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भय से मुक्ति कैसे होगी? || (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: कोई तरीका है क्या रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भय से मुक्त रहने का?

आचार्य प्रशांत: बहुत तरीके हैं।

दिल में अगर सच्चाई के लिए श्रद्धा है, तो अनगिनत तरीके हैं। हर तरीका उसी क्षण की पैदाइश होता है जिस क्षण भय आघात करता है। मैं कोशिश करूँगा कुछ तरीके सुझाने की, सारे तरीके नहीं सुझा पाऊँगा, क्योंकि अनगिनत हैं!

भय आए, तो पूछिए अपने आपसे कि, "भय जो कुछ भी मुझे कह रहा है, जो भी कहानी सुना रहा है, वो कहानी अगर वास्तव में सच्ची है भी, तो भी क्या?"

भय ने कहा, "ये ये नुक़सान हो जाएगा", और हो सकता है कि हो भी जाए। हम नहीं कह रहे हैं कि नहीं होगा। मान ली तुम्हारी बात कि हो सकता है आज शाम तक हमें फलाना नुक़सान हो जाए, हाँ, हो गया! तो भी क्या?

हाँ, हो गया, ठीक है, तो भी क्या?

अरे! क्या बिगड़ जाएगा?

और कितना? भय कहेगा, "ये बिगड़ जाएगा, वो बिगड़ जाएगा।"

आप पूछ लीजिए भय से, “पहली बार बिगड़ेगा? तू पहली बार आ कर के मुझे चेता रहा है? तू पहली बार आ कर मुझे डरा रहा है? तू आज से सौ बार पहले भी मेरे पास आ चुका है और तू यही सब बातें मुझे कह चुका है कि आपका ये नुक़सान हो सकता है और वो नुक़सान हो सकता है। कई दफ़े वो नुक़सान हुए भी हैं। लेकिन हम जी गए। उन नुक़सानों के बावजूद हम खड़े हुए हैं। जब उतने झेल गए तो ये भी झेल जाएँगे। हमारी हस्ती तो नहीं मिटती न! तू चार दिन पहले भी आया था, तूने यही सारी बातें करी थीं। तू ही है न वो? हम जैसे ये चार दिन जी गए, वैसे आगे भी जी जाएँगे।”

ज़रूरतें अपनी कम रखिए, माँगें अपनी कम रखिए। जितनी आप अपनी ज़रूरतें और माँगें कम रखेंगे, भय के पास उतने कम उपाय होंगे आप पर हावी होने के।

क्योंकि भय आपको यही बोल-बोल कर तो दबाता है। भय आपको क्या बोल-बोल कर दबाता है? तुमसे फलानी चीज़?

प्र: छिन जाएगी।

आचार्य: छिन जाएगी। जब तुम्हारे पास चीज़ें ही बहुत कम हैं, जब तुम्हारी चीज़ों पर निर्भरता ही बहुत कम है, तो भय तुमसे बोलेगा क्या?

भय आ कर बोले, "तुमसे ये छिन जाएगा।" तुम भय से बोलो, "भाई! ज़रा रुकना तू वो तो ले ही जा, तू ये भी साथ में ले जा, और आईन्दा मत आना। तू जो-जो धमकियाँ देता है, तू अपनी सारी धमकियाँ पूरी ही कर ले। धमका मत। तुझे जो चाहिए ले जा। हम उसके बाद भी हैं।"

आप कहेंगे, "ये तो बड़ी हृदयहीन बात हुई। जो कुछ हमें प्यारा है, भय हमें उसी को ले कर धमकाता है। भय कहता है ये छीन ले जाऊँगा, और आप हमें कह रहे हैं कि भय से कहो कि छीन ले जाए?"

एक बात समझिए साफ़-साफ़। जो कुछ भी भय आपसे छीन सकता है, जो कुछ भी स्थितियाँ, घटनाएँ, या समय आपसे छीन सकता है, उसको आप बचाएँगे भी कहाँ तक? कहाँ तक बचाओगे?

जो कुछ भी पक्का है कि आपसे छिनेगा, क्या वो वास्तव में आपका है भी?

अगर आप के पास कोई ऐसी चीज़ है, जो तय है कि छिन जाएगी, तो वो चीज़ आपकी तो नहीं है! या तो वो उधार की है या चोरी की है। आपके घर में एक चीज़ रखी है जो पक्का है कि घर से चली जानी है, क्या वो चीज़ आपकी है? या तो वो उधार की है, या आप ले कर के आएं हैं कुछ दिनों के लिए, किराए पर ली है। जब किराए पर ली है तो आपको हक़ क्या है उसे अपना मानने का? या फिर वो चीज़ चोरी की है। आप उस पर जबरन हक़ जमाये बैठे हैं और पुलिस आपकी तलाश में है। कि जिस दिन आप हत्थे चढ़े उस दिन आप से वो चीज़ भी छीन ली जाएगी और आपकी आज़ादी भी जाएगी।

