल सकता है — दोनों एक ही बातें हैं। जब तक तुमने ये धारणा बाँध रखी है, तुम्हें डर से मुक्ति नहीं मिलेगी। अपने चारों ओर की दुनिया को देखो, ये डरी-सहमी ही घूमती है, क्योंकि सबने यही बात बाँध रखी है — ‘मेरा कुछ छिन जाएगा। कोई दूसरा है जो छीन सकता है और कोई दूसरा है जो मुझे कुछ दे सकता है।‘

ये निर्भरता, ये पराश्रयता, ये तुम्हें हमेशा डर में रखेगी। तुम हँसोगे भी तो वो एक डरी-डरी हँसी होगी, ऐसी ही तो होती है हमारी! तुम मुस्कुराओगे भी तो लगेगा रुआँसे हो। मस्ती नहीं मिलेगी, मौज नहीं मिलेगी, जैसी एक बच्चे की होती है, वो खिलखिलाता है वास्तव में। गा नहीं पाओगे, जैसे चिड़िया गाती है, डर-डरकर नहीं गाती है वो। तुम तो गाओगे भी तो ऐसे कि कोई दूसरा खुश हो जाए।

भिखारियों को गाना गाते सुना है? ट्रेन में, बस में भिखारी गाना गाते हैं, उन्हें गाना गाते सुना है? वो गाते भी इस खा़तिर हैं कि भीख मिल जाए; तो तुम भी तो इसीलिए गाते हो? अभी मैं कहूँ कि यहाँ आकर गाना गाओ, तो तुम लगातार भीड़ की आँखों में झाँक रहे होगे कि कैसा लगा मेरा गाना, अरे दो ताली तो बजा दो। यही तो भीख है जो तुम माँग रहे हो, कि दो ताली तो बजा दो, थोड़ी मान्यता दे दो, थोड़ी स्वीकृति तो दे दो कि मैं अच्छा हूँ। जैसे ट्रेन में गाता हुआ भिखारी, कि भजन भी गा रहा है तो इसलिए कि दो पैसे मिल जाएँ।

जो करो मौज में करो। सदा अपनेआप को यही बताओ — ‘मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, मैं लाख गिरूँ तो मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता। लाख असफलताएँ मिलें, तो भी मैं पूरा हूँ। मेरी कोशिशें लाख व्यर्थ गयीं, तो भी मैं छोटा नहीं हो गया। मेरे अतीत में कुछ विशेष नहीं है, तो भी मैं चमकता हीरा ही हूँ।‘ जब इस भाव में जियोगे, तब न डर रहेगा न तनाव।

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