प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते, मेरा नाम राज दीक्षित है। मैं एयरोस्पेस इंजीनियरिंग का छात्र हूँ।
आचार्य जी, हाल ही में जो एयर इंडिया की घटना देखने को मिली है, उसे वर्स्ट एक्सीडेंट ऑफ़ द डिकेड बोला गया। इस बात की अभी कोई स्पष्ट पुष्टि नहीं की गई है कि ये किस वजह से हुआ है, किस लिए हुआ है। लेकिन आचार्य जी, क्लाइमेट चेंज को आज तक हम बस ऐसे ही देखते आए हैं कि गर्मी बढ़ गई, लैंडस्लाइड गिर गया।
लेकिन जो आज तक आप क्लाइमेट चेंज के बारे में समझाते आए हो और जो मेरे प्रोफ़ेसर्स ने भी मेरे को समझाया, कि आगे इस क्लाइमेट चेंज की वजह से — हालाँकि ये क्लाइमेट चेंज की वजह से शायद, इसकी कोई स्पष्ट पुष्टि नहीं है, लेकिन क्लाइमेट चेंज की वजह से ऐसी और घटना देखने को मिल सकती हैं। तो आचार्य जी?
आचार्य प्रशांत: ये तो सामान्य बुद्धि की बात है ना? आपके शरीर से ले कर आपके उपकरणों तक, सब कुछ एक तापमान में और जितने भी दूसरे फ़िज़िकल पैरामीटर्स हो सकते हैं, उनके दायरे में ऑपरेट करने के लिए बना है, ना। ये है (हाथ में कलम उठाते हैं), इसका क्या होगा अगर तापमान बहुत ज़्यादा हो जाए? इसका क्या होगा अगर हवा ही बहुत तेज़ हो जाए? जितनी भी फ़िज़िकल क्वांटिटीज़ होती हैं, उन सबकी एक सेफ़ रेंज के भीतर ही ये सफलता से काम कर सकता है, है ना?
द्वितीय विश्व युद्ध — एक कारण कि जर्मनी हारा था, जब मॉस्को से 20 किलोमीटर बस रह गई थी जर्मन सेनाएँ, जाड़े आ गए। जून में इन्होंने शुरू करा था "ऑपरेशन बारबरोसा, जून में शुरू करा था 1941 में। पर कुछ देरी हो गई, और रूस है भी बहुत लंबा-चौड़ा। तो उधर लेनिनग्राद इधर मॉस्को — सीज डाल रखी है, जाड़े आ गए। जब जाड़े आ गए, तो जो जर्मनों के हथियार थे — कई कारण थे कि जर्मन हारे। पर एक कारण ये भी था कि जर्मनों के हथियार जाम हो गए, उतनी ठंड में काम करने के लिए वो डिज़ाइन्ड ही नहीं थे।
तो ये इंडस वैली सिविलाइज़ेशन, जिसको अभी तक ये माना जाता था कि, आर्यों की लहरें आईं एक के बाद एक, और उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता तबाह कर दी। अब जैसे-जैसे हम उसमें वैज्ञानिक शोध और बढ़ा रहे हैं, और साक्ष्य सामने आ रहे हैं, तो पता चल रहा है कि उसके उजड़ने में भी जलवायु के परिवर्तन का बहुत बड़ा हाथ था। जो चोल साम्राज्य था, पूरा दक्षिण भारत का — वो कैसे? वहाँ भी यही हुआ था।
जलवायु परिवर्तन, तो इंसान को, इंसान की मशीनों को, इंसान के साम्राज्यों और सभ्यताओं, सबको खत्म करने में इतिहास में सबसे बड़ा कारक रहा है।
अभी जो चल रहा है — कि प्राकृतिक स्तर से कार्बन डाइऑक्साइड 70-80% ज़्यादा हो गई है, आज वातावरण में। 270 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से बढ़कर वो 440 पीपीएम हो गई है। ऐसा पाँचवें मास एक्सटिंक्शन के बाद कभी नहीं हुआ। तो इसको छठा मास एक्सटिंक्शन माना जा रहा है।
जब क्लाइमेट चेंज होता है, तो वो सिर्फ़ इंसान को, इंसान की मशीनों को नहीं ख़राब करता, मास एक्सटिंक्शन कर देता है। सब उड़ जाता है। क्योंकि सब कुछ ही, चाहे वो इंसान ने डिजाइन करा हो, चाहे प्रकृति ने डिजाइन करा हो, सब कुछ ही एक खास मौसम के लिए डिज़ाइन्ड है। सब कुछ ही।
यहाँ ग्रेटर नोएडा में सेब का पेड़ क्यों नहीं लगा रहे? क्यों नहीं लगा रहे?
श्रोता: मौसम अनुकूल नहीं है।
आचार्य प्रशांत: सेब क्यों नहीं होते यहाँ पर? क्योंकि सेब सिर्फ़ एक खास मौसम में हो सकता है। समझ में आ रही है बात? एक खास जलवायु में हो सकता है। सेब आपको पता है जहाँ होते थे, वहाँ होने भी मुश्किल हो रहे हैं। क्योंकि सेब को जितनी ठंड चाहिए, वो उसे वहाँ भी नहीं मिल रही।
और ये जो मौसमी बात होती है, ये बहुत सूक्ष्म होती है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कोई कोई पेड़ है, वो किसी तरीक़े से 2 डिग्री या 5 डिग्री के तापमान की वृद्धि को झेल जाए। पर जो छोटे-छोटे कीड़े पॉलिनेशन करते थे उस पेड़ का — वो ना झेल पाए। वो कीड़े चले गए या वो कीड़े खत्म हो गए, तो पेड़ भी समाप्त हो जाएगा। आप कहोगे, “हमने तो नहीं काटा, पर अब नए पैदा नहीं होते।” नए नहीं पैदा होते क्योंकि वे कीड़े नहीं बचे जो पॉलिनेशन करते थे उनका। कीड़े क्यों नहीं बचे? क्योंकि जलवायु परिवर्तन हो गया। वो कीड़े नहीं झेल पाए उसको।
हम अपने आप को प्रकृति से भिन्न जानते हैं, तो हमें ये एहसास ही नहीं होता है कि हमारा सब कुछ ही प्रकृति से जुड़ा हुआ है। और वहाँ ज़रा भी कुछ परिवर्तन होगा, तो आप बचोगे ही नहीं।
आप पता करना, ये आप लोगों के लिए आज का काम दे रहा हूँ। जो जिसको आप बोलते आए हो ना आज तक, g = 9.8 मीटर प्रति सेकंड स्क्वेयर, क्लाइमेट चेंज इसको भी बदल देगा। कैसे बदल देगा, पता करो।
अब भाई, आपका इवोल्यूशन इसी पृथ्वी पर हुआ है। आपका दिल धड़कता है ना? तो वो एक खास रेट से धड़कता है। और वो जो रेट है, वो ग्रैविटी पर और ग्रैविटी के कारण एटमॉस्फेरिक प्रेशर पर डिपेंडेंट है।
आपका दिल धड़कता है ताकि आपकी नसों में उतना ही ब्लड प्रेशर रहे, जो एटमॉस्फेरिक प्रेशर को काउंटर बैलेंस कर सके। अगर आपका ब्लड प्रेशर बढ़ गया, एटमॉस्फेरिक प्रेशर कम है, ब्लड प्रेशर ज़्यादा है। तो क्या होगा? नस फट जाएगी। नस के भीतर प्रेशर ज़्यादा है, एटमॉस्फेरिक प्रेशर कम है — नस फट जाएगी।
और अगर आपकी नसों में ब्लड प्रेशर एकदम कम हो जाए और एटमॉस्फेरिक प्रेशर बहुत है, तो क्या होगा? खून बहना बंद हो जाएगा, क्योंकि नसें, जैसे आपने पाइप दबा दी हो बाहरी दबाव से। और एटमॉस्फेरिक प्रेशर किस चीज़ पर डिपेंड करता है? अरे, ग्रैविटी पर बाबा! ग्रैविटी के कारण ही तो एटमॉस्फेरिक प्रेशर है। ग्रैविटी ना हो, तो ये जितनी गैसें हैं, जिसको आप वातावरण बोलते हो — ये सब स्पेस में भाग जाएँगी। आपकी ग्रैविटी ने तो इन मॉलिक्यूल्स को खींच रखा है ना पृथ्वी की ओर।
अब क्लाइमेट चेंज से ग्रैविटी बदलेगी। ग्रैविटी से एटमॉस्फेरिक प्रेशर बदलेगा। एटमॉस्फेरिक प्रेशर बदल गया, तो तुम्हारा दिल धड़केगा? पर हम ऐसा नाटक कर रहे हैं जैसे, "बस कुछ नहीं, थोड़ा सा टेंपरेचर ही तो बढ़ जाएगा। टेंपरेचर ही तो बढ़ जाएगा।”
ऐसा नहीं कि दिल धड़कना एक बार में बंद हो जाएगा, दिल को अलग तरीक़े से धड़कना पड़ेगा। और दिल को उस तरीक़े से धड़कना पड़ेगा जिसके लिए दिल डिज़ाइन्ड ही नहीं है। और फिर आपको ताज्जुब होगा कि ये जवान लोग चलते-चलते गिर के मर क्यों जाते हैं? अरेथमिया होता है। दिल की एक रिदम होती है, वो रिदम डिसरप्ट हो जाएगी। आपको समझ में ही नहीं आएगा — "ये तो कुछ भी नहीं था, अभी तो हँस-खेल रहा था, बैठा था। बैठे-बैठे ऐसे (लेट गया) हो गया!"
ये मैं एक्स्ट्रीम सिनेरियोज़ बता रहा हूँ, पर समझो इनको। आप अपने शरीर को इतना ही बाहर-बाहर से देखते हो। जो सबसे डेलिकेट, सबसे टेंडर वेसिकल्स होती हैं शरीर में वो कहाँ होती हैं? वो यहाँ (दिमाग़) होती हैं, और उन्हीं के कारण इंसान जानवरों से अलग है। उन्हीं के कारण हम जानवरों से अलग हैं।
जानवरों के ब्रेन में उतनी सर्टिलिटी नहीं होती, उतने फाइन ब्लड वेसिकल्स नहीं होतीं जितनी हमारे होती हैं। और उसका एक कारण ये है कि हम खड़े होकर चलते हैं। जब हम खड़े होकर चलते हैं — दिल यहाँ है, ये ऊपर है, तो यहाँ (दिमाग़) पर प्रेशर कम हो जाता है। जब प्रेशर कम हो जाता है, तो यहाँ ज़्यादा डेलिकेट डिफरेंशिएशन हो पाता है।
जानवर का दिल और उसका सिर एक ही तल पर होता है, तो वहाँ पर दिल से प्रेशर ज़्यादा आता है।
तुम जब सब कुछ बदल दोगे, तो तुम्हारा ब्रेन क्या वैसे ही काम करेगा जैसे आज करता है? सारी एटमॉस्फेरिक कंडीशन्स, जलवायु बदल जाएँगी, तो ब्रेन क्या वैसे ही काम करेगा? तुम पागल हो जाने वाले हो! ये बात नहीं समझ में आ रही है।
जानवरों से एक उदाहरण बताता हूँ — ये जो बहुत सारे ऐंफीबियन्स होते हैं। ऐंफीबियन क्या होता है? पानी, ज़मीन दोनों पर चलता है। मगरमच्छ भी आता है, कछुओं की कुछ प्रजातियाँ आती हैं, मगरों की भी कुछ, घड़ियाल इनकी कुछ प्रजातियाँ आती हैं। ये अंडे देते हैं। अंडे कहाँ पर देते हैं? पानी में मिलते हैं अंडे? ज़मीन पर देते हैं। और वो उस अंडे से नर निकलेगा या मादा निकलेगी, ये 0.5 डिग्री तापमान के अंतर से डिसाइड होता है।
तापमान बढ़ गया, तो मादा निकलती है। तापमान कम रहा, तो नर निकलता है उसमें से। अब 90% मादाएँ पैदा हो रही हैं, तो प्रजाति कैसे चलेगी? और तुमको क्या लग रहा है कि इस प्रकार का टेंपरेचर रिलेटेड प्रभाव सिर्फ़ कछुओं, घड़ियालों और मगरों पर पड़ रहा है? मनुष्यों पर भी पड़ेगा।
ये जो तुम लोकधर्म में वीर्य वृद्धि का इतना कर रहे हो ना, फिर तुम्हें समझ में नहीं आएगा कि आई.वी.एफ. क्लीनिक (इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन क्लीनिक) क्यों इतने बढ़ रहे हैं। आप सब अर्बन, शहरी लोग हो तो खाना मिल जाता है। आपने तो पता नहीं अब कितने सालों से फसलें उगती ना देखी हों। फसलें उग लेंगी? टेंपरेचर पैटर्न बदल गया, और रेनफॉल का पैटर्न बदल गया, फसलें उग लेंगी? और वो बदल गया है।
ये साल था इसके पहले चार महीने, जनवरी से अप्रैल तक, सवा सौ सालों के सबसे गर्म महीनों में से थे। जनवरी भी, फरवरी भी, मार्च भी, अप्रैल भी पिछले सवा सौ सालों के सबसे गर्म महीनों में थे। और पाँचवां महीना सबसे गीला महीना था। जितने चार हमने गर्म महीने देखे इस साल जनवरी से अप्रैल तक, उतने गर्म महीने पिछले सवा सौ सालों में देखने को नहीं मिले। उनमें से कोई महीना था जो सवा सौ सालों में नंबर एक पर था, कोई नंबर तीन पर, कोई नंबर पाँच पर। इतने गर्म।
और इन चार के बाद पाँचवा आता है, उतना गीला महीना हमें सवा सौ सालों में देखने को नहीं मिला। मई में कहाँ बारिश होती है? फसलें झेल लेंगी? फसलें नहीं झेलेंगी, तो खाने को क्या पाओगे?
स्पेसिफिक हीट जानते हो, है ना? स्पेसिफिक हीट का मतलब ये होता है कि, कितनी एनर्जी चाहिए 1 डिग्री तापमान बढ़ाने के लिए, 1 ग्राम का या किसी भी वज़न की एक यूनिट का। उसे स्पेसिफिक हीट बोलते हैं। पानी की काफ़ी होती है, तो इसको स्टैंडर्ड मानते हैं 1 रखते हैं। और लैंड — तुम बहुत अच्छे से जानते हो, कि लैंड बैड कंडक्टर होता है हीट का, खासकर जब लैंड सूखा हो।
सूखा लैंड बैड कंडक्टर होता है ना हीट का, और गर्म भी जल्दी हो जाता है। मैं हीटर ले आया हूँ। ये पानी रख दो यहाँ पर, इस पर ऐसे हीटर दिखाऊँ और इस पर (टेबल की सतह) हीटर दिखाऊँ — गर्म क्या हो जाएगा दोनों में से जल्दी? ये (टेबल की सतह) जल्दी गर्म हो जाएगा। खासकर अगर मैं नीचे से दिखाऊँ, तब तो ये (पानी) और देर लगाएगा। क्योंकि इसमें कन्वेन्शनल करंट सेटअप हो जाएँगी। नीचे से गर्म करोगे तो ये पूरा गर्म होगा, तब जाकर ये गर्म होगा।
और इस (टेबल की सतह) पर दिखाऊँगा तो ये यहाँ गर्म ही नहीं हो जाएगा — जलना शुरू कर सकता है। एक तो इसकी स्पेसिफिक हीट ज़्यादा, दूसरे इसमें (पानी) करंट्स भी सेटअप हो सकती हैं, जो कि इसमें (टेबल की सतह) नहीं हो सकतीं।
मॉनसून कैसे आता है? मॉनसून तब आता है जब इंडियन पेनिनसुला — जो है, जो पूरा सबकॉण्टिनेंट ही ले लो — उसके टेंपरेचर में, लैंड टेंपरेचर में और सी टेंपरेचर में एक ज़बरदस्त अंतर पैदा हो जाता है। हमें मालूम है, जब टेंपरेचर में अंतर होता है तो उसका प्रेशर पर क्या असर पड़ता है? जहाँ हाई टेंपरेचर हो जाएगा, वहाँ लो प्रेशर हो जाएगा। जब लो प्रेशर हो जाता है, तो फिर समुद्र से वो जो ह्यूमिड हवा है, मॉइस्चर कैरिंग करंट्स हैं — वो आती हैं लैंड की ओर। तो एक खास टेंपरेचर डिफरेंशियल चाहिए — खास चाहिए।
लेकिन अगर टेंपरेचर बढ़ता है, तो लैंड और सी का प्रपोर्शन में नहीं बढ़ेगा। जैसे अभी हमने देखा — लैंड का ज़्यादा बढ़ जाएगा।
इसी तरह से अगर ठंडक आती है, तो लैंड ज़्यादा ठंडा हो जाता है। समुद्र के तापमान में सर्दी और गर्मी में अंतर नहीं होता बहुत। पर जो लैंडलॉक्ड इलाके होते हैं, उनमें देखो — सर्दी, गर्मी में कितना अंतर आ जाता है।
दिल्ली में सर्दी — ठंडी बहुत हो जाती है। दिल्ली की सर्दी और गर्मी — गर्म बहुत हो जाती है। क्योंकि लैंड है, पानी से दूर है। जब इनका टेंपरेचर डिफरेंशियल एक्सट्रीम हो जाएगा, तो आपका जो पूरा मॉनसून है — वो डिसरप्ट हो जाना है।
पहली बात तो — जब उतना टेंपरेचर बदल गया है, तो फसलें नहीं होनी हैं। और फसल हो भी सकती है, तो बारिश नहीं होनी है। बारिश कैसे होगी? कैसे कर लोगे बारिश? वो एक बहुत डेलिकेट सिस्टम है, जो मॉनसून सिस्टम है — वो बहुत डेलिकेट है। इतना टेंपरेचर होता है, तो बंगाल की खाड़ी और अरेबियन सी की ओर से फिर हवाएँ ऐसे बहनी शुरू करती हैं भारत की ओर, और फिर उनसे हमारे यहाँ बारिश आती है। वो पूरा सिस्टम हम डिसरप्ट कर रहे हैं — हो चुका है डिसरप्ट। तो आपको खाने को कैसे मिलेगा? अब ये बता दो। जब पैदा ही नहीं होगा तो? और 150 करोड़ हो आप। कैसे होगा?
आप घुस सकते हो ए.सी. के अंदर, सब कीट-पतंगे भी घुस रहे हैं क्या? आपको क्या लग रहा है, बस ऐसे ही फसल पैदा हो जाती है? हम ये तो जानते हैं कि पेस्टिसाइड चाहिए पेस्ट्स मारने के लिए, पर क्या हमको पता है कितने बैक्टीरिया चाहिए और कितनी और स्पीशीज़ चाहिए फसल को साबुत रखने के लिए? जो आकर के पेस्ट हैं, जो कीड़े फसल खाते हैं — उनके तो आप नाम जानते हो, उनको मार भी देते हो। पर जो दूसरी स्पीशीज़ हैं — वो सिर्फ़ फसल को खाती नहीं हैं, फसल को पैदा करने में और फसल को बनाए रखने में भी दूसरी प्रजातियों का बहुत बड़ा योगदान होता है।
आप ए.सी. में आ गए, वो प्रजातियाँ भी ए.सी. में आ गईं क्या? वो तो मर गई ना। जब वो मर गईं, तो फसल कैसे पैदा हो जाएगी? हर प्रजाति, सारी स्पीशीज़, टेंपरेचर और मॉइस्चर डिपेंडेंट होती हैं। टेंपरेचर बदल दोगे, मॉइस्चर बदल दोगे — वो स्पीशीज़ उस जगह पाई ही नहीं जाएगी। और ये नहीं कि वो वीज़ा ले कहीं और पहुँच जाएगी — बहुत सारी स्पीशीज़ सिर्फ़ लोकल होती हैं। वो अगर वहाँ नहीं हैं, तो फिर कहीं नहीं हैं। वो मिट गईं, हमेशा के लिए मिट गईं।
जड़ों में, पेड़ों की जड़ों में नाइट्रोजन फिक्सेशन एक चीज़ होती है — जानते हैं आप? वो आपको दिखाई नहीं देगी, पर अगर वो न हो तो पेड़ जी नहीं सकता। और वो भी जो काम करती हैं प्रजातियाँ, छोटे जीवाणुओं की — वो सब भी बहुत टेंपरेचर डिपेंडेंट होती हैं। फिर समझ में नहीं आएगा कि आम आर्टिफिशियली क्यों पकाने पड़ रहे हैं — क्योंकि वो अब प्राकृतिक तरीक़े से पक ही नहीं सकते। फिर समझ में नहीं आएगा कि इंसान ही क्यों बदल गया — हमारी भावनाएँ क्यों बदल रही हैं, विचार क्यों बदल रहे हैं?