आप ऐसी चीज़ों से दिल लगा क्यों रहे हो, जो आपकी हैं नहीं? उन्हीं चीज़ों को ले कर के तो भय आप पर हावी होता है।

जो वास्तव में आपका है, उसको ले कर के आपको कौन डरा सकता है।

ये ग़लती मत करो।

जो तुम्हारा नहीं है, उसको ‘मैं’ से मत जोड़ो। उससे ममता मत बैठाओ।

तुम सिर्फ़ दुःख तैयार कर रहे हो।

और निराश होने की ज़रूरत नहीं है, बहुत कुछ है जो तुम्हारा है। पर उसका पता तो तब लगे न, जब उस सब से ज़रा तुम्हें मुक्ति मिले जिससे बंधे बैठे हो।

छोटी-मोटी, दो कौड़ी की चीज़ों से, पहले तो दिल लगा लिया है और दूसरी बात वो चीज़ें भी ऐसी हैं जो उधार की हैं, छिन जानी हैं। ये होशियारी देख रहे हो? उस चीज़ की क़ीमत क्या है? दो कौड़ी। और दूसरी चीज़, वो चीज़ है भी?

प्र: उधार की।

आचार्य: और उस चीज़ की खातिर दुःख पा रहे हो। उस चीज़ की खातिर ये भय नाम का पहलवान आता है और रोज़ तुमको फूँक कर जाता है, “छिना, छिना, अरे! पकड़, अरे! गया।” और तुम रोज़ इधर-उधर दौड़ लगाते हो। उसे पकड़ने के लिए, कहीं छिन ना जाए, कहीं छूट ना जाए, कहीं टूट ना जाए। और इस चक्कर में, जो आत्मिक है, जो तुम्हारा है, जो असली है, उससे कोई सरोकार नहीं!

जिन्होंने जाना है, उन्होंने समझाया है कि जो चीज़ छिनने को तैयार ही लगती हो, उसको तुम जाने दो।

जीवन कठिन नहीं है। तो जीवन में जो कुछ भी तुम कठिनाई से पकड़े हुए हो, वो असली नहीं हो सकता।

“कहे कबीर सो रक्त है, जा में खेंचातानी।” जो कुछ बनाए रखने के लिए खींचातानी करनी पड़ती है, उसमें खून-ही-खून है। असली वो है जो सहजता से मिल जाए, जैसे जीव को साँस। जैसे जानवर को घास। जानवर दिन भर प्रयत्न कर के घास नहीं पाता। मैं खुले जानवरों की बात कर रहा हूँ, तुम्हारे बंधक जानवरों की नहीं।

जो भी असली है, वो पाने के लिए आपको क़ीमत नहीं चुकानी पड़ेगी! हाँ, अहंकार झुकाना पड़ सकता है, सर झुकाना पड़ सकता है।

लेकिन उसके लिए आपको अपनी आत्मा की बलि नहीं चुकानी पड़ेगी।

पहली बात तो चीज़ें बिना क़ीमत की और दूसरी बात कि उन्हीं को ले कर के रोज़ की हैरानी-परेशानी। जाने ही दो! क्या पता उनके जाने के बाद पता चले कि भला होता कि ये पहले ही चले जाते। भला होता कि ये चीज़ पहले ही छूट जाती। और अगर वो चीज़ ऐसी है जो असली है, तो जा कर भी मिल जाएगी। तो वहाँ पर भी मत डरो। मान लो कि वो चीज़ असली ही थी, तो तुम छोड़ भी दो तो कुछ नुक़सान नहीं होने का। वो छूट कर भी नहीं छूटेगी। किसी और रूप में, किसी और तरीके से, किसी और संयोग से, तुम्हें मिली ही रहेगी।

डर-डर कर जो भी पकड़ोगे, पहली बात तो वो पकड़ने के क़ाबिल नहीं होगा, दूसरा, उसे पकड़ नहीं पाओगे। प्रेम में पकड़ना दूसरी बात होती है, वहाँ ऊपर-ऊपर से पकड़ना होता है, भीतर-भीतर से तो ‘प्राप्ति’ होती है।

सब कुछ ‘पूर्व प्राप्त’ होता है। ऊपर-ऊपर से मिलने जा रहे होते हो, भीतर-भीतर से पहले से ही मिले बैठे होते हो। ये होता है प्रेम में पकड़ना। कि ऊपर-ऊपर से दूरी है और भीतर-भीतर? ‘प्राप्ति’ है, ‘मिलन’ है, ‘योग’ है। और जब तुम डर में पकड़ते हो, तो ऊपर-ऊपर से भले ही पकड़ लो, भीतर-ही-भीतर दूरी बनी रहती है। दोनों में बड़ा अंतर है।

प्रेम में प्रयत्न होता है ऊपर-ऊपर और डर में, तुम कितना भी प्रयत्न कर लो, भीतर-भीतर दूरी ही रहती है, प्राप्ति कभी नहीं होती।

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