हम, देखो, हैं तो सबसे पहले मिट्टी ही ना? उसी मिट्टी से अहंता पैदा होती है — "द सेंस ऑफ़ सेल्फ।” मिट्टी से ही तो। वो जब पूरी मिट्टी ही बदल जाएगी, तो तुम वही रह जाओगे क्या जो तुम हो?
मिट्टी का कोई तत्व नहीं है जो आपके शरीर में नहीं पाया जाता हो। वो सब जब ऊपर-नीचे हो जाएँगे, तो आप भी वो नहीं रह जाओगे जो आप हो। आपकी स्पीशीज़ ही बदल जानी है। आप कुछ और हो जाओगे। वो क्लाइमेट चेंज नहीं है — वो स्पीशीज़ चेंज है।
प्लेन का फिज़िकल इंस्पेक्शन भी होता है उड़ने से पहले। 2:00 बजे की फ्लाइट है, वो फिज़िकल इंस्पेक्शन स्टाफ भी करता है, पायलट्स भी करते हैं। फिज़िकल इंस्पेक्शन कैसे होगा? वो प्लेन खड़ा हुआ है — वहाँ पर, कितने पेड़ होते हैं वो पूरे फील्ड में, रनवे में और एयरफील्ड में — कितने पेड़ होते हैं? एक भी नहीं।
प्लेन वहाँ खड़ा हुआ है — आपको उस लंबे-चौड़े प्लेन में ऐसे पूरा घूम के इंस्पेक्शन करना है। इंसान तो इंसान है, एम्प्लॉयी तो एम्प्लॉयी है — 50 डिग्री टेंपरेचर में वो कितना इंस्पेक्शन करेगा? तो आपने फिर भूल होने की, किसी फॉल्ट को ओवरलुक करने की प्रॉबेबिलिटी बढ़ा दी कि नहीं बढ़ा दी?
वो भी यही कहेगा कि जल्दी से चक्कर लगा के भागो — इतनी गर्मी में मैं कहाँ छोटे-छोटे क्रैक्स देखूँ? "अरे, मुझे यहाँ पर विंग में एक माइनर क्रैक दिखाई दिया।" फिज़िकल इंस्पेक्शन करना होता है पूरा। कौन करेगा 50 डिग्री में? वो भी जब दोपहर 2:00 बजे की फ्लाइट है।
सारा जो क्रू है और जो पायलट्स हैं वो भी इंसान हैं। वो भी कहीं से आ रहे हैं, ड्राइव करके आ रहे हैं, अपने घरों से आ रहे हैं, कुछ करके आ रहे हैं। इतनी गर्मी है। आपको थोड़ी सी गर्मी हो जाती है, आप बोलते हो — "भेजा आउट हो गया।" वो लोग भी जो आ रहे हैं वो भी तो इंसान हैं। गलतियों की संभावना बढ़ेगी कि नहीं बढ़ेगी?
और टेंपरेचर बढ़ने पर आप अपने आसपास का तापमान कम रखने के लिए जो कुछ करोगे, वो टेंपरेचर को और बढ़ाएगा। कूलिंग के लिए जो कुछ किया जाता है, वो एटमॉस्फेरिक हीटिंग कर देता है। समझ रहे हो? हीटिंग होगी, तो आपकी कूलिंग नीड्स और बढ़ जाएँगी। और कूलिंग के लिए आप जो कुछ करोगे, वो एटमॉस्फेरिक हीटिंग को और बढ़ा देगा। अब रोक सकते हो तो रोको।
और जो फीडबैक साइकल्स हैं, उसकी तो हम बहुत बार बात कर ही चुके हैं। तुम कितना भी एडवांस डिज़ाइन बना लो प्लेन का, बर्ड हिट्स कैसे रोक लोगे, बताओ? वो एक बर्ड नहीं होती, कई बार तो पूरा झुंड, फ्लॉक आता है। क्या करोगे उनका?
तुमने उनके घर छीन लिए — तो वो जो बर्ड्स हैं, बेचारी — वो मालूम है किस लालच में आती हैं? जो रनवे होता है, इसके इधर-उधर दोनों तरफ़ घास होती है। उस घास में छोटे-छोटे कीड़े होते हैं, तो उनके लालच में चिड़िया आ जाती है। क्योंकि चिड़ियों का जो प्राकृतिक घर था, वो तो तुमने छीन लिया। एक तरह से कहो तो ये प्लेन पर बर्ड हिट नहीं हुई है, ये बर्ड पर प्लेन हिट हुआ है। क्योंकि जगह तो वो बर्ड की थी। बर्ड अपना पेड़ खोजती है, पेड़ नहीं मिलता तो वहाँ जो तुम्हारे रनवे के बगल में घास है, वो उसमें आ जाती है कुछ खाने के लिए।
और ये बर्ड हिट नहीं होती, इसको बोलते हैं बर्ड इंजेशन। वो जो इंजन होता है — जेट इंजन — वो खींच लेता है अंदर, इंजेस्ट कर लेता है। बर्ड नहीं पगलाई है कि जाकर इंजन में घुसेगी। जेट इंजन एक चिड़िया को नहीं खींचता है, वो पूरे फ्लॉक को खींच लेता है अंदर। तुम कैसे रोक लोगे उनको? और जैसे-जैसे तुम जानवरों के घर काटते जाओगे, वैसे-वैसे वो तुम्हारे शहरों, मोहल्लों और एयरपोर्ट्स के भी आसपास आते ही जाएँगे। उन्हें कैसे रोकोगे?
कोई भी चिड़िया 50 डिग्री में धूप में नहीं निकलना चाहती। क्यों निकल रही है? चिड़ियों का आमतौर पर कौन सा समय होता है गति करने का? सुबह का और शाम का। खासकर भरी गर्मियों की दोपहरी में चिड़िया बाहर नहीं — आपको अभी गर्मी में चहचहाहट नहीं सुनाई देगी। पर चिड़िया क्यों बाहर है? क्योंकि सुबह-शाम उसको खाना ही नहीं मिल रहा है। जिसको सुबह-शाम खाना नहीं मिल रहा तो दोपहर में भी तलाश रही है, कहीं कुछ मिल जाए खाने को।
खाना क्यों नहीं मिल रहा है? क्योंकि जहाँ उसको खाना मिलता था, उन जगहों पर इंसान जाकर बैठ गया है। क्यों? क्योंकि आपको वंशवृद्धि करनी है। क्योंकि आपको फैलना है। हमें और जगह चाहिए।
अभी द्वितीय विश्व युद्ध की बात करी — वो शुरू ही ऐसे हुआ था। हिटलर बोला, "जर्मन रेस के लिए जर्मनी बहुत थोड़ी जगह है।" तो बोला, "ये पूर्व की ओर ये स्लाव लोग रहते हैं।" उसमें रूसी भी आते हैं, और जितना सब स्लोवेनिया, स्लोवाकिया, चेक — सब लोग आते हैं ये, बोला, "ये स्लाव लोग रहते हैं, इन्फीरियर रेसेज़ हैं। हम इनकी ज़मीन ले लेते हैं, यहाँ पे जर्मनों को बसाएँगे।" तो पोलैंड में घुस गया सबसे पहले।
ये हमारी जो फैलने की है न — हर जगह फैल जाओ, दूसरों की ज़मीन ले लो, हम सिर्फ़ दूसरे इंसानों की ज़मीन थोड़ी ले रहे हैं।
श्रोता: जानवरों की।
आचार्य प्रशांत: सबसे ज़्यादा तो हमने जानवरों की ज़मीन ली है। वो उनकी ज़मीन थी, उस पर वो लाखों साल से रहते थे। तुमने उनकी अब ज़मीन ले ली है। वो कहाँ जाएँ?
और कोई चिड़िया इंसान के पास नहीं आना चाहती। चिड़िया के पास जाओ, देखा तुरंत क्या करती है?
श्रोता: उड़ जाती है।
आचार्य प्रशांत: तुम चिड़ियों को मजबूर कर रहे हो तुम्हारे पास आने के लिए, क्योंकि तुमने उनकी जगह ले ली, उनका पेड़ ले लिया, उनका भोजन ले लिया। वो क्या करें? उनको घोंसला बनाने तक की जगह नहीं है। हर जगह तुम फैल गए हो, जैसे हिटलर बोल रहा था, "मुझे फैलना है।"
प्लेन तो प्लेन है, आपकी जो साधारण बाइक है या कार है — ये भी बनी नहीं है एक तापमान से आगे बर्दाश्त करने के लिए। खड़ी बाइकों में विस्फोट हो रहे हैं। बाइक खड़ी है, खड़े-खड़े फट गई। इसमें दो चीज़ें एक साथ शामिल हैं — एक तो ये कि अमीर और अमीर हो रहे हैं, गरीब और गरीब हो रहे हैं। पर गरीबों को शांत रखने के लिए उनको बहुत ही लो-एंड की टेक्नोलॉजी देनी ज़रूरी है, नहीं तो वो विद्रोह कर देंगे।
तो बाइकों के वही मॉडल जो आज भी हैं और आज से 30–40 साल पहले भी थे — 30–40 साल पहले ज़्यादा रॉबस्ट होते थे, ज़्यादा मज़बूत होते थे। आज वही मॉडल आता है, वो बहुत हल्का रहता है। पर एक तरह की सस्ती बाइक गरीबों में बाँटनी ज़रूरी है, नहीं तो सरकारें गिरा देंगे गरीब। और ये जो लो-एंड टेक्नोलॉजी है जो गरीबों में वितरित करी जाएगी, जिसको आम आदमी इस्तेमाल करेगा, वो सारी वही है, जो क्लाइमेट चेंज से बिल्कुल वल्नरेबल है।
वो फटेगी बाइक। वो बनाई ऐसी गई है कि फटे। ज़्यादा अगर उसको मज़बूत बनाओगे तो महंगी हो जाएगी। महंगी हो जाएगी तो बिकेगी नहीं। बिकेगी नहीं तो गरीब को मिलेगी नहीं। गरीब को नहीं मिलेगी तो गरीब सरकार पलट देगा।
ये जो आप कारें चलाते हो भारत में, जो सबसे प्रसिद्ध कार ब्रांड्स हैं — आपको क्या लग रहा है, इनमें कोई दम है? 70–80% भारतीय जो कारें चला रहे हैं — ये कार नहीं हैं, ये एक तरह के मूविंग कॉफ़िन्स हैं। इनको कोई ज़ोर से मुक्का मार दे तो पिचक जाएँ।
इनकी सेफ़्टी रेटिंग्स आप देखिएगा क्या है। ये ज़्यादातर ऐसी हैं कि ये किसी थर्ड वर्ल्ड कंट्री में भी एक्सपोर्ट नहीं करी जा सकतीं। कोई इन्हें अपने आने नहीं देगा। और हम उनको बहुत शान से चलाते हैं कि ये हमारी... देखो ये हमारे ब्रांड्स हैं।
ये सब जो लो-एंड टेक्नोलॉजी है, ये क्लाइमेट चेंज के आगे रुकेगी? क्या होगा इसका? साधारण भी जब टेम्परेचर हो, तो जो सीमेंटेड रोड्स होती हैं — जैसे यमुना एक्सप्रेसवे है — उस पर आप अगर बिना रुके गाड़ी चला गए दो-तीन घंटे, तो टायर बहुत गर्म हो जाता है। जो थोड़े हाई-एंड व्हीकल्स होते हैं न, उनमें डैशबोर्ड पर टायर का टेम्परेचर भी आ रहा होता है — कि आपको पता रहे कि टायर कितना गर्म हो गया।
पर जो गाड़ियाँ हमें दी जाती हैं चलाने के लिए — ये बोल के कि देखो भारत अब आगे बढ़ रहा है, हमारी अपनी ये सब गाड़ियाँ — उनमें कुछ नहीं ऐसा है। साधारण राइड भी अगर आपने 3 घंटे लगातार चला दी उस रोड पर, तो टायर गर्म हो जाएगा और फटेगा।
और क्लाइमेट चेंज के बाद क्या होगा? अब ये सोच लो — कि जब टेम्परेचर भी ऊपर से आग बरस रहा है और टायर आपको कोई बहुत हाई क्वालिटी के दिए नहीं जाएँगे — आपको तो कहा जाएगा, "ये जो मिल रहा है, इसी पर स्वाभिमान के नाते गुमान कर लो कि ये टायर हमको मिला है।" ये वो टायर थोड़ी हैं जो इंटरनेशनली चलते हैं।
और इसीलिए क्लाइमेट चेंज जैसी आपदाओं का सबसे ज़्यादा असर भारत जैसे देशों पर ही पड़ना है। भारत उन पाँच शीर्ष देशों में है जो क्लाइमेट चेंज से सबसे ज़्यादा आहत होंगे — कहूँगा बर्बाद होंगे। और पाँच में बाक़ी दो तुम्हारे पड़ोसी हैं — पाकिस्तान और बांग्लादेश।
सिर्फ़ टेम्परेचर नहीं बढ़ने वाला। एक बात आप समझिए — बहुत लोग इस बात से धोखा खा जाते हैं। कहते हैं, "2–3 डिग्री बढ़ भी गया तो क्या होगा?"
जो टेम्परेचर की रेंज है, वो ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ने वाली है। देखो ऐसे समझो — ठीक है, ये इसको ले लो, कुछ भी ले लो, टाइम ले लो (एक्स-एक्सिस)। और ये टेम्परेचर है (वाई-एक्सिस)। अभी मान लो तुम्हारा ऐसा कर्व है, (ध्वनि तरंगों की तरह एक कर्व है, लेकिन बहुत अधिक उतार-चढ़ाव नहीं है)।” ठीक है — ये कर्व है। तो ये इसका एवरेज है, इस पूरे कर्व के टेम्परेचर का। ये एवरेज है — ये जो एक्स-एक्सिस है, यही एवरेज हो गया।
हम एवरेज की जब बात करते हैं, तो हम बहुत बड़ी भूल कर देते हैं। क्यों? समझो। ये जो पूरा कर्व है न, इसका शेप ये हो जाएगा (ध्वनि तरंगों की तरह एक कर्व है, लेकिन बहुत अधिक उतार-चढ़ाव है) — ये नया शेप है। इस नए शेप की ख़ासियत ये है कि इसमें जो पीक्स हैं, वो पुराने पीक से 8 डिग्री ऊपर हैं। और जो ये बॉटम्स हैं, ये पुराने बॉटम से 5 डिग्री नीचे हैं।
तो अगर सिर्फ़ एवरेज की बात करोगे, तो एवरेज तो पुराने एवरेज से बस 3 डिग्री ऊपर है — ये उदाहरण के लिए बोल रहा हूँ, ठीक है? समझाने के लिए समझो। पीक 8 डिग्री ज़्यादा है और बॉटम 5 डिग्री नीचे हो गया, तो एवरेज कितना बढ़ा? तो आपको लगता है, 3 डिग्री तो बर्दाश्त कर लेंगे।
वो 3 डिग्री नहीं है — पीक 8 डिग्री बढ़ गया है।
अब इसमें गरीबों को क्या होगा, ये सोचो। और जानवरों को क्या होगा, ये सोचो। 3 डिग्री एवरेज है, पीक 8 डिग्री — 10 डिग्री बढ़ेगा। और यही जो पीक है, जब ये ह्यूमिडिटी के साथ बढ़ता है, तो जो फेल्ट टेम्परेचर होता है — वो 15 डिग्री ज़्यादा हो जाता है। बात समझ में आ रही है?
और ये सिर्फ़ ऐसा नहीं कि गर्मी ज़्यादा बढ़ गई है — ठंड भी ज़्यादा बढ़ जाएगी। एक्स्ट्रीम्स — एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स बढ़ेंगे। दोनों ओर की एक्स्ट्रीम बढ़ेगी, जिसके नतीजे में एवरेज टेम्परेचर तो आपको लगेगा कि 3 डिग्री ही बढ़ा है, पर वो 3 डिग्री एवरेज है — एक्स्ट्रीम्स तो 10–10, 15–15 डिग्री बढ़ गई दोनों तरफ़। हाँ, जो ऊपर की तरफ एक्स्ट्रीम है अगर वो 8 बढ़ी है, तो नीचे वाली सिर्फ़ 5 बढ़ेगी। तो इस कारण एवरेज ऊपर की ओर बढ़ा है।
एरैटिक, विम्सिकल वेदर — पता ही नहीं चलेगा कि ये क्या हो गया। इतनी गर्मी अचानक, इतनी ठंड कैसे हो गई? ये क्या हो रहा है?
लोग कह रहे — "अरे, ये मई के महीने में...।”
श्रोता: “जैसे मार्च का मौसम हो।”
आचार्य प्रशांत: हाँ, “ऐसा मौसम हो रहा है जैसे फरवरी का मौसम हो।" और अचानक फिर हीट वेव चलने लग गई। जो वल्नरेबल सेशंस हैं सोसाइटी के, वो सबसे ज़्यादा सफ़र करेंगे। और रूट कॉज़ एनालिसिस करा नहीं जाएगा। हम रूट कॉज़ एनालिसिस सामने नहीं लाया जाएगा कभी।
हम कह देंगे कि अरे, चिड़ियों ने गड़बड़ कर दी। चिड़ियों ने क्यों गड़बड़ कर दी, वो हम नहीं बताएँगे। कभी हम कहेंगे क्रॉप फेल्योर हो गई। क्रॉप फेल्योर क्यों हो गई, वो हम नहीं बताएँगे। कभी हम कहेंगे रोड जर्नी अनसेफ़ हो गई। क्यों हो गई, हम नहीं बताएँगे। कभी हम कहेंगे मेंटल डिस्ट्रेस बढ़ता जा रहा है, लोग ज़्यादा पागल हो रहे हैं। क्यों पागल हो रहे हैं, वो हम नहीं बताएँगे। कभी हम कहेंगे रिप्रोडक्टिव हेल्थ ख़राब होती जा रही है। क्यों ख़राब हो रही है, वो हम नहीं बताएँगे। वो सब छुपाया जाएगा, ताकि जो गैस कंपनियाँ हैं, कोल कंपनियाँ हैं, एनर्जी कंपनियाँ हैं — इनका धंधा चलता रहे। और ये लोग आपके आइडल्स, आदर्श बनकर बैठे रहें।
सबसे पहले तो मैं पूछता हूँ कि समझ में क्यों नहीं बात आती है? हम भारत में हैं, हम नदियों को पूजते हैं। अभी उधर गया था ऋषिकेश की तरफ़। बाप रे बाप! चारधाम और गंगोत्री जाने वाले, यमुनोत्री जाने वाले — बाप रे!
तुम देख रहे हो ग्लेशियर है? तुम्हें पता है, वहाँ से ही धार चली है — वो पिघल रहा है, धार चली है। प्रकृति का एक संतुलन रहा है आज तक। क्या संतुलन रहा है? कि एक ऐसा तापमान रहा है — तापमान का, टेम्परेचर का — ऐसा पैटर्न रहा है, और जो हवा रही है, उसमें ह्यूमिडिटी का, उसमें मॉइस्चर का ऐसा पैटर्न रहा है, कि ग्लेशियर जमता जाता है और पिघलता जाता है। वो जो पिघलता जाता है, उसी को हम क्या बोलते हैं? माँ गंगा।
लेकिन साथ ही साथ ऊपर से जम भी रहा है। क्योंकि ना जमे तो पिघलेगा, तो ख़त्म हो जाएगा। जब आपकी टेम्परेचर राइज़ हो रही है, टेम्परेचर राइज़ इतना ज़बरदस्त है, तो वो जो ग्लेशियर है, वो लगातार सिकुड़ रहा है। नदियों की धाराएँ हमें कब तक मिलने वाली हैं? हमें नहीं समझ में आ रही बात, भाई।
आप फ्रिज की डिफ्रॉस्टिंग करते हो ना कभी-कभी? करते हो। जब तक ऊपर फ्रीज़र में थोड़ी भी बर्फ़ है, तब तक पानी टपकता रहता है। अगर आप फ्रीज़र को नहीं देखो, पानी को टपकता देखो, तो आपको लगेगा कि धारा तो बनी हुई है। लेकिन सच्चाई ये है कि फ्रीज़र में जो बर्फ़ थी, वो लगातार पिघल के कम होती जा रही है। और एक बिंदु ऐसा आएगा जब वो जो धारा थी, वो अचानक से रुक जाएगी। आप कहोगे — ये क्या हुआ? ये क्या हुआ? फिर आप फ्रीज़र में झाँकोगे — आप कहोगे, अच्छा, अब यहाँ बर्फ़ बची ही नहीं।
लेकिन जब तक थोड़ी भी बर्फ़ है, तब तक तो धारा रहेगी। वो धारा अभी हमें दिखाई दे रही है हमारी नदियों में। वो धारा अचानक से सूखेगी। आप कहोगे — ये क्या है? यहाँ तो नदी थी। ये तो ख़ाली जगह है, ये कंकड़, रेत कहाँ से आ गई? नदी कहाँ गई हमारी? और कुछ नदियाँ हैं जो बरसात के पानी से बहती हैं, जैसे दक्षिण भारत की नदियाँ। वहाँ बरसात नहीं होगी, तो इसलिए सूख जाएगी वो। जो बर्फ़ से बहती हैं, वो इसलिए सूख जाएँगी कि बर्फ़ पिघल गई। जहाँ बरसात नहीं है, वहाँ बरसात नहीं है। तो इसलिए रुक जाएगी नदी।
तो तुम बताओ कि तुम्हें बचने क्या वाला है?
लेकिन बात नहीं करनी है क्लाइमेट चेंज की। और इतने लोग, जब इनको पीने को पानी नहीं होगा, खाने को फ़सल नहीं होगी — तो ये सब क्या करेंगे, मालूम है ना? ये दंगे करेंगे। और ये कोशिश करेंगे, कहीं भी ऐसी जगह चले जाएँ, जहाँ पानी तो मिले, कम से कम। बताओ — ये कहाँ जाएँगे? भारत में ख़ाली जगह कहाँ है? खाने को अन्न नहीं, पीने को पानी नहीं। ये सब कहाँ जाएँगे?
हम अभी भी कहते हैं कि भारत इतना गरीब है, कि 100 करोड़ लोगों को सरकार सब्सिडी देती है, तब वो दो जून की रोटी खा पाते हैं। हम इस पर फ़ख्र करते हैं ना? इतने गरीब हैं हमारे यहाँ। जब पानी ही नहीं और खाना ही नहीं, तो ये जाएँगे कहाँ? ये भी तो बता दो, और कहीं तो जाएँगे। जहाँ पर बैठे हैं, वहाँ पड़े-पड़े तो नहीं मरेंगे। कहीं तो जाएँगे।
कहाँ जाएँगे? सोचो — क्या होने वाला है?
कोई फ़िज़िकल वेरिएबल नहीं है जो टेम्परेचर डिपेंडेंट ना हो, इक्के-दुक्कों को छोड़ के। हमारे काम के जितने भी फ़िज़िकल वेरिएबल्स हैं, वो ज़्यादातर टेम्परेचर पर डिपेंड करते हैं। ये जो पूरा कॉस्मोलॉजी है, यही कैसे चलती है? कि दूर कोई सितारा है, और उसके टेम्परेचर के आधार पर उससे जो आपके पास *वेव*आती है — माइक्रोवेव्स, कॉस्मिक वेव्स, आप उसके आधार पर उसका सब पता कर लेते हो।
जितनी ये वेव्स भी हैं आपकी, ये भी टेम्परेचर के आधार पर चलती हैं। आप कहते हो — लाल तारा है, नीला तारा है। इससे मुझे पता चल जाता है कि उसका टेम्परेचर कितना है। तो लाल और नीला, ये तो वेव की फ़्रीक्वेंसी से डिटर्मिन होता है ना कलर? तो माने उसके टेम्परेचर से डिपेंडेंट हो रहा है, पूरा वेवफ़ॉर्म। और आपकी पूरी दुनिया वेव्स पर ही चल रही है। और सारी वेव्स टेम्परेचर ... दुनिया कैसे चला लोगे बताओ?
कोई भी सिग्नल तुम्हारा बचेगा? फिर हमें ताज्जुब होगा — बच्चे डिफॉर्म्ड क्यों पैदा हो रहे हैं? पहले तो पैदा ही मुश्किल से हो रहे हैं, और फिर जो पैदा हो रहे हैं, वो डिफेक्टेड पैदा हो रहे हैं। किसी के ब्रेन नहीं है, किसी के आँख नहीं है, किसी के तीन हाथ हैं। ये क्यों हो रहा है?
फिर मेडिकल साइंस सामने आएगी, वो इसके समाधान निकालेंगे, पर रूट कॉज़ कोई नहीं बताएगा।
आपको मालूम है, आपके जो साधारण फल और सब्ज़ियाँ हैं जो आप खाते हो, उनका कंपोज़िशन बदल चुका है। माने जो आज का नींबू है, वो 40 साल पहले वाला नींबू नहीं है। वो दूसरी चीज़ थी। उसके अंदर दूसरे अनुपात में सब मिनरल्स, विटामिन्स, वॉटर, सब कुछ था। आज जो आप ले रहे हो, कोई दूसरी चीज़ है वो। आपको पता है ना ये सब? इसमें कई कारण हैं, पर एक कारण क्लाइमेट चेंज भी है।
आप आज जो खीरा खा रहे हो, वो 40 साल पहले वाला खीरा नहीं है। आज का आलू, आज की लौकी, वो नहीं है जो पहले होता था।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे अब जो लोग मार्स -वार्स के लिए जाने के लिए लगे रहते हैं — ये हवा मचा रखा है, उन्हें मार्स जाना है। तो अभी उन्होंने देख लिया है कि ये जो विमान हादसे हो रहे हैं, तो अब क्या पता उन्हें भी ये चीज़ दिख जाए कि क्लाइमेट चेंज की वजह से उनका रॉकेट जैसे ही ऊपर जा रहा हो, वहीं पर फट जाए क्लाइमेट चेंज की वजह से।
आचार्य प्रशांत: स्मार्ट लोग हैं वो। ऐसा नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, फिर हम स्पीड ऑफ़ सॉल्यूशन पर बात करते हैं। तो हम ये कहते थे कि, 1.5 डिग्री सेल्सियस जो सैचुरेशन पॉइंट है, उसको होने से रोकना पड़ेगा। वो होगी *वैल्यू।*और हम फिर लोगों को बात करते हैं कि कॉन्शस लिविंग तरफ़ लेके आएँ। लोगों से हम बात करते हैं कि आप कॉन्शस लिविंग की तरफ़ आओ। आप अपना समझो कि आपकी कामनाएँ क्या हैं, आपके कार्बन फ़ुटप्रिंट्स क्या हैं। ये सब समझो, और फिर आप अपनी दिनचर्या जो भी करते हो, उसमें सब आपको समझ आएगा कि, कितना वो कार्बन वग़ैरह एमिट कर रहा है।
पर इस सब से सॉल्यूशन हो कैसे पाएगा? ये काफ़ी लंबा चल चला जाएगा ये चीज़।
आचार्य प्रशांत: मैंने इतनी देर में सॉल्यूशन शब्द एक बार भी इस्तेमाल किया?
मैं बार-बार बोल रहा था — रूट कॉज़, रूट कॉज़। हमें गुमान ये रहता है कि “समस्या तो हम जानते ही हैं, हमें अब समाधान बता दो।” जबकि तुम्हारी समस्या ये है कि तुम समस्या ही नहीं जानते हो। तुम मान के चलते हो, “समस्या तो हमें पता है। सॉल्यूशन बताइए ना, सॉल्यूशन बताइए ना।” क्या समस्या? तुम्हें क्या पता है? मैं रूट कॉज़ इतनी देर से बोल रहा था, क्या है रूट कॉज़? जानते भी हो?
ये सब कुछ जो हो रहा है, उसका तुम्हें एक रीज़न बताया जाएगा। तुम कहोगे उससे गहरा रीजन है, क्लाइमेट चेंज। नहीं क्लाइमेट चेंज भी रूट कॉज़ नहीं है, कुछ और है रूट कॉज़। और वो जो रूट कॉज़ है, उसका समाधान हो रहा है अभी। यही है समाधान। यही है समाधान।
जहाँ समाधान हो रहा है, वहाँ बैठ के तुम पूछ रहे हो, "समाधान क्या है?" जहाँ समाधान हो ही रहा है, वहाँ बैठ के पूछ रहे हो — "समाधान क्या है?" तो मैं क्या बताऊँ, क्या समाधान है?
प्रश्नकर्ता: हमें समाधान समझ में आता है, ठीक है। लेकिन हम इसके बारे में, लेकिन हम बहुत चंद लोग हैं।
आचार्य प्रशांत: तो संख्या बढ़ाओ ना। यही समाधान है।
प्रश्नकर्ता: जब लोगों से बात करने जाते हैं इस बारे में, तो कोई...जैसे अभी सत्र में भी बात हो रही थी ना, कि लोग अपना कपड़ा ओढ़ के बैठे हैं अपने सामने।
आचार्य प्रशांत: लोग नहीं बैठे हैं। आप मेरे सामने बैठे हो, मैंने तो आपको समझा दिया। आप कपड़ा ओढ़ के बैठे हो, इसलिए आप दूसरों को नहीं समझा पाते। अगर समाधान यही है कि संख्या बल बढ़ाओ, तो संख्या बल बढ़ाने के रास्ते में बाहर के लोग बाधा नहीं हैं — आप बाधा हो। क्योंकि संख्या आपको बढ़ानी है, और आपसे बढ़ाई नहीं जा रही। क्यों? क्योंकि आप ही भीतर ही भीतर कहीं ना कहीं मेरा विरोध लेकर बैठे हुए हो।
आपके पास ही कोई ऐसी मान्यता है, कोई स्वार्थ है, जो मुझे स्वीकार नहीं कर रही है पूरी तरह से। तो इसलिए फिर जब आप बाहर जाते हो, तो फिर होठ सिल जाते हैं। जो बात में दम होना चाहिए, जो सच्चाई होनी चाहिए, और जो गरज होनी चाहिए, वो रहती नहीं है। तो फिर कोई सुनता नहीं आपकी। यही समस्या है। ये है समस्या।
आप सब जो लोग हो ना, मैं बताता हूँ — आपका अगर हम कार्बन फ़ुटप्रिंट देखें, पूरी गीता कम्युनिटी का। तो आपका कार्बन फ़ुटप्रिंट, आपके ही समान इकनॉमिक स्टेटस वाली क्लास से छोटा आएगा। यह है समाधान।
कहने को आप यहाँ गीता पढ़ने आए हो, पर गीता पढ़ने के साथ-साथ आप क्लाइमेट क्राइसिस का समाधान स्वयं ही बन रहे हो। अगर हम एक स्टडी कर पाएँ कि आप लोगों का कार्बन फ़ुटप्रिंट कितना है, और आप ही के जैसे आर्थिक स्तर वाले किसी दूसरे सैंपल का कार्बन फ़ुटप्रिंट कितना है? तो आप पाओगे कि आपका कार्बन फ़ुटप्रिंट कम है। आप हो समाधान। पर आप ये समाधान फैलने कहाँ दे रहे हो? आप ख़ुद उसको ब्लॉक करके बैठे हो।
प्रश्नकर्ता: ऐसा लगता है फिर कि क्लाइमेट कोलैप्स की वजह से, जो भी हम बात कर रहे थे कि सब पागल हो जाएँगे, मर ही जाएँगे — वो तो फिर ऐसा लगता है कि निश्चित ही है। क्योंकि आप बात करते हैं ना…
आचार्य प्रशांत: वो आपके ऊपर है। निश्चित कुछ भी है नहीं। है नहीं, सब तुम्हारे ऊपर है। तो क्लाइमेट कोलैप्स होगा, तो तुम्हारे ऊपर है बात। "निश्चित" अगर है, तो तुमने निश्चित किया है।
यह तय है यदि कि पूर्ण विध्वंस होगा, तो वो तुमने तय करा है। वो अपने आप नहीं तय हुआ है, वो तुमने तय करा है।
अरे यार, देखो ना जहाँ तुम्हारे स्वार्थ होते हैं, वहाँ तुमने कितनी जान लगाई है ज़िन्दगी में। लगाई है कि नहीं लगाई है? और जो काम हम कर रहे हैं, उसके लिए कितनी जान लगा देते हो, अब ये भी बता दो? कितनी जान लगा देते हो?
तुम चाहो, तो समाधान हो सकता है। पर तुम्हारी चाहतें सब दूसरी दिशा की हैं। जहाँ स्वार्थ होता है, वहाँ सब लोग पूरी जान लगाने को तैयार हो जाते हैं। यहाँ तो ऐसे समझते हो कि ऐसे ही कुछ हो रहा है। दान, अनुदान, चंदे का काम हो रहा है।
पार्ट टाइम जाके थोड़ा बहुत कुछ कर दिया, तो कर दिया। बाक़ी मेन स्ट्रीम हमारा काम वही है, जो मेन स्ट्रीम सोसाइटी का है। ये तो तुम्हारी धारणा है कि "हैं तो हम मेन स्ट्रीम समाज में ही, आचार्य जी के लिए थोड़ा बहुत — पाँच दस मिनट, आधा घंटा निकाल के या वीकेंड पर दो घंटा निकाल करके कुछ कर देंगे।”
जो तुम्हारी चाहतें होती हैं, उनको भी इतना ही समय देते हो? अपनी कामनाओं, हसरतों के पीछे भी इतना ही ज़ोर लगाते हो बस? वहाँ तो पूरी जान झोंक देते हो। इस काम में बहुत बड़े बन जाते हो। वही हो रहा है जो तुम चाहते हो। और अगर समाधान है, तो वो भी तुम्हारे माध्यम से है — फैलो। तुम फैलोगे, तो समाधान फैलेगा